‘कुछ ऐसी बात ना थी तेरा दूर हो जाना
ये और बात कि रह-रह के दर्द उठता था’
ऐसा कहने वाले फिराक गोरखपुरी को बेशक मलाल था कि उनके उस्ताद सरीखे दोस्त जोश मलीहाबादी हिन्दुस्तान छोड़कर पाकिस्तान जा बसे हैं, मगर इस शेर का कोई जाहिर रिश्ता हिन्दुस्तान के बंटवारे और पाकिस्तान के कायम होने से नहीं है. लेकिन, जब से दलाई लामा का यह खयाल खबरों की सुर्खी बना है कि पाकिस्तान नहीं बनता अगर जिन्ना को अविभाजित भारत का वज़ीर-ए-आज़म बनाने की महात्मा गांधी की बात जवाहरलाल नेहरू मान लेते, तब से दिल गहरे गोशे में यही शेर किसी सांप की तरह फन उठाकर चोट मार रहा है !
बंटवारे का दर्द और दर्द की तासीर
कुछ दर्द नातमाम किस्सों में ढल जाते हैं या यों कहिए कि कुछ दर्द तेवर में इतने तीखे होते हैं कि अपनी जान बचाए रखने के खयाल से उन्हें नातमाम अफसानों में ढाल लिया जाता है. हिन्दुस्तान के एक हिस्से का पाकिस्तान में तब्दील होना हम हिन्दुस्तानियों के लिए ऐसे ही दर्दों में शुमार है.
हम कहानियां गढ़ते हैं कि इस दर्द को दिल से दूर रख सकें. कोशिश रहती है कि कहानियों की ओट हो जाए और पाकिस्तान बनने के सच का सामना करने से हम बच जाएं. कहानियां इतिहास के मैदान में हुई अपनी हार के नकार में मददगार साबित होती हैं.
कहीं गहरे में हमें लगता है, पाकिस्तान का बनना हमारे आजादी के आंदोलन के नैतिक विश्वास की हार है. जितने कौम उतने ही मुल्क, क्योंकि हर कौम को खुदमुख्तारी का हक है- इस सिद्धांत पर पाकिस्तान बनाने का आंदोलन चला और बांग्लादेश के बनने तक अपने को कामयाब मानता रहा.
‘कौम के हिसाब से मुल्क बनाने के खयाल में ही गड़बड़ है. नहीं बनना हमें ऐसा मुल्क! बेशक हिन्दुस्तान में एक से ज्यादा कौमें हैं. लेकिन भारत हमेशा से मुल्कों का मुल्क रहा है. यह महादेश है, इसमें सारे कौमों की समाई है और राष्ट्र-राज्य के नए चोले में भी विचार और आचार से महादेश बने रहना ही इतिहास-देवता का हमारे लिए हमेशा का संदेश है’- इस नैतिक विश्वास से हमारा आजादी का आंदोलन चला था. पाकिस्तान का कायम होना इस नैतिक विश्वास पर एकबारगी चोट साबित हुआ.
इतने बरस गुजर गए लेकिन सियासत के महाभारत में नैतिक विश्वास की हुई यह हार हमसे कबूल नहीं होती. सो, एक मुल्क के रूप में अपनी हार का जिम्मा हम किसी एक शख्स के माथे पर थोप देते हैं. कहानियां ऐसा करने में मददगार साबित होती हैं.
दर्द के नकार की कहानियां
ऐसी कहानियों में एक है कि ‘जिन्ना अव्वल दर्जे के जिद्दी थे, उन पर एक मुल्क का ‘कायद-ए-आज़म’ कहलाने की सनक सवार हुई. इस सनक ने उन्हें जिद्दी बनाया. सो, गांधी, नेहरू, पटेल और मौलाना आजाद ही नहीं, बल्कि लॉर्ड माउंटबेटन की भी युक्तिसंगत बातों को उन्होंने नकारा और पाकिस्तान बनवा लिया.
इस कहानी को विश्वसनीय बनाने के लिए सबूत पेश किया जाता है कि लॉर्ड माउंटबेटन ने अपनी निजी चिट्ठियों में जिन्ना को ‘सायकोपैथिक केस’, ‘बास्टर्ड’ और ‘इविल जीनियस’ जैसा नाम देकर याद किया है. (देखें अलेक्स वॉन तुंझेलमान की ‘इंडियन समर- द सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ द एंड ऑफ ऐन एम्पायर’ नाम की किताब)
यह कहानी बंटवारे के लिए अकेले जिन्ना को दोषी ठहराती है, बगैर इस सच का सामना किए कि जिन्ना राजनीति को भी वकालत का अखाड़ा ही समझते थे. शायद ही ऐसा कोई मौका होगा जब उन्होंने राजनीति के मंच पर अपनी बात बिना तर्क और सबूत के तराजू पर तौले कही हो.
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देश के बंटवारे का दोषी किसी एक व्यक्ति को बताती एक दूसरी और ज्यादा मशहूर कहानी है कि ‘महात्मा गांधी ने जिन्ना को अविभाजित भारत का प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव दिया, जिन्ना मान लेते लेकिन नेहरू ने प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा में महात्मा गांधी की कोशिश को नाकाम किया वरना पाकिस्तान नहीं बनता.’
इस कहानी में पाकिस्तान के वजूद में आने का दोषी नेहरू को ठहराया जाता है और हर कहानी की तरह इसमें भी एक दहाड़ते हुए सच से कन्नी काट ली जाती है कि देश के बंटवारे के विचार से सबसे पहले पटेल ने सहमति जताई थी, नेहरू ने नहीं.
पटेल के जीवनीकार राजमोहन गांधी ने ‘पटेल : ए लाइफ’ में दर्ज किया है कि ब्रिटिश इंडिया के बंटवारे के फॉर्मूले को आधिकारिक तौर पर मंजूर करने के लगभग छह माह पहले (फरवरी 1947) पटेल अपना मन बना चुके थे कि पाकिस्तान की मांग स्वीकार करके जिन्ना से छुटकारा पा लेना ठीक होगा.
दरअसल, पटेल मुस्लिम लीग की सांप्रदायिकता से उकता चुके थे. हिन्दुस्तान की आजादी के सिपाहसलारों में एक मौलाना आजाद की किताब ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में भी यही बात तनिक अलग अंदाज में लिखी मिल जाती है कि ‘लॉर्ड माउंटबेटन बड़े चतुर थे और अपने भारतीय सहकर्मियों के मन की बात ताड़ लेते थे. जैसे ही उन्हें लगा कि पटेल का उनके (विभाजन के) विचार को लेकर रुख नरम है, उन्होंने अपनी शख्सियत की चमक और ताकत का सारा जोर सरदार (पटेल) को राजी करने में लगा दिया. पटेल के सहमत होने के साथ ही लॉर्ड माउंटबेटन ने अपना ध्यान जवाहरलाल की तरफ लगाया. जवाहरलाल पहले राजी नहीं थे और उन्होंने बंटवारे के विचार को लेकर बड़ा गहरा एतराज जताया. लेकिन लॉर्ड माउंटबेटन उस घड़ी तक डटे रहे जब तक कि एक-एक करके जवाहरलाल का विरोध पस्त ना पड़ गया.’
अगर बंटवारे के विचार से सबसे पहले सरदार पटेल सहमत हुए तो फिर सिर्फ नेहरू के बारे में यह कैसे कह सकते हैं कि जिन्ना को अविभाजित भारत का प्रधानमंत्री बनाने के गांधी का प्रस्ताव को उन्होंने अपनी महत्वाकांक्षा के जोर में ठुकरा दिया था ?
इस कहानी में कई पेंच हैं. ऐसा कहने पर एक मुश्किल और खड़ी होगी क्योंकि मुल्क का प्रधानमंत्री बनने की चाहत तो सरदार पटेल के मन में भी थी. इसी इच्छा से उन्होंने आजादी की निर्णायक घड़ी में नेहरू के खिलाफ कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ना चाहा और गांधी के हस्तक्षेप के बाद अपना नाम वापस लिया.
लेकिन जरा ठहरें, सरदार पटेल के प्रधानमंत्री बनने की चाहत के भीतर देश के बंटवारे की वजह ढूंढना जायज नहीं. दरअसल नेहरू को देश के बंटवारे के गुनाह से बरी करने की हड़बड़ी में यहां हम सरदार पटेल के साथ वही बर्ताव कर रहे हैं जैसा कि बंटवारे का दोष नेहरू के मत्थे मढ़ने वाली वाली कहानी में उनके (नेहरु) साथ किया जाता है.
कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के लिए पटेल और नेहरू के बीच मुकाबले की लकीर देश की आजादी के करीब सवा साल पहले ( अप्रैल 1946) खींची. उस वक्त लॉर्ड माउंटबेटन ना तो भारत के वॉयसरॉय बने थे और ना ही ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली का यह फरमान ही सामने आया था कि भारत को अविभाजित रखने की भरपूर कोशिश करते हुए हद से हद 30 जून 1948 तक ‘सत्ता का हस्तांतरण’ कर देना है.
माउंटबेटन 20 फरवरी 1947 को वॉयसरॉय नियुक्त हुए. माउंटबेटन लिखते हैं कि ‘गांधी ने 1 अप्रैल 1947 को वॉयसरॉय गार्डन में उनके साथ टहलते हुए कहा कि जिन्ना को बुलावा भेजिए ताकि वे मुस्लिम लीग के सदस्यों के साथ केंद्र में अंतरिम सरकार बनाएं. यह सरकार वॉयसरॉय की देखरेख में उसी तरह काम करेगी जैसा कि अभी की अंतरिम सरकार कर रही है’.
जाहिर है, जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाने का गांधी का प्रस्ताव कांग्रेस-अध्यक्ष बनने की पटेल की कोशिश के बहुत बाद आया था, सो कहानी को एकदम सिरे से पलटते हुए यह नहीं कह सकते कि प्रधानमंत्री बनने की अपनी चाहत में ही पटेल ने गांधी के प्रस्ताव को ठुकराया और पाकिस्तान बन गया. दरअसल पटेल के पास उन निर्णायक घड़ियों में यह विकल्प था ही नहीं.
क्या जिन्ना को गांधी का प्रस्ताव मंजूर था
देश के बंटवारे को बचाने की आखिरी कोशिश के तौर पर गांधी ने जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव बेशक रखा था. लेकिन मार्के का सवाल यह नहीं है कि प्रस्ताव को पहले नेहरू ने ठुकराया या पटेल ने. अहम सवाल है कि क्या जिन्ना को गांधी का प्रस्ताव मंजूर था, क्या जिन्ना ने ही गांधी के प्रस्ताव को खारिज किया ?
अगर इस सवाल को अहम मानकर जवाब तलाशने निकलें तो माउंटबेटन के निजी दस्तावेजों में एक बात यह मिलेगी कि जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाने के गांधी के प्रस्ताव को जानकर ना तो नेहरू ने ‘नाराजगी’ जताई, ना ही वे ‘हैरान’ हुए. स्टेनले वोल्पर्ट ने ‘जिन्ना ऑफ पाकिस्तान’ में लिखा है कि नेहरू ने बस यह अंदेशा जाहिर किया था कि क्या खुद जिन्ना गांधी की बात मान जाएंगे.
दूसरी बात यह पता चलेगी कि नेहरू और वी.पी. मेनन (बंटवारे की बातचीत के एक अहम किरदार, आखिर के तीन वॉयसरॉयों के संवैधानिक सलाहकार) ने माउंटबेटन से यह भी कहा कि गांधी पहले के मौकों पर भी जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाने की पेशकश कर चुके हैं और जिन्ना ने पहले भी ऐसी पेशकश को अपनी वजहें गिनाते हुए ठुकरा दिया था.
तीसरी बात यह कि सिर्फ नेहरू ही नहीं, उस वक्त की कांग्रेस कार्यकारिणी के कई और सदस्यों को भी गांधी का प्रस्ताव मंजूर नहीं था. और, चौथी बात यह कि खुद गांधी को भी विश्वास नहीं था कि जिन्ना उनकी बात मानकर देश के बंटवारे की अपनी योजना छोड़ देंगे. माउंटबेटन ने लिखा है- ‘गांधी के प्रस्ताव ने मुझे हैरान किया. मैंने पूछा ‘जिन्ना ऐसे प्रस्ताव के बारे में क्या कहेंगे? गांधी का जवाब था- अगर आप उन्हें बतायेंगे कि यह प्रस्ताव गांधी का है तो वो जवाब देंगे “कुटिल गांधी!.’
जिन्ना ने पहले भी ठुकराया था गांधी प्रस्ताव
जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाने का विचार गांधी ने कोई पहली मर्तबा नहीं रखा था. ऐसा पहली बार हुआ था 1940 यानी लीग के लाहौर वाले अधिवेशन में पाकिस्तान का प्रस्ताव पेश और मंजूर होने के बाद.
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तब प्रधानमंत्री बनने के गांधी के प्रस्ताव के बारे में जिन्ना ने 30 नवंबर 1940 को दिल्ली के एक जलसे में कहा- ‘ कांग्रेस के नेता कहते हैं कि वे मिस्टर जिन्ना या मुस्लिम लीग के किसी और नुमाइंदे को हिन्दुस्तान का प्रधानमंत्री बनाने को तैयार हैं. वे कहते हैं- ‘ठीक है, चलिए सारी सत्ता मुस्लिम जन के ही हाथ रहे, हमें नहीं चाहिए सत्ता. हमें मुस्लिम शासन मंजूर है लेकिन ब्रिटिश शासन नहीं.' क्या होश-ओ-हवास के कायम रहते कोई भी आदमी इन बात पर यकीन कर सकता है? मुस्लिमों को अब समझ आ चुकी है. तीन साल पहले वे जैसे थे, वैसे आज बिल्कुल नहीं और आज यहां आपके बीच जब मैं खड़ा हूं तो मुझे पक्का यकीन है कि अब से पांच साल बाद वे अभी से कहीं ज्यादा समझदार होंगे..."
कांग्रेस ने जिन्ना के सामने प्रधानमंत्री बनने की पेशकश दूसरी बार रखी ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के वक्त. तब भी जिन्ना के तर्क कमोबेश यही थे कि पेशकश इतनी अच्छी है कि ‘उस पर सहज यकीन नहीं किया जा सकता.’ उन्होंने ऐसी पेशकश में कांग्रेस की चाल देखी और 24 अप्रैल 1943 के लीग के दिल्ली वाले जलसे में कहा कि ‘8 अगस्त (भारत छोड़ो आंदोलन) से ही कांग्रेस का रुख ये साबित करने का रहा है कि पाकिस्तान की मांग और नीति एक झूठ है.’
दरअसल जिन्ना यकीन ही नहीं कर पा रहे थे कि मुल्क के आजाद होने पर मुस्लिम अल्पसंख्यक आबादी के साथ बराबरी और उदारता का बर्ताव होगा. वे इसकी गारंटी करना चाहते थे और यह भी चाहते थे कि ऐसा सिर्फ उनकी शर्तों पर हो.
साल 1947 में सत्ता हस्तांतरण की निर्णायक बातचीत के वक्त तो खैर जिन्ना के पास प्रधानमंत्री बनने की गांधी की पेशकश को ठुकराने के ठोस कारण थे.
माउंटबेटन ने इसकी तरफ इशारा करते हुए लिखा है- “अगर वे सिर्फ मुस्लिम लीग के नुमाइंदों के सहारे सरकार बनाते हैं तो फिर इस सरकार को एक ऐसी केंद्रीय असेम्बली का सामना करना पड़ेगा जहां कांग्रेस का बहुमत होगा. उन्हें इस बहुमत के बीच से ही जरूरी विधान पारित करवाने होंगे. दूसरी तरफ, अगर गठबंधन (लीग और कांग्रेस) की सरकार बनती है तो फिर ऐसी सरकार लीग के बनिस्बत कांग्रेस को मुनासिब पड़ने वाली शर्तों के अधीन बनानी होगी. दोनों ही स्थितियों में उनके (जिन्ना) लिए कांग्रेस के समर्थन का भरोसा करना हवाई मंसूबे बांधने की तरह है और निश्चित ही जिन्ना को कांग्रेस के रुख से तालमेल बैठाकर चलने के लिए राजी होना पड़ेगा.”
और अंत में
वह बंटवारे का वक्त था, एक खूंखार और खूनी वक्त जब देश के गलियों में पूरब और पश्चिम हर ओर लोग धर्म के नाम पर खून के प्यासे हो रहे थे. जिन्ना ने ‘दो कौम- दो मुल्क’ के विचार को सच मानकर शेर की सवारी गांठी थी और अब यह शेर आदमखोर बनकर बेकाबू हो चुका था.
दरअसल, नेहरू, जिन्ना और पटेल ही नहीं हजार सालों में कभी एक दफे धरती पर जन्म लेने वाली गांधी सरीखी संत शख्सियत के पास भी उस घड़ी वो कूवत नहीं बची थी कि ‘दो धर्म- दो देश’ के आदमखोर सियासी सिद्धांत को इस मुल्क की छाती से कलेजा काढ़ लेने से रोक ले ! हम बस अफसोस कर सकते हैं कि आह! आखिर को ऐसा ही हुआ.पाकिस्तान के वजूद में आने का दोषी नेहरू को ठहराया जाता है और हर कहानी की तरह इसमें भी एक दहाड़ते हुए सच से कन्नी काट ली जाती है कि देश के बंटवारे के विचार से सबसे पहले पटेल ने सहमति जताई थी, नेहरू ने नहीं.
( लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)
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