नमाज और सूर्यनमस्कार के बीच की समानता पर योगी आदित्यनाथ के बयान से एक असहमतिपूर्ण बहस छिड़ गई है. मुस्लिम धर्मगुरुओं के बीच इसे लेकर एक-दूसरे के विरुद्ध दो अलग-अलग मत उभर आए हैं.
दिलचस्प रूप से उलेमाओं का एक हिस्सा उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री के इस बयान का समर्थन कर रहा है, जिसमें कहा गया है कि सूर्यनमस्कार के आसनों और नमाज में बड़ी समानता है और इस बयान को वे भारत के धार्मिक समन्वय को लेकर एक शानदार प्रयास की रौशनी के रूप में देखते हैं.
जाने-माने शिया मुस्लिम धर्मगुरु कल्बे सादिक ने योगी आदित्यनाथ के इस बयान पर भारतीय मुस्लिमों के बीच चल रही पारंपरिक सोच से बिल्कुल अलहदा विचार व्यक्त किया है. उन्होंने मुसलमानों को आश्वस्त किया है कि उन्हें आदित्यनाथ की सरकार से डरने की जरूरत नहीं है, बल्कि उन्हें अपने ही (मुस्लिम) नेतृत्व से डरना चाहिए.
उन्होंने मीडिया से कहा, 'मुस्लिम नेतृत्व इन मुद्दों को लेकर बेहद भावुक है, क्योंकि उनके पास कोई तार्किक सोच ही नहीं है. उन्हें ओवैसी और डॉ मोहम्मद अयूब से डर लगना चाहिए.'
हालांकि इस समय न सिर्फ मौलाना कल्बे सादिक जैसे शिया नेता, बल्कि बहुत सारे सुन्नी धर्मगुरुओं के साथ कई मुस्लिम समुदायों ने भी इस तरह के अलग विचारों का समर्थन किया है.
उदाहरण के लिए सुन्नी-हनफी अवधारणा वाले मुस्लिम समुदाय के धर्मगुरु मौलाना सुहैब कासमी ने योगी आदित्यनाथ के बयान का यह कहते हुए समर्थन किया है कि प्रत्येक धर्म शांति का उपदेश देते हुए पथ-प्रदर्शन करता है और योगी का यह बयान देश को एकता के सूत्र में बांधने में मदद करेगा.
योगी आदित्यनाथ के इस कदम की तारीफ कर रहे हैं मुसलमान
मौलाना कासिम, जो जमाअत-ए-हिंद के अध्यक्ष भी हैं, ने कहा है, 'योगी आदित्यनाथ तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जो विश्वास व्यक्त किया जा रहा है,वह सही मायने में काबिले तारीफ है.'
सुन्नी और शिया दोनों ही धर्मगुरुओं द्वारा दिए गए इन बयानों को भारत में इस्लामिक आस्था और उनके चलन के पारंपरिक प्रभाव पर हमले के रूप में देखा जा रहा है. हालांकि अब भी भारत में मुसलमानों के एक बड़े हिस्से के बीच इस्लाम के स्वयंभू संरक्षकों का गहरा प्रभाव बना हुआ है.
योग को प्रोत्साहित करने वाले सरकार के निर्णय के विरुद्ध देशभर में एक अभियान चलाने वाला ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस अंतर्विश्वास के विकासक्रम के प्रति विरोध में पूरी तरह गला घोंटने के प्रयास से बाहर निकल आया है.
इस स्थिति ने इस समुदाय के धर्मगुरुओं के बीच एक बड़े मंथन को जन्म दिया है. बहुत सारे धार्मिक नेतृत्व नमाज और योग के बीच की समानता वाले उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री के दिए गए उस बयान को खारिज करने में लगे हुए हैं, जिसका कुछ शिया और सुन्नी धर्मगुरुओं ने खुलकर तारीफ की है.
विपक्षी दलों के साथ मिलकर मौलाना उमर इलियासी जैसे प्रभावशाली मुस्लिम धर्मगुरुओं ने वैदिक और इस्लामिक प्रार्थना पद्धति की तुलना को लेकर ऐसे किसी भी तरह के उन प्रयासों पर अपनी कठोर प्रतिक्रिया व्यक्त की है, जो देश के सबसे बड़े दो धार्मिक समुदायों के बीच आध्यात्मिक सहजीविता पैदा करते हैं.
लेकिन इमाम एवं मस्जिद के अखिल भारतीय संगठन के महासचिव मौलाना उमर इलियासी का यह भोलापन चकित करने वाला है. इस प्रतिक्रियात्मक बयान में उन्होंने बड़ा ही विरोधाभासी तर्क दिए हैं. उर्दू मीडिया को दिए गए अपने बयान में वो कहते हैं, ‘दो अलग-अलग धर्मों की प्रार्थना पद्धति की भाव भंगिमा को जोड़ते हुए योगी हिंदू और मुस्लिम धर्मों के बीच एक सुलह बनाने की कोशिश कर रहे हैं.’
आदित्यनाथ कह रहे हैं कि मुसलमानों द्वारा की जाने वाली इस्लामिक प्रार्थना (सलात या नमाज) हिंदुओं द्वारा किए जाने वाले सूर्यनमस्कार के विभिन्न आसनों तथा प्रणायाम में समानता दिखती है. इससे दो धर्मों के बीच ‘समन्वय का एक सुंदर उदाहरण’ सामने आता है. जैसा कि धर्मगुरु कर रहे हैं, वह सही अर्थों में इस मामले में धार्मिक वाद विवाद की कला और अनपेक्षित विवाद पैदा करने की कोशिश से ज्यादा और कुछ नहीं है.
योगी आदित्यनाथ के इस बयान से बहुत पहले ही जनवरी 2009 में भारत के सबसे बड़े मदरसे दारुल उलूम देवबंद के धर्मगुरु मौलाना आदिल सिदिक़्क़ी के बारे में बताया जाता है कि उन्होंने कहा था, 'नमाज अदा करना भी योग करने का ही एक रूप है’.
उन्होंने कहा था, 'अगर आप नमाज को गौर से देखें,जो मुसलमानों के लिए दिन में पांच वक्त करना उन पर फ़र्ज़ है,तो आपको यह नमाज योग का एक प्रकार ही दिखेगी और किसी भी व्यक्ति को स्वस्थ रहने में इसकी एक महत्वपूर्ण भूमिका तो है ही.’ वास्तविकता तो यही है कि इस्लाम और हिंदुत्व की आस्था और उपासना पद्धति में बहुत सारे सैद्धांतिक समरूपता और समानताएं हैं.
कुरान इस्लाम को प्राकृतिक धर्म के रूप में परिभाषित करती है
बुनियादी इस्लामिक आस्था तो कलमा तौहीद है, जो इस तरह है : 'ला इलाह इल्लाल लाहू' (एक मात्र ईश्वर के अलावा और कुछ भी नहीं है). बहुत कुछ ठीक इसी तरह ब्रह्मसूत्र या वेदांत के कलीमा तौहीद के अनुसार, 'एक ब्रह्म द्वितीय नास्ति,नास्ति किंचित्' (ईश्वर एकमात्र है तथा उसके अलावा कुछ भी नहीं है). इस प्रकार, ईश्वर के एकत्व में विश्वास इस्लाम और हिंदुत्व दोनों का मुख्य बिन्दु है.
जैसा कि कुरान में ईश्वर के एकत्व को लेकर मौलिक इस्लामिक आस्था के बारे में कुछ इस तरह कहा गया है: 'ऐ इंसानों, ईश्वर तो एकमात्र है (112:1)', इसी तरह ऋग्वेद में उद्धृत है: 'विश्व का सृजनकर्ता और उसका शासक सिर्फ एक है' (ऋग्वेद 3.121.10). इसलिए, हिंदुत्व यह सलाह देता है: 'ईश्वर के अलावा किसी की भी अराधना मत करो' (ऋग्वेद 1.1.8), और इस तरह के सवाल पर गौर करने का सुझाव भी है: 'उसी की पात्रता सिर्फ पूजा करवाने की है, इसलिए वो किसकी पूजा करते हैं और किसे प्रसाद चढ़ाते हैं ?' (अथर्व वेद 2.0.2).
यह भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि कुरान इस्लाम को ‘प्राकृतिक धर्म’ के रूप में पारिभाषित करती है, यह बहुत कुछ उसी तरह की बात है जैसा कि भगवदगीता में ‘स्वधर्म’ की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि यह एक ऐसा धर्म है, जिसकी शिक्षा माता-पिता नहीं, बल्कि प्रकृति द्वारा दी जाती है.
दोनों धर्मों के बीच के इन सामान्य आधारों की रौशनी में हिंदू और मुसलमान एक दूसरे के नजदीक आएं ताकि उनके शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, बेहतर मैत्रीपूर्ण समझ एवं सामाजिक-धार्मिक आत्मीयता की बुनियाद को मजबूत किया जा सके.
जहां तक इस्लाम की नमाज तथा हिन्दू के योग के बीच समानता ढूंढने पर विवाद पैदा होने का सवाल है, तो उसका हल दोनों धर्मों की गहराई से निकलते सारतत्व से पाया जा सकता है. भारत में इस्लाम और हिन्दुत्व की शिक्षा एक ‘आध्यात्मिक मार्ग’ से 'शाश्वत मुक्ति’ तक के सफर के सूत्र के रूप में दिया जाता है.
पवित्र क़ुरान के एक सूरे (98:5) के अनुसार, इस्लाम को ‘दीन-उल-कय्यीम’ (शाश्वत या सीधा मार्ग) बताया गया है,जिसका संस्कृत में अनुवाद सनातन धर्म या शाश्वत धर्म के रूप में किया गया है. इस्लाम में ‘शाश्वत मुक्ति’ को जहां निजात-ए-आबादी के रूप में पारिभाषित किया गया है,वहीं सनातन धर्म में इसे मोक्ष(मुक्ति) के रूप में उद्धृत किया गया है.
इसी तरह, इस्लाम के सूफ़ी संप्रदाय के विसाल-ए-इलाही (दैवीय एकत्व) की अवधारणा और वेदान्त दर्शन में उद्धृत् अद्वैत(दो नहीं,एकत्व) की अवधारणा के बीच किसी तरह का अंतर नहीं है. दोनों ही आस्थाओं का मानना है कि उनके अनुयायी अपनी अंतर्चेतना को हमेशा जागृत रखें, ठीक उसी तरह जैसे दिव्य के संपूर्ण होने का अहसास (इलाह या ब्राह्मण) जीव में हमेशा रहना चाहिए.
जहां नमाज या सलात के दरम्यान मुस्लिम निजात-ए-आबादी हासिल करने की कोशिश करता है, ठीक उसी तरह हिन्दू भी योग और साधना के माध्यम से शाश्वत मुक्त पाने का प्रयास करता है. शेख हकीम मोईनुद्दीन चिश्ती ने इस गहरे रहस्यमय सहजीवन को विस्तृत रूप से समझाया है.
वह अपनी किताब The Book of Sufi Healing में कहते हैं, 'नमाज एक ही समय में एक वाह्य और एक आंतरिक अभ्यास दोनों है: शारीरिक व्यायाम का एक समुच्चय भी और समृद्धतम आध्यात्मिक पोषण भी. इसीलिए कुछ लोगों ने इसकी तुलना योगासन से भी की है. कुछ विस्तार से इन पहलुओं को ध्यान में रखते हुए हम यह जान सकते हैं कि आखिर सूफियों ने क्यों नमाज छोड़ने से मृत्यु को बेहतर माना है.'
हिन्दू और मुसलमानों की आस्थाओं के बीच नज़दीकी समानता का एक प्रबुद्ध उदाहरण इस्लाम में वह्य (दिव्य रहस्योद्घाटन) का बुनियादी भाव है, ठीक वैसा ही भाव हिन्दुत्व में श्रुति का है. श्रुति उन दैवीय ऋचाओं को कहते हैं, जिन्हें ऋषि-मुनि (पैग़म्बर,संदेशवाहक,साधु-संत) सीधे-सीधे ईश्वर से ही सुनते थे.
इसी तरह वह्य पैग़म्बर मुहम्मद पर नाज़िल अल्लाह द्वारा दिया गया उपदेश है. यह ठीक उसी तरह की बात है, जैसा कि हिन्दू धर्मशास्त्रों में श्रुति ऋचाओं में उद्धृत है, क़ुरान में वह्य के सूरे के बारे में विश्वास किया जाता है कि ये ईश्वरीय शब्द हैं, जिन्हें पैग़म्बर मुहम्मद ने सीधे अल्लाह से ग्रहण किया था.
ऋषि मुनि और आखिरी कुछ पैगम्बरों भारत में साथ-साथ लाए गए थे
भारत के नक्शबंदी सूफी दार्शनिक, मिर्ज़ा मज़हर जन-ए-जनान जैसे बहुत सारे प्रमाणिक इस्लामिक विद्वानों ने स्पष्ट किया है कि संभव है कि जिन ऋषि-मुनियों ने श्रुति ऋचाओं को सीधे-सीधे ईश्वर से सुना था, वो वही पैग़म्बर हों, जिनका उल्लेख क़ुरान में सुहूफ़ अल-अव्वालिन के शुरुआती रचनाओं में है और जिनपर ईश्वर ने अपने उपदेश नाजिल किए थे.
इस सूफ़ी कथा से गुजरते हुए बहुत ही दिलचस्प तथा उल्लेखनीय बात सामने आती है कि पहले दिव्य रहस्योद्घाटन(श्रुति) के ऋषि मुनि और आखिरी कुछ पैग़म्बरों(वह्य) भारत में साथ-साथ लाए गए थे.
आश्चर्य नहीं कि अल-बरुनी और इब्न नदीम जैसे प्रारंभिक अरबी इतिहासकारों ने इस्लामिक इतिहास में ‘स्वर्ण युग’ के रूप में सुविज्ञात दौर में वैदिक हस्तलिपियों का अनुवाद किया है. लेकिन आजकल हिन्दू और मुसलमानों के बीच जो 99 प्रतिशत गलतफहमियां हैं,वो एक दूसरे के धर्मों के प्रति उनकी अज्ञानता से पैदा हुई हैं'.
हजार साल पहले अल-बरुनी ने 'किताब-अल-हिंद '(भारत की किताब) लिखी, इस किताब ने हिंदुओं की धार्मिक परंपराओं पर विश्वकोषीय कार्य किया है. उन्होंने हिंदू जीवन के धार्मिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक जैसे सभी पहलुओं की बहुत नजदीकी खोजबीन की थी.
कोई भी अलबरुनी की किताब-अल-हिंद में वाराहमिहिर, वृहत् जातक, कृष्ण अवतार तथा विष्णु पुराण का एक समृद्ध सांस्कृतिक संदर्भ में किए गए अनुवाद को देखकर चकित हो सकता है.
(लेखक शास्त्रीय इस्लामिक अध्ययन एवं तुलनात्मक धर्म,सांस्कृतिक विश्लेषक तथा मीडिया एवं संचार अध्ययन के शोधार्थी हैं)
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