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25 साल बाद फिर साथ अाई SP-BSP, फिर धर्म की सियासत पर जाति भारी

1993 के विधानसभा के चुनाव में एसपी अौर बीएसपी ने मिलकर मंदिर अांदोलन के जरिए जातियों की पहचान को व्यापक हिंदू पहचान में तब्दील करने की बीजेपी की रणनीति को हरा दिया था

Updated On: Mar 15, 2018 02:04 PM IST

Ranjib

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25 साल बाद फिर साथ अाई SP-BSP, फिर धर्म की सियासत पर जाति भारी

25 साल पहले जब उत्तर प्रदेश में मंदिर अांदोलन के रथ पर सवार भारतीय जनता पार्टी अपराजेय लग रही थी तब एक सियासी गठजोड़ ने उसका रथ रोक दिया था. साल 1993 में हुए विधानसभा के चुनाव में समाजवादी पार्टी अौर बहुजन समाज पार्टी ने मिलकर चुनाव लड़ा अौर कल्याण सिंह के नेतृत्व में चुनाव में उतरी बीजेपी को हरा दिया. मंदिर अांदोलन के जरिए जातियों की पहचान को व्यापक हिंदू पहचान में तब्दील करने की बीजेपी की रणनीति को सपा-बसपा ने मिलकर दलित, पिछड़ी व अन्य पिछड़ी जातियों के गठजोड़ से हरा दिया था. तब उसे भाजपा की कमंडल की सियासत पर मंडल की राजनीति के भारी होने के तौर पर देखा गया था अौर नारा लगा था, ’मिले मुलायम-कांशीराम, हवा हो गए जय श्रीराम.’

गोरखपुर अौर फूलपुर लोकसभा सीटों के उपचुनाव में बीजेपी की हार में ढाई दशक पहले के उसी समीकरण की झलक दिखती है. फर्क यह है कि तब एसपी की अोर से मुलायम सिंह अौर बीएसपी की तरफ से कांशीराम ने मिलकर वह प्रयोग किया था. इस बार यह भूमिका मायावती अौर अखिलेश यादव ने निभाई. लिहाजा नया नारा लग रहा है- ‘जब मिलें बुअा-भतीजा, तो निकला तगड़ा नतीजा.’ अखिलेश अपने संबोधनों में मायावती को हमेशा बुअा कहते हैं जबकि मायावती अपने भाषणों में अखिलेश को बबुअा कहती हैं.

बीएसपी ने दिया था समर्थन

लखनऊ के बहुचर्चित गेस्ट हाउस कांड के बाद एसपी अौर बीएसपी की वह दोस्ती टूट गई थी लेकिन वक्त अौर सियासी तकाजे ने तल्खी को कम किया. नतीजतन बुअा अौर भतीजे की पहलकदमी से दोनों सीटों पर एसपी के उम्मीदवार को बीएसपी के समर्थन ने दलितों व पिछड़ों की लगभग वैसी ही गोलबंदी की जैसी 1993 में दिखी थी. यह घटनाक्रम यूपी में अाने वाले दिनों की राजनीति में बीजेपी के खिलाफ विपक्षी दलों के बड़े गठबंधन की अाहट भी है. एसपी के उम्मीदवारों को बीएसपी के समर्थन से दोनों सीटों पर एसपी प्रत्याशी के पक्ष में दलितों-पिछड़ों-मुसलमानों की ऐसी सोशल इंजीनियरिंग उभरी कि बीजेपी के हिंदू एजेंडे के तहत जातियों को जोड़ने की रणनीति काम न अाई. फूलपुर, जहां कुर्मी वोटरों की बड़ी तादाद थी वहां एसपी अौर बीजेपी दोनों का प्रत्याशी इसी बिरादरी से था पर इस जाति के वोटरों ने एसपी के कुर्मी उम्मीदवार को ही तवज्जो दी.

Samajwadi Party president Akhilesh Yadav

वहीं गोरखपुर में बीजेपी के ब्राह्मण उम्मीदवार को एसपी के निषाद प्रत्याशी ने हरा दिया. गोरखपुर में प्रवीण निषाद की जीत इस मायने में ऐतिहासिक भी है कि इस संसदीय सीट पर पहली बार कोई गैर सवर्ण सांसद चुना गया है. वरना 1952 से 2014 तक के हर चुनाव में इस सीट से हमेशा सवर्ण ही चुनाव में जीत हासिल करते रहे. प्रवीण निषाद हैं तो निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद के पुत्र लेकिन एसपी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने पहल कर उन्हें अपनी पार्टी के सिंबल पर चुनाव लड़ाया. वह रणनीति काम कर गई क्योंकि पार्टी से किसी को उम्मीदवार बनाने के बजाए दूसरी पार्टी के चेहरे को एसपी के चुनाव चिह्न पर उतारने से इलाके की कई अन्य छोटी पर प्रभाव रखने वाली पार्टियों का भी उन्हें साथ मिल गया.

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निषाद जाति से पहली बार सांसद का चुना जाना इस मायने में भी अहम है कि इलाके में करीब 18 फीसदी वोटर इस बिरादरी के होने के बावजूद इस संसदीय क्षेत्र से उनका प्रतिनिधित्व लोकसभा में पहले कभी न हो सका था.

बड़ा गुल खिला सकता है औपचारिक गठबंधन

25 साल पहले के प्रयोग को एसपी अौर बीएसपी ने उपचुनावों में सांकेतिक तौर पर ही दोहराया. दोनों दलों ने कोई तालमेल कर चुनाव नहीं लड़ा. मतदान के तकरीबन एक सप्ताह पहले मायावती ने एसपी के उम्मीदवारों को बीएसपी के समर्थन का ऐलान किया. बीएसपी के लोग अपने स्तर पर एसपी के प्रत्याशी का प्रचार करते रहे. दोनों अोर के बड़े नेताअों की कोई साझा सभा या कोई रोड-शो नहीं हुए लेकिन महज इतने ही भर से बाजी पलट गई अौर बीजेपी को उसकी प्रतिष्ठा का सवाल बनीं दोनों सीटें गंवानी पड़ी. यही वजह है कि यूपी के सियासी हलकों में यह कयास लग रहे हैं कि अगर एसपी अौर बीएसपी का सांकेतिक अौर प्रतीकात्मक साथ ही बीजेपी पर इतना भारी पड़ा तो दोनों के बीच अौपचारिक गठबंधन अौर बड़ा गुल खिला सकता है.

akhilesh-mayawati

लोकसभा के अगले चुनावों में ऐसा होगा या नहीं यह फिलहाल तय नहीं लेकिन उपचुनाव के नतीजों के बाद अखिलेश यादव का मायावती के घर पहुंचना अौर दोनों नेताअों के बीच करीब एक घंटे की मुलाकात में भविष्य की एकजुट सियासत की संभावनाएं भी छुपी हुई हैं. बीजेपी के लिए फिक्र की बड़ी वजह इसलिए भी है क्योंकि हिंदू एजेंडे के जरिए उसने साल 2014 के लोकसभा अौर फिर 2017 के विधानसभा चुनाव में वोटरों को जातियों के दायरे से निकाल कर हिंदू पहचान के तहत बीजेपी के पक्ष में गोलबंद करने में कामयाबी पाई थी. एसपी अौर बीएसपी के अलग लड़ने से भी उसकी राह अासान हुई थी.

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एक साल पहले यूपी में योगी अादित्यनाथ की सरकार बनने के बाद भी सरकार की प्राथमिकताअों में हिंदू एजेंडे को तवज्जो देने के ही संकेत मिले. उपचुनावों के प्रचार के दौरान मुख्यमंत्री ने विधानसभा में खुद के हिंदू होने के लिहाजा ईद न मनाने का बयान दिया अौर चुनावी सभा में एसपी-बीएसपी के साथ अाने को अौरंगजेब की सरकार बताया. उपचुनाव के नतीजे बता रहे हैं कि बीजेपी के गए दो चुनावों के अाजमाए हुए कामयाब फार्मूले ने इस बार काम नहीं किया.

लोकसभा के अगले चुनाव इस मायने में भी 2014 से अलग होंगे कि विपक्ष एकजुट होकर चुनौती देने की तैयारियों में लगा है. लिहाजा चुनावों से पहले के अगले कुछ महीनों में बीजेपी राज चलाने अौर सियासत का एजेंडा साधने के लिए क्या रणनीतिक बदलाव करती है उस पर नजर रहेगी. यह देखना दिलचस्प होगा कि मंडल की सियासत को काटने के लिए वह कमंडल पर ही कायम रहेगी क्या मंडल की कोई बड़ी लकीर खिंचेगी.

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