विभाजन पर जब भी कोई जिन्ना का बचाव करने की कोशिश करता है, एक तूफान सा आ जाता है. अब ये तूफान फारूक अब्दुल्ला के एक बयान ने खड़ा कर दिया है.
आइए इस पूरी बहस को समझने की एक और कोशिश करते हैं लेकिन पहले फारूक अब्दुल्ला ने क्या कहा इसे जान लेते हैं.
नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रमुख और पूर्व जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने शनिवार को शेर-ए-कश्मीर भवन, जम्मू में एक समारोह में बोलते हुए यह दावा किया कि पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना के बजाय जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और मौलाना अब्दुल कलाम आजाद थे, जो भारत के विभाजन के लिए जिम्मेदार थे. ये इन तीनों नेताओं की वजह से इसलिए हुआ क्योंकि इन्होंने मुस्लिमों के लिए अल्पमत के दर्जे को मानने से इंकार कर दिया था.
‘जिन्ना साहब पाकिस्तान बनाने वाले नहीं थे... कमीशन आया, उसमें फैसला किया गया कि हिंदुस्तान का विभाजन नहीं किया जाएगा. हम स्पेशल रिप्रजेंटेशन रखेंगे मुसलामानों के लिए. माइनॉरिटीज, सिख के लिए स्पेशल डिस्पेंसेशन रखेंगे, मगर मुल्क को डिवाइड नहीं करेंगे. जिन्ना ने इसे माना मगर नेहरु, मौलाना और सरदार पटेल ने नहीं माना. जब ये नहीं हुआ तो जिन्ना ने फिर से पाकिस्तान मांगने की बात कर दी. नहीं तो ऐसा मुल्क नहीं होता. आज न बांग्लादेश होता, न पाकिस्तान होता, एक भारत होता’.
जब जिन्ना को याद कर आडवाणी को देना पड़ा था इस्तीफा
याद कीजिए 2005 में लालकृष्ण आडवाणी ने अपने पाकिस्तान के दौरे पर क्या कहा था. आडवाणी जिन्ना के मकबरे पर गए और वहां मौजूद आगंतुक रजिस्टर में लिखा, ‘ऐसे कई लोग हैं जो इतिहास पर अपनी अमिट पहचान छोड़ जाते हैं. लेकिन बहुत कम लोग हैं जो वास्तव में इतिहास बनाते हैं, कयाद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना एक ऐसे ही दुर्लभ व्यक्ति थे.’
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जिस कराची में आडवाणी का जन्म हुआ था उसकी फ़जाओं से पूरी तरह भावुक, वह आगे लिख रहे थे ‘अपने शुरुआती वर्षों में, भारत की स्वतंत्रता संग्राम की अग्रणी सरोजिनी नायडू ने श्री जिन्ना को 'हिंदू-मुस्लिम एकता के राजदूत' के रूप में वर्णित किया था. 11 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान की संविधान सभा को संबोधित करते हुए उनका बयान वास्तव में उत्कृष्ट था, एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का सशक्त अनुरक्षण जिसमें, हर नागरिक अपने धर्म का अभ्यास करने के लिए स्वतंत्र होगा, राज्य नागरिकों की आस्थाओं के आधार पर उनके बीच कोई अंतर नहीं करेगा. इस महान व्यक्ति को मेरी आदरणीय श्रद्धांजलि’.
लेकिन जिन्ना की प्रशंसा या बचाव में दिया गया कोई वक्तव्य क्या मायने रखता है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब आडवाणी भारत लौटे तो उन्हें अपनी पार्टी का अध्यक्ष पद इसी बयान की वजह से छोड़ना पड़ा था. आज भी फारूक अब्दुल्ला के बयान के बाद ट्वीटर और सोशल मीडिया के दूसरे मंचों पर बहस की बाढ़ सी आ गई है.
राजनितिक रुझान पर अपनी नजर रखने वाले तहसीन पूनावाला लिखते हैं कि ‘मुझे लगता है कि फारूक अब्दुल्ला साहब ने अपनी याददाश्त खो दी है. सावरकर ने 30 के दशक में धर्म पर आधारित 2 देशों का पहला प्रस्ताव पेश किया था. कुछ सालों बाद 40 के दशक में जिन्ना ही थे जिन्होंने इसे फिर उठाया. नेहरू और पटेल ने तो इसे 1946 के अंत में स्वीकार किया था’.
पटेल, नेहरू की इच्छा थी कि भारत को विभाजित किया जाए?
विज्ञान और आधुनिक राजनीति के इतिहासकार इरफ़ान हबीब का कहना है कि ‘फ़ारूक अब्दुल्ला का दावा है कि जिन्ना विभाजन नहीं चाहते थे? यह सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि पटेल, नेहरू और आजाद की इच्छा थी कि भारत को विभाजित किया जाए. यह न केवल सच्चाई के साथ मज़ाक है बल्कि एक जटिल त्रासदी का एक सरल स्पष्टीकरण भी है’.
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सवाल यह है कि जिन्ना क्यों पाकिस्तान चाहते थे? इस सवाल का जवाब पिछले 70 वर्षों में कई तरह से दिया गया है. कई किताबें लिखी गई हैं. लेकिन ये लेखक अपने पाठकों के सामने विभाजन बाद के कुछ लिखित तथ्य सामने रखकर चाहता है कि वे स्वयं अपनी जिज्ञासा को शांत करें कि आखिर जिन्ना पाकिस्तान क्यों चाहते थे.
विभाजन के बाद जिन्ना और दूसरे नेताओं के नजरियों में जो बुनियादी फर्क था वह उनके बयानों से साफ झलकता है. पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत खान का कहना था कि ‘पाकिस्तान इस्लामी-शासन के लिए एक प्रयोगशाला जैसा है और गैर-मुस्लिमों को इस प्रयोग में 'सहयोग' करना चाहिए’. लेकिन लियाक़त खान से विपरीत, जिन्ना धर्मनिरपेक्ष-शासन के समर्थक थे, जो धर्माधारित राज्य बनाने के सुझावों से टकरा रहे थे. इतना ही नहीं पाकिस्तान के मुस्लिम-लीगी आंदोलन के दौरान भी जिन्ना का अपनी ही पार्टी के कोषाध्यक्ष अमीर अहमद खान (महमूदाबाद के राजा) के साथ जिन्ना का टकराव हो गया, जो एक इस्लामी-राज्य की वकालत में लगे थे.
जून 1947 में विभाजन की रूपरेखा पर सहमती के बाद, भविष्य के पाकिस्तान पर जिन्ना लगातार बोलते रहे. उन्होंने लगातार अपने इस ध्येय को सामने रखा कि पाकिस्तान एक धर्मनिरपेक्ष, मुस्लिम-बहुसंख्यक राष्ट्र के रूप में ही जाना जाए. विभाजन से कुछ अर्सा पहले, ‘रॉयटर’ के साथ एक इंटरव्यू में, जिन्ना ने एक आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य की बात की, जिसमें संप्रभुता जनता में निहित होगी और ‘इस नए राष्ट्र के सभी सदस्य सामान नागरिकता रखेंगे चाहे उनके धर्म, जाति और पंथ कुछ भी क्यों न हो’.
अब सवाल यह पैदा होता है कि जब जिन्ना मुसलामानों के लिए या इस्लामी राज्य बनाने के लिए पकिस्तान नहीं चाहते थे तो फिर पकिस्तान की वकालत के क्या मायने थे? आइए इसके लिए लेखिका फरहनाज़ इस्फहानी की किताब के कुछ पन्ने खोलते हैं-
14 जुलाई 1947 को नई दिल्ली में एक संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने अपनी इस ज़िद को दोहराया. ‘अल्पसंख्यक, चाहे वे किसी भी समुदाय से ताल्लुक रखते हों, महफ़ूज़ रहेंगे’. उन्होंने आगे कहा-
उनका धर्म या आस्था या विश्वास सुरक्षित होगा. उनकी पूजा की स्वतंत्रता में किसी किस्म का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा. उनका धर्म, विश्वास, उनका जीवन, और उनकी संस्कृति के संबंध में उनकी सुरक्षा होगी. जाति और पंथ से उपर, वे सभी मामलों में, पाकिस्तान के अभिन्न नागरिक होंगे.
धार्मिक प्रतिद्वंद्विता नहीं होती तो भारत ने अंग्रेजों को कब का बाहर कर दिया होता
जिन्ना ने स्पष्ट किया कि पाकिस्तान का निर्माण एक ऐसे समाधान के रूप में उभरा जो स्थाई-बहुमत (भारतीय राष्ट्रीय-कांग्रेस के तहत आयोजित हिंदू-संगठन) और एक स्थायी-अल्पसंख्यक (अखिल भारतीय-मुस्लिम लीग के तहत मुसलमानों का आयोजन) द्वारा उत्पन्न संवैधानिक समस्या का हल था. इसका उद्देश्य न तो इस्लामी राज्य था और न ही विभाजन का उद्देश्य हिंदुओं और मुसलमानों के बीच स्थाई शत्रुता पैदा करना था. जिन्ना ने अपने एक-एक शब्द को बड़ी सावधानी से चुनते हुए पाकिस्तान बनने की वजह को समझाया था-
‘मैं जानता हूं कि हमारे बीच ऐसे लोग हैं जो भारत के विभाजन और पंजाब, बंगाल के बंटवारे के साथ काफी सहमत नहीं हैं. इसे आसानी से समझा जा सकता है कि जो एहसास दो समुदायों के बीच मौजूद है, जहां एक समुदाय बहुसंख्यक है और दूसरा अल्पसंख्यक. परंतु, इस विभाजन को होना ही था. एक संयुक्त भारत का विचार कभी भी कार-आमद नहीं हो सकता था, और मेरे हिसाब से यह हमें भयानक आपदा की तरफ ले जाता. वहीं, इस विभाजन में अल्पसंख्यकों के सवाल पर बचना नामुमकिन है कि वह किस सत्ता में रहेंगे. अब इससे बचा नहीं जा सकता. अब कोई दूसरा रास्ता नहीं है. अब हमें क्या करना चाहिए? अब, अगर हमें पाकिस्तान के इस महान राज्य को खुशहाल और समृद्ध बनाना है, तो हमें लोगों की भलाई पर और विशेष रूप से जनसाधारण और गरीबों पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए. अगर आप सहयोग के साथ काम करेंगे, अतीत को भूलाकर, और कुल्हाड़ी को दफ़्न करके, तो कामयाबी से आपको कोई नहीं रोक सकता. अगर आप अपने अतीत को बदलते हुए एक साथ मिलकर, ऐसे जोश में काम करते हैं कि आप में से हर कोई, चाहे वह किसी सामुदाय से ताल्लुक़ रखता हो, आपके साथ उसका रिश्ता, अतीत में जैसा भी रहा हो, चाहे उसका कोई रंग हो, जाति हो, या पंथ हो, चाहे वो पहला, दूसरा या अंतिम हो, अपने विशेषाधिकार और दायित्वों के साथ इस राज्य में उसे बराबरी का दर्जा हासिल है, तो आप जो तरक्की करेंगे, उसका कोई अंत नहीं होगा’.
पाकिस्तान को एक ऐसा राज्य नहीं होना था जो एकधर्मी हो, जिन्ना ने विषय में थोड़ा गहरे उतारते हुए कहा. विभाजन ही समय की राजनीति का एक उत्तर था, न की एक स्थाई धार्मिक संघर्ष की शुरुआत. उन्होंने उम्मीद जताई कि ‘समय के साथ बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक, हिंदू समुदाय और मुस्लिम समुदाय की सभी खाइयां भर जाएंगी’. जिन्ना के विचार में, धार्मिक विभाजन ‘स्वतंत्रता और स्वाधीनता हासिल करने के लिए भारत के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा’ था और अगर यह धार्मिक प्रतिद्वंद्विता नहीं होती तो भारत ने अंग्रेजों को कब का बाहर कर दिया होता. उनके शब्दों में,
‘कोई शक्ति किसी अन्य राष्ट्र को नहीं संभाल सकती, और विशेषकर 400 मिलियन लोगों का राष्ट्र, वह भी पराधीनता में. कोई भी आप पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता. और अगर ऐसा हो भी जाए, तो भी लंबे समय के लिए कोई आपको काबू में नहीं रख सकता’.
विभाजन की वकालत करते हुए जिन्ना ने समझाया कि दरअसल मुस्लिम बहुसंख्यक पाकिस्तान और हिंदू बहुसंख्यक हिंदुस्तान की रचना ने ही पूरे भारत की स्वतंत्रता को संभव बनाया. 400 मिलियन लोगों के संदर्भ से (उस समय अविभाजित भारत की आबादी) संकेत मिलता है कि जिन्ना ने विदेशी-शासन से उपमहाद्वीप को आजाद कराने के हल के रूप में, पाकिस्तान का निर्माण देखा था. धार्मिक विरोधाभास, जिसकी वजह से विभाजन का एक माहौल बना ‘हमें इससे सबक लेना चाहिए’, उन्होंने निष्कर्ष निकाला.
अब इन सब बातों का क्या मतलब निकलता है, लेखक यह सवाल अपने गुनी-पाठकों पर छोड़ता है. जो देखें कि असंख्य पन्नों में दर्ज बातें और आडवाणी से लेकर फारूक अब्दुल्ला तक के बयानों के क्या मायने हैं.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है)
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