गोरखपुर लोकसभा सीट पर 1989 में महंत अवैद्यनाथ की जीत के बाद से इस सीट को भगवा परिवार का अभेद्य किला माना जाता था. अवैद्यनाथ ने 1989 में हिंदू महासभा के उम्मीदवार के तौर पर इस सीट पर जीत हासिल की थी और उसके बाद वह बीजेपी से जीतने लगे.
तीन टर्म (9वीं से 11वीं लोकसभा के दौरान) तक इस सीट पर कब्जा बरकरार रखने के बाद उन्होंने अपनी विरासत अपने उत्तराधिकारी युवा आदित्यनाथ को सौंप दी. योगी 1998 में पहली बार संसद पहुंचे और उसके बाद उन्होंने लगातार पांच बार गोरखुपर का प्रतिनिधित्व किया.
बहरहाल, विडंबना यह रही कि कि योगी जब यश के अपने चरम पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर सत्ता में एक साल पूरे होने (19 मार्च) का जश्न मनाने की तैयारी कर रहे थे, तब उन्हें अपने घर (संसदीय क्षेत्र) में ही चुनावी हार का सामना करना पड़ा. योगी के गढ़ को उन ताकतों ने ध्वस्त कर दिया, जो इस शहर में कभी ताकतवर योद्धा नहीं माने जाते थे.
अगर संसद के कुल 16 कार्यकाल की बात करें, तो गोरखनाथ पीठ के मौजूदा महंतों- दिग्विजयनाथ, अवैद्यनाथ और आदित्यनाथ ने 10 बार गोरखपुर संसदीय सीट का प्रतिनिधित्व किया. इसके अलावा, कांग्रेस इस सीट पर चार बार जीती और 1977 की 'जनता लहर' में भारतीय लोकदल को यहां से जीत हासिल हुई. योगी द्वारा लड़े गए पिछले तीन चुनावों में उन्हें हमेशा 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिले. 2014 के लोकसभा चुनावों में योगी को 51.80 फीसदी वोट मिले और उन्होंने 3.12 लाख वोटों से जीत हासिल की. जीत का यह अंतर समाजवादी पार्टी-बहुजन समाज पार्टी के संयुक्त वोटों के मुकाबले 1.5 लाख ज्यादा है.
मुख्यमंत्री-उपमुख्यमंत्री की सीट गंवाना करारा झटका
गोरखुपर में बीजेपी की हार के मायने गंभीर हैं. खास तौर पर उभरते सामाजिक और राजनीतिक गठबंधन से होने वाले नुकसान के मद्देनजर यह बेहद अहम है. फूलपुर में भी हार मिलने के कारण बीजेपी का दर्द और बढ़ गया. इस सीट पर 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य जीते थे. इससे निराशाजनक बात क्या हो सकती है कि राज्य के मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री की संसदीय सीटों पर सत्ताधारी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा.
बिहार में हुए उपचुनाव में बीजेपी अररिया लोकसभा और जहानाबाद विधानसभा सीटों पर जीतने में नाकाम रही. लालू प्रसाद यादव की पार्टी आरजेडी ने इन सीटों पर वापसी की.
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त्रिपुरा, नगालैंड और मेघालय के नतीजे आने के बाद 3 मार्च को अगर अगर बीजेपी होली बीत के जाने के भी इसके जश्न में रंगी रही, तो समाजवादी पार्टी-बीएसपी और आरजेडी को भी देर से सही, लेकिन लाल, नीले और हरे रंगों से होली का जश्न मनाने का मौका मिला. इस उपचुनाव में बीजेपी को सांत्वना पुरस्कार के तौर पर सिर्फ बिहार की भभुआ विधानसभा सीट पर जीत मिली.
बीजेपी के लिए संकेत अच्छे नहीं हैं. मौजूदा ट्रेंड पार्टी नेतृत्व खास तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए चिंताजनक है. शाह ने तमाम तरकीबों से उत्तर प्रदेश में पार्टी के समर्थन का आधार तैयार किया था और तीन साल पहले राज्य की 80 लोकसभा सीटों में से उसे 73 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. इसी तरह, एक साल पहले हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी को राज्य की कुल 402 में से 325 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल हुई थी. महज एक साल बाद इन तमाम बढ़तों पर पानी फिरता नजर आ रहा है. सिर्फ इसलिए कि दो कट्टर प्रतिद्वंद्वी पार्टियों ने अतीत की अपनी कड़वाहट को भुलाकर बीजेपी के खिलाफ लड़ने के लिए हाथ मिला लिया.
बेशक हिंदीभाषी इलाकों के कुछ उपचुनावों के नतीजों के आधार पर किसी भी तरह का निष्कर्ष निकालना गलत होगा. लेकिन राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश उपचुनावों के प्रतिकूल नतीजों को निश्चित तौर पर बीजेपी को खतरे की घंटी समझना चाहिए. साथ ही, महज डेढ़ महीने में एक के बाद ये नतीजे आए हैं.
सपा-बसपा के मॉडल के कारण रणनीति में बदलाव की जरूरत
ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं, जहां संसदीय या विधानसभा चुनावों से पहले उपचुनाव के नतीजों का असर आम चुनावों पर नहीं हुआ. हर चुनाव अलग होता है और एक सीट या राज्य में चुनाव का दूसरे राज्य पर असर नहीं होता है. हालांकि, यह भी मानना नादानी होगी कि 2019 के संदर्भ में (खास तौर पर रणनीति के मामले में) सत्ताधारी पार्टी बीजेपी या विपक्षी पार्टियों के लिए इन चुनावों की कोई प्रासंगिकता नहीं है. बहरहाल, इन उपचुनावों के नतीजे कांग्रेस नेतृत्व के लिए भी चिंता की बात हैं, लेकिन पार्टी के नेता और कार्यकर्ता बीजेपी की हार से ज्यादा खुश होंगे. तमाम 'उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष' इससे उत्साहित होंगे और बीजेपी पर और आक्रामक तरीके से हमले करेंगे.
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फ़र्स्टपोस्ट के साथ अनौपचारिक बातचीत में बीजेपी के एक रणनीतिकार ने माना कि मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी का एक साथ आना 2019 के चुनाव में बाकी राज्यों में बीजेपी के विरोधियों के लिए मॉडल की तरह काम कर सकता है. अगर ऐसा होता है, तो बीजेपी को इस रणनीति को लेकर गंभीर समीक्षा करनी होगा. मोदी और बीजेपी विरोधी गठबंधन के तहत जेडी(यू)-आरजेडी-कांग्रेस के गठबंधन के बिहार मॉडल (हालांकि, नीतीश कुमार ने इस गठबंधन को तोड़ते हुए बीजेपी से हाथ मिला लिया) ने अब यूपी में अखिलेश यादव और मायावती के लिए प्रेरणा की तरह काम किया है.
यह सच है कि मुलायम-अखिलेश की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी को उत्तर प्रदेश में अपने वजूद के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. हालांकि, जाति आधारित पार्टी होने के कारण इन इकाइयों ने अपना जाति आधारित समर्थन और गठबंधन होने की स्थिति में दूसरी सहयोगी पार्टी को वोट ट्रांसफर कराने की अपनी क्षमता को बरकरार रखा है.
बीजेपी के रणनीतिकारों के पास अब बड़ी चुनौती है. उन्हें फिलहाल उभर रहे सामाजिक और राजनीतिक गठबंधनों को ध्यान में रखते हुए मोदी की शख्सियत और काम को नए अंदाज में पेश करना होगा. इसके अलावा, ऐसा माहौल बनाना होगा, जहां मोदी की अनिवार्यता वाले किसी कैंपेन और अपील में छोटे-छोटे जातिगत समीकरण बेअसर हो जाएं.
स्टार प्रचारक के बजाय सरकार चलाने पर ध्यान दें योगी
गोरखपुर और फूलपुर में कम वोटिंग से यह भी साफ है कि दोनों क्षेत्रों में शहरी वोटर (बीजेपी समर्थक मानें) वोट देने को लेकर उत्साहित नहीं थे. यह भी चिंताजनक बात है. उत्तर प्रदेश के वोटरों का संदेश बिल्कुल साफ है. योगी आदित्यनाथ को बाकी राज्यों में बीजेपी के स्टार प्रचारक की भूमिका को छोड़कर अपने राज्य में सरकार चलाने पर ध्यान देना चाहिए.
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