यूपी और बिहार के उपचुनाव के नतीजे सामने हैं. कांग्रेस को दोनों ही प्रदेश में जश्न मनाने के लिए कुछ नहीं मिला है. सिवाय इसके कि बीजेपी को झटका लगा है. गोरखपुर में आदित्यनाथ योगी के सीएम रहते इस नतीजे की किसी को उम्मीद नहीं थी. फूलपुर भी उपमुख्यमंत्री की सीट होने के नाते बीजेपी के लिए महत्वपूर्ण थी. लेकिन ऐसा नहीं हो सका है.
बीजेपी की एक साल की सरकार को जनता ने पहले टेस्ट में फेल कर दिया है. एसपी बीएसपी की जोड़ी बीजेपी पर भारी पड़ी है. बीजेपी के विरोध में वोट का ध्रुवीकरण हुआ है. हालांकि देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस को जनता ने नकार दिया है. कांग्रेस के दोनों ही उम्मीदवार जमानत बचाने में नाकामयाब रहे हैं. इससे साफ है कि कांग्रेस को बीजेपी को रोकने के लिए एसपी बीएसपी के गठबंधन के साथ रहना पड़ेगा क्योंकि अकेले कांग्रेस को जनता ने वोट देना मुनासिब नहीं समझा है.
फूलपुर नेहरू की विरासत वाली सीट थी. लेकिन कांग्रेस के उम्मीदवार मनीष मिश्रा को जनता ने गंभीरता से नहीं लिया है. बीजेपी से मुकाबला करने के लिए कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों के सहारे की जरूरत है. हालांकि इसके लिए सोनिया गांधी ने 13 मार्च को विपक्षी दलों की बैठक बुलाई थी. जिसमें एसपी बीएसपी के नुमांइदों ने शिरकत की थी. लेकिन इस डिनर डिप्लोमेसी से जिस तरह मायावती और अखिलेश यादव ने जाना जरूरी नहीं समझा, ये भी कांग्रेस के लिए पहेली है, जिसको सुलझाना कांग्रेस के लिए आसान नहीं है.
थर्ड फ्रंट की हिमायत करने वाली ममता बनर्जी ने ट्वीट कर मायावती और अखिलेश यादव को बधाई दी है. ममता बनर्जी ने ट्वीट मे लिखा अखिलेश यादव मायावती को शानदार जीत की बधाई ये अंत (बीजेपी) की शुरूआत है.
ये भी पढ़ें: यूपी उपचुनाव के नतीजों के बाद अखिलेश-माया की मुलाकात, जानें क्या होगी आगे की रणनीति
यूपी बिहार क्यों है महत्वपूर्ण?
देश की सत्ता का रास्ता इन दो बड़े राज्यों से जाता है. एनडीए के पास यूपी में 71 सांसद हैं. तो बिहार में 35 सांसद एनडीए के पास हैं. जाहिर है कि 120 सांसदों वाले इन दो राज्यों में बीजेपी और सहयोगी मजबूत हैं. कांग्रेस के लिए बीजेपी को इन दो राज्यों में रोकना सबसे जरूरी है. बिहार में कांग्रेस के पास आरजेडी जैसा मज़बूत साथी है. लालू यादव के जेल में होने के कारण कांग्रेस को बिहार में फेयरडील मिल सकता है. बिहार में जातीय समीकरण सुधारने के लिए कांग्रेस भूमिहार समुदाय को तरजीह दे रही है. ताकि मुस्लिम यादव के साथ भूमिहार जुड़ जाए. इस सोच की वजह से अखिलेश प्रसाद सिंह को राज्यसभा में भेजा गया है. वहीं मुसहर जाति से ताल्लुक रखने वाले जीतनराम मांझी भी सोनिया गांधी के भोज में शामिल थे.
कांग्रेस को इस कुनबे को और बढ़ाने की ज़रूरत है, जिसके लिए उपेन्द्र कुशवाहा या राम विलास पासवान को भी साथ लाना आवश्यक है. ये दोनों दल फिलहाल एनडीए के साथ हैं. हालांकि ये काम भी बिना आरजेडी के सहमति के नहीं हो सकता है. जहां तक यूपी का सवाल है कांग्रेस को जनता ने नकार दिया है. कांग्रेस के लिए बीजेपी को यूपी में रोकना सबसे बड़ी चुनौती है. कांग्रेस को यूपी में बिग ब्रदर की जगह एसपी-बीएसपी के साथ जाने के लिए पिछलग्गू बनना होगा.
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कांग्रेस को चेताया भी है. अखिलेश ने कहा कि गुजरात के बाद कांग्रेस अंहकार में आ गई है. कांग्रेस यूपी उपचुनाव में सांमजस्य बैठाने में चूक गई है. सोनिया गांधी के हाई पावर डिनर में मायावती और अखिलेश का ना आना कांग्रेस के लिए इशारा है. यूपी में ये दोनों बड़े दल हैं. कांग्रेस को इनसे समझौता करने के लिए बड़े दिल के साथ जाना पडेगा, तभी बात बनेगी क्योंकि एसपी-बीएसपी के गठबंधन के बाद इन दो दलों को कांग्रेस की जरूरत ना के बराबर बची है.
इस उपचुनाव से साबित हो गया है कि बीजेपी के मुकाबले जनता कांग्रेस की जगह क्षेत्रीय दलों को तरजीह दे रही है. यानी कांग्रेस को वोट देकर अपना वोट बर्बाद नहीं करना चाहती है. हालांकि एसपी बीएसपी और कांग्रेस के एक हो जाने से मुस्लिम वोट एक मुश्त इनके खाते मे जाएगा, जिसका सीधा नुकसान बीजेपी को होगा. इस नुकसान का अंदाज़ा बीजेपी को भी है. डिप्टी सीएम केशव लाल मौर्या का कहना है कि बीजेपी को ये उम्मीद नहीं थी कि ‘बीएसपी का वोट एसपी को मिलेगा. रिजल्ट के बाद पार्टी विश्लेषण करेगी ,इस हिसाब से आगे की रणनीति तैयार करेंगी कि यदि बीएसपी, एसपी और कांग्रेस साथ आएं तो भी बीजेपी को रोकने में सफलता ना मिल पाए.‘
ये भी पढ़ें: गोरखपुर का भगवाई किला ढहाने में असली रोल तो इनका है
मायावती की वोट ट्रांसफर कराने की ताकत लौटी
बीएसपी 2014 के लोकसभा चुनाव में सिफर पर पहुंच गयी थी. 2017 के विधानसभा में पार्टी की बड़ी हार हुई है. लेकिन इस चुनाव में मायावती का वोट वापिस लौटा है. मायावती ने इस उपचुनाव में साबित कर दिया है कि वो जिसे चाहे अपना वोट ट्रांसफर करा सकती है क्योंकि इस चुनाव में एसपी के साथ पार्टी का गठबंधन नहीं है. बल्कि मायावती ने समर्थन का ऐलान किया था. जिसके बाद दोनों दल के कार्यकर्ताओं ने एक साथ मिलकर बीजेपी का मुकाबला किया है. जाहिर है कि मायावती का दलित वोट बीजेपी से वापिस लौटा है. जिस तरह से विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने सोशल इंजीनियरिंग के जरिए बीएसपी को धराशायी किया था. बीजेपी को वो समीकरण टूट गया है. बैकवर्ड दलित और मुस्लिम का नया समीकरण इस चुनाव में उभरा है.
राहुल गांधी से हुई चूक
इस उपचुनाव में राहुल गांधी बीजेपी के खिलाफ क्रेडिट लेने से चूक गए हैं. राजनीतिक अनुभव की कमी साफ झलक रही है. बीएसपी के समर्थन करने के बाद कांग्रेस को भी मैदान से हट जाना चाहिए था, जिससे इस जीत का थोड़ा क्रेडिट राहुल गांधी को भी मिल जाता. लेकिन कांग्रेस के प्रभारी महासचिव गुलाम नबी आज़ाद राहुल गांधी को सही तस्वीर नहीं बता पाए, जिसकी वजह से कांग्रेस को एसपी-बीएसपी का मुंह ताकना पड़ रहा है.
राजस्थान और एमपी के जीत के बाद कांग्रेस का यूपी में मजा किरकिरा हो गया है. राहुल गांधी को हिंदी हार्टलैंड की राजनीति को करीने से समझना होगा. जिस तरह से क्षेत्रीय दल राजनीति कर रहे हैं वहां कांग्रेस टिक नहीं पा रही है. हालांकि कांग्रेस ऐसा नहीं मानती हैं.
कांग्रेस के प्रवक्ता पवन खेड़ा का कहना है कि ‘2019 की लड़ाई विचारधारा और मुद्दों की लड़ाई होगी. कांग्रेस कुछ राज्यों में मजबूत है, कहीं कमजोर भी है. लेकिन कांग्रेस जिस तरह से जनता के मुद्दों को उठा रही है. वही इसकी कमाई है. कांग्रेस किसानों का गरीबों को मुद्दा जोर-शोर से उठा रही है. इसके अलावा बीजेपी की नाकामियां भी जनता के सामने हैं. खासकर बीजेपी के करप्शन का मामला अब जनता देख चुकी है.‘
ये भी पढ़ें: उपचुनाव के नतीजों को साल 2019 के चुनाव से जोड़कर देखने की गलती न करे विपक्ष
बिहार के भभुवा में भी कांग्रेस की हार की वजह पार्टी खुद है. मीरा कुमार के संसदीय क्षेत्र में सदानंद सिंह की सिफारिश पर टिकट देना भारी पड़ गया है. जिसके बारे में प्रभारी महासचिव सीपी जोशी और कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष कोकब कादरी अंजान बने रहे हैं. कांग्रेस के कुछ नेताओं का आरोप है कि जानबूझकर राहुल गांधी को दोनों ही जगह के बारे में सही बात नहीं बताई गई है. जाहिर है कि 2019 के आम चुनाव के लिए गठबंधन बनाने की जद्दोजहद अब सोनिया गांधी को ही करनी पड़ेगी.
सोनिया की पहल
सोनिया गांधी ने 2019 के आम चुनाव से पहले बड़ी पहल की है. बीजेपी के विरोध में विपक्षी दलों को एक साथ एक मंच पर इकट्ठा करने की कोशिश की है. सोनिया गांधी के 13 मार्च के डिनर में 19 पार्टियों के नेताओं ने शिरकत की है. लेकिन क्षेत्रीय दलों के बड़े नेताओं ने इससे जानबूझकर दूरी बनाई है. एक तो ये दल अभी से ये दिखाना नहीं चाहते कि वो कांग्रेस के पाले में खड़े हैं. दूसरे सभी ये देख रहे हैं कि किस तरह 2019 में वो अपने आप को बीजेपी के मुकाबले कहां खड़ा करे. इसलिए इस दावत में ममता बनर्जी ,मायावती, अखिलेश यादव एम के स्टॉलिन नहीं आए है.
ये भी पढ़ें: सोनिया के सियासी भोज में विपक्ष का जमघट क्या रंग लाएगा?
क्षेत्रीय दलों में सिर्फ शरद पवार बड़े नेता हैं, जो इस दावत में शामिल हुए हैं क्योंकि क्षेत्रीय दल भविष्य के गठबंधन सरकार में अपना रोल देख रहे हैं. एक बार फिर 1996 जैसे हालात बन सकते हैं. कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को इस गठबंधन का नेता बनने के लिए काफी मुश्किल उठानी पड़ेगी. कांग्रेस जब अपने बल पर 150 सांसदों का आंकड़ा छुएगी, तभी राहुल गांधी की रायसीना हिल्स पर ताजपोशी होने की उम्मीद है.
2004 वाली गलती ना करे बीजेपी
2004 में दिल्ली की चमक-धमक से दूर सोनिया गांधी रोड शो करती रहीं. कांग्रेस के लिए प्रचार वहीं कर रही थी. इससे पहले एक मजबूत गठबंधन खड़ा करने में कामयाबी हासिल कर ली थी. तब भी अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता के सामने कांग्रेस को कोई मजबूत नहीं मान रहा था. लेकिन 2004 का इतिहास सभी को पता है. सोनिया गांधी की टीम के प्रयास को नजरअंदाज करना बीजेपी के लिए भारी पड़ सकता है.
हंदवाड़ा में भी आतंकियों के साथ एक एनकाउंटर चल रहा है. बताया जा रहा है कि यहां के यारू इलाके में जवानों ने दो आतंकियों को घेर रखा है
कांग्रेस में शामिल हो कर अपने राजनीतिक सफर की शुरूआत करने जा रहीं फिल्म अभिनेत्री उर्मिला मातोंडकर का कहना है कि वह ग्लैमर के कारण नहीं बल्कि विचारधारा के कारण कांग्रेस में आई हैं
पीएम के संबोधन पर राहुल गांधी ने उनपर कुछ इसतरह तंज कसा.
मलाइका अरोड़ा दूसरी बार शादी करने जा रही हैं
संयुक्त निदेशक स्तर के एक अधिकारी को जरूरी दस्तावेजों के साथ बुधवार लंदन रवाना होने का काम सौंपा गया है.