राजनीति में परसेप्शन बड़ी मारक चीज होती है. जैसे 2014 में एक परसेप्शन सा बन पड़ा कि अब तो इस देश को बदलाव चाहिए ही चाहिए. बहुत हुआ महंगाई का वार, अबकी बार मोदी सरकार.. बहुत हुआ नारी पर अत्याचार, अबकी बार मोदी सरकार.. बहुत हुआ भ्रष्टाचार, अबकी बार मोदी सरकार.. जैसे नारों ने उस परसेप्शन को मजबूत करने का काम किया कि इस देश को एक ताकतवर नेतृत्व की जरूरत है. क्या 4 साल बाद भी वो परसेप्शन कायम है या उसमें बदलाव आया है?
सवाल बहुत बड़ा है लेकिन इसे थोड़ा फोकस होकर सोचने की जरूरत है. इसलिए चर्चा का दायरा सिर्फ दलितों और पिछड़ी जातियों पर रखते हैं. क्या दलित और पिछड़ी जातियों में बीजेपी के प्रति नाराजगी बढ़ी है? क्या वो मोदी सरकार से ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं? क्या दलितों पर बढ़ते अत्याचार के आंकड़े इस नाराजगी के सबूत देते हैं? क्या पिछड़ी जातियां देश को पिछड़ी जाति का पीएम मिलने के बावजूद भी मायूस है? क्या दलित राष्ट्रपति देकर भी मोदी सरकार दलितों के दिल में जगह नहीं बना पाई है? इन सवालों के जवाब जानने के लिए पिछले कुछ दिनों में सरकार के लिए फैसलों पर नजर डालते हैं.
2 अप्रैल को हुए दलित आंदोलन ने शायद मोदी सरकार को जगाने का काम किया है. सिर्फ मोदी सरकार ही नहीं बल्कि दलित राजनीति करने वाले हर दल के सामने एक विचारणीय प्रश्न है. क्या दलित उम्मीदों को पूरा करने में नाकाम रहने वाली पार्टियों को उनके मुद्दों को फिर से समझने की जरूरत है? 2 अप्रैल को हुए दलित आंदोलन के बाद सरकार ने एक के बाद एक दलित हित के मुद्दों पर लुभाने वाले फैसले लिए हैं.
दलित-ओबीसी वोटबैंक के लिए फिक्रमंद है बीजेपी
सबसे पहले दलित एक्ट में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की वजह से हुए बदलाव, जिसके चलते दलितों ने देशभर में आंदोलन चलाया, उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पुर्नविचार याचिका दाखिल की गई. उसके बाद यूजीसी के नए नियमों के चलते उच्च सरकारी शिक्षण संस्थाओं में दलितों और ओबीसी आरक्षण में आई कमी को दूर करने के लिए सरकार ने अदालत में जाने का फैसला लिया. फिर सरकारी पदों पर बैठे दलितों के प्रमोशन में आरक्षण के सवाल को बहस के दायरे में लाकर सरकार की इस दिशा में कदम उठाने की बात कही गई. और अब यूपी में पिछड़ी जाति के लोगों को लुभाने की एक नई कोशिश चल रही है.
सरकारी सूत्रों के हवाले से कहा जा रहा है कि यूपी सरकार राज्य की 17 अतिपिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति की कैटेगरी में डालने पर विचार कर रही है. बताया जा रहा है कि केंद्र सरकार प्रदेश की 17 अतिपिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति की कैटेगरी में डालने का आदेश जारी कर सकती है. ये अति पिछड़ी जातियां हैं- निषाद, बिन्द, मल्लाह, केवट, कश्यप, भर, धीवर, बाथम, मछुआरा, प्रजापति, राजभर, कहार, कुम्हार, धीमर, मांझी, तुरहा और गौड़. इन जातियों को एससी की कैटेगरी में डालने का सीधा फायदा इनके लिए बढ़े आरक्षण के फायदे के तौर पर होगा. इसे सरकार का पिछड़ी जातियों को लुभाने के बड़े फैसले के तौर पर देखा जा रहा है.
सरकार के इस फैसले को यूपी में समाजवादी पार्टी और बीएसपी के 2019 के लिए बने संभावित गठबंधन के तोड़ के बतौर देखा जा रहा है. बीजेपी जानती है कि अगर एसपी और बीएसपी का गठबंधन बन गया तो पिछड़ों के एक बड़े वर्ग के वोट से उन्हें हाथ धोना पड़ सकता है. इसलिए इस फैसले को उस बड़े जाति वर्ग को अपने साथ बनाए रखने की कवायद के तौर पर देखा जा रहा है.
17 जातियों को साधने का राजनीतिक समीकरण
यूपी की ये 17 जातियां अरसे से मांग कर रही है कि उन्हें एससी-एसटी की सूची में शामिल किया जाए. ऐसा करके ही उनका सामाजिक-आर्थिक और शैक्षणिक विकास हो सकता है. इन जातियों के प्रतिनिधियों का कहना है कि पिछड़ी जातियों में भी अति पिछड़ी होने की वजह से समाज में उन्हें वाजिब हिस्सेदारी नहीं मिल रही है. बताया जा रहा है कि बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व भी उनकी मांग से सहमत दिख रहा है. इस पर जल्द फैसला लिए जाने का उन्हें भरोसा दिया जा रहा है. बताया जा रहा है कि सरकार का सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय इसकी प्रक्रिया शुरू करने की कवायद में जुट गया है.
बीजेपी का मानना है कि हालिया घटनाओं से ओबीसी जातियों में पैदा हुई नाराजगी को दूर करने का ये अच्छा कदम हो सकता है. बताया जा रहा है कि हाल ही में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के सामने यूपी के भारतीय सुहेलदेव समाज पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर ने भी ये मुद्दा उठाया था. उन्होंने अमित शाह के सामने इन जातियों का पूरा समीकरण रखा था. उन्हें ये समझाया गया कि पिछड़ी जातियों से ताल्लुक रखने वाली ये जातियां कैसे पिछड़ती जा रही है और उन्हें क्यों एससी-एसटी सूची में रखने की जरूरत आ पड़ी है.
जेडीयू नेता केसी त्यागी कहते हैं कि यूपी की इन जातियों की लंबे वक्त से मांग रही है कि उन्हें अनुसूचित जातियों में शामिल किया जाए. और इस तरह के प्रयास पहले भी हुए हैं. मुलायम सिंह ने भी ये कोशिश की थी. अगर बीजेपी एक बार फिर ये कोशिश कर रही है तो हम उसका स्वागत करते हैं.
पहले भी हो चुकी है इस तरह की कोशिश
एसपी और बीएसपी पहले भी इस तरह की कोशिश करके इन जातियों को लुभाने का प्रयास कर चुकी है. 2005 में मुलायम सरकार ने इस बारे में एक आदेश जारी किया था. लेकिन हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगा दी तो प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा गया. 2007 में मायावती सत्ता में आईं तो इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया. लेकिन बाद में खुद पत्र लिखा. दिसंबर 2016 में यूपी विधानसभा चुनाव से ठीक पहले इस तरह की कोशिश अखिलेश यादव ने भी की थी. उन्होंने 17 अतिपिछड़ी जातियों को एससी में शामिल करने के प्रस्ताव को कैबिनेट से मंजूरी भी दिलवा दी थी. केंद्र को नोटिफिकेशन भेजकर अधिसूचना जारी की गई. लेकिन इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई. मामला केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय में जाकर अटक गया.
सवाल है कि क्या ऐसा मुमकिन है कि अतिपिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति के दायरे में लाकर उन्हें एससी के आरक्षण का फायदा दिलवाया जा सके? क्या ये व्यावहारिक तौर पर संभव है या फिर ये इन जातियों को लुभाने की सिर्फ एक पॉलिटिकल स्ट्रैटजी भर है. जेडीयू नेता केसी त्यागी कहते हैं कि सभी राजनीतिक दल अपना-अपना जनसमर्थन जुटाने के लिए ऐसी रणनीति बनाते हैं, ये भी उसी का हिस्सा है. ऐसा प्रयोग बिहार में नीतीश कुमार ने भी किया था. राजनाथ सिंह ने भी अतिपिछड़ा और महादलित को एकसाथ लाने की कोशिश की थी. अब योगी आदित्यवाथ वही कर रहे हैं. ये चुनाव के नजरिए से भी है और ये एक सामाजिक समीकरण भी है. लेकिन अगर कोई अदालत में इसे चुनौती देता है तो फिर मुश्किल हो सकती है.
जानकार बताते हैं कि अतिपिछड़ी जातियों को ये सुनने में अच्छा लग सकता है कि एससी से दायरे में आकर उन्हें बढ़े हुए आरक्षण का लाभ मिले. लेकिन हकीकत में ऐसा होना संभव नहीं दिखता है. इस फैसले का व्यापक स्तर पर विरोध हो सकता है. अगर एससी एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इतना जबरदस्त विरोध हो सकता है कि रातोंरात एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो जाए तो फिर ऐसे किसी फैसले के नतीजे की कल्पना की जा सकती है. दूसरी बात है कि अनुसूचित जातियां ये क्यों चाहेगी कि अतिपिछड़ी जातियां उनकी श्रेणी में आकर उनके आरक्षण में हिस्सेदारी जमाए. इसे सिर्फ एक पॉलिटिकल स्टंट के बतौर देखा जाना चाहिए.
14 फीसदी वोटों पर है बीजेपी की नजर
यूपी में जिन 17 जातियों को अनुसूचित जातियों के दायरे में लाने की बात की जा रही है उनकी आबादी करीब 13.63 फीसदी है. चुनावों में इन जातियों का रुझान जीत की दिशा तय कर सकता है. यूपी में 13 निषाद जातियों की आबादी 10.25 प्रतिशत है. जबकि राजभर 1.32 फीसदी, कुम्हार 1.84 फीसदी और गोंड़ 0.22 फीसदी हैं. इन जातियों की याद चुनाव के वक्त ही आती है. एक बार फिर इनकी याद आई है. लेकिन ये जातियां भी बढ़े हुए आरक्षण का लॉलीपॉप दिखाकर ललचाने की स्ट्रैटजी इतनी बार देख चुकी हैं कि इस बार वो पिघलेंगी इसमें शक है.
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