लखनऊ के नवाबों के बेशुमार शौक और शगल थे. कनकौए उड़ाना इसमें शामिल था. गोमती नदी पर पुल बाद में बना, कनकौओं के मांझे ने दोनों तटों को पहले से जोड़ रखा था. कनकौआ कटता तो सब झाड़दार डंडे लेकर उधर ही लपक पड़ते जिधर हवा हो, जैसे कौवा कान ले कर भागा हो.
ये शौक नवाबों-रईसों तक सीमित नहीं था. आम था. उम्र इसमें आड़े नहीं आती थी. लागत मामूली थी और खुशी बेपनाह.
बचपन की पतंग में पूंछ होती थी कि वो सीधी रहे. ऊपर जाए. हाथ सध जाए तो पूंछ की जरूरत नहीं. डार्विन साहब ने बजा फरमाया था कि जिस चीज की जरूरत नहीं होती, धीरे-धीरे खत्म हो जाती है. उन्होंने इस सिलसिले में इंसानी पूंछ का हवाला दिया था.
अखिलेश ने कांग्रेस को बनाया अपनी पूंछ
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को एक बात कभी नहीं भूली कि सियासत ‘लौंडे लफाड़ों’ का खेल नहीं है. मुलायम सिंह यादव ने यह बात किसी मुद्दे पर चिढ़ कर कही थी. अखिलेश ने गांठ बांध ली. परिवार की सियासत में कामयाबी जमीनी कामयाबी की गारंटी नहीं है, ये भी समझ लिया.
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इसीलिए समाजवादी अखिलेश मैदान में कनकौआ लेकर चले तो पहले तय कर लिया कि उड़ान ऊंची और सीधी हो इसलिए पूंछ जरूरी है. प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस की पतंग 27 साल पहले कट चुकी थी, दोबारा उड़ने के इम्कानात नहीं थे. कांग्रेस के पास भी पूंछ बन जाने के अलावा विकल्प नहीं था.
लेकिन ये समस्या अखिलेश की नहीं, कांग्रेस की है. राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि हो सकता है हाल-फिलहाल कांग्रेस की पूछ हो जाए लेकिन लंबे दौर में यह उसके हमेशा के लिए कट जाने की गारंटी होगा. तब शायद उसकी हैसियत पूंछ बनने की भी ना रहे.
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तमिलनाडू से लेकर बिहार तक कांग्रेस जब भी पूंछ बनी है, तबाह हो गई है. उसकी सारी ताकत इसमें खपती है कि पूंछ कैसे बचाए रखी जाए. पतंग बनने का ख्याल नहीं आता क्योंकि तब तक ना उसकी हैसियत बचती है, ना हौसला. दिल के बहलाने को तस्वीर रह जाती है.
रघुबरपुर जाने की तैयारी
उदाहरण के लिए वाराणसी के चेतगंज इलाके का वो पोस्टर जिसमे अर्जुन की भूमिका में धनुष-बाण लिए योद्धा अखिलेश यादव हैं और कृष्ण की छवि में सर पर तीन मोर पंख लगाए सारथी राहुल गांधी. पोस्टर यकीनन समाजवादी पार्टी या कांग्रेस की सहमति से नहीं बना है पर हैरानी है कि पोस्टर में पंजा गायब है, केवल साइकिल है.
उस पर गलत हिंदी और भ्रष्ट भाषा में नारा लिखा है, ‘विकास से विजयी की ओर चले दो महारती’.
स्थिति में थोड़ा बहुत बची अस्पष्टता वरिष्ठ कांग्रेस नेता गुलाम नबी आज़ाद ने ये कह कर खत्म कर दी कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस-समाजवादी पार्टी गठबंधन ‘अखिलेश यादव के नेतृत्व में’ मैदान में उतरेगा.
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लोहियावादियों की कांग्रेस से कभी पटरी नहीं बैठी लेकिन ये एकजुटता लगभग वैसी है जब कांग्रेस विरोध के लिए राममनोहर लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय साथ हो गए थे.
इस बार अंतर इतना है कि साझा दुश्मन कांग्रेस नहीं भारतीय जनता पार्टी है.
इतना ही नहीं, राहुल गांधी ने लखनऊ में पार्टी कार्यकर्ताओं से चर्चा के दौरान अखिलेश यादव को ‘ठीक लड़का’ कहा तो अखिलेश ने पलट कर राहुल को ‘ अच्छा लड़का’ कह दिया.
हिसाब बराबर.
लेकिन अखिलेश ने किसी संभावना की डोर अपने हाथ रखते हुए ये कह कर बात आगे बढ़ा दी कि राहुल नियमित आते रहे तो हम दोस्त हो सकते हैं.
उसके बाद का घटनाक्रम सबने देखा. राहुल अखिलेश का हाथ औपचारिक रुप से थामने को हैं.
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हालांकि कांग्रेस पार्टी और उसके बाहर भी कई टीकाकार कहते हैं कि समाजवादी पार्टी का हाथ पकड़कर कांग्रेस ने ‘रघुबरपुर’ जाने की तैयारी कर ली है. ये पूछने पर कि ‘रघुबरपुर’ है कहां?
कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, ‘गोसाईं जी ने लिख दिया है. हनुमान चालीसा पढ़िए.'
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