इन दिनों यह सवाल काफी छाया हुआ है कि नोटबंदी किस हद तक यूपी सहित पांच राज्यों में होनेवाले चुनावों के नतीजों पर असर डालेगी ?
जनता की नब्ज टटोलने के लिए इसी महीने 19 तारीख को हुए उपचुनाव के नतीजों पर नज़र डालना अच्छा रहेगा. नोटबंदी के फैसले के ठीक 10 दिन बाद सात राज्यों की 4 लोकसभा और 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए. इसे भाजपा का लिटमस टेस्ट कहा जा रहा था. लेकिन हुआ क्या? खोदा पहाड़ निकली चुहिया. सातों राज्यों में सत्तारुढ़ दल अपने-अपने गढ़ों को बचाने में सफल रहा.
हालांकि इन राज्यों में यूपी नहीं था. अब सवाल उठता है कि क्या यूपी में अगर उपचुनाव होते तो सत्ताधारी समाजवादी पार्टी अपनी साख बचा पाती? शायद हां, क्योंकि उपचुनावों में तो सत्ताधारी दल का दबदबा ही होता है.
सियासी बिसात काफी मजेदार
यूपी में बिछी सियासी बिसात काफी मजेदार है. देश की सियासत की दिशा और दशा तय करनेवाले इस सूबे की जमीनी सियासी सच्चाई यह है कि यहां कभी कोई दल 50 फीसदी से ज्यादा वोट किसी चुनाव में हासिल नहीं कर पाया है. यहां तक कि स्वतंत्रता संग्राम से उपजी लहर पर सवार होने के बावज़ूद कांग्रेस 1951 में हुए पहले आमचुनाव में 48 फीसदी ही वोट हासिल कर पाई थी. कहने का अर्थ ये है कि जिन लोगों ने कांग्रेस का विरोध किया था, उनकी तादाद कांग्रेस के वोटरों से ज्यादा थी.
वक्त ने करवट ली, इस राज्य में सियासी समीकरण बदले, नए-नए राजनीतिक प्रयोग हुए और कांग्रेस-विरोधी क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ. जाहिर है कांग्रेस दिनोंदिन कमजोर होती चली गई. प्रदेश की सियासत में हाशिए पर जाती कांग्रेस का वोट शेयर भी लगातार खिसकता चला गया. और पिछली बार 2012 के विधानसभा चुनाव तक उसके वोटों का हिस्सा 12 फीसदी से भी नीचे पहुंच गया. कांग्रेस को 28 सीटें ही मिल सकी.
हालांकि भाजपा की स्थिति भी बहुत बेहतर नहीं थी. इस चुनाव में उसे मात्र 15 फीसदी वोटों के साथ 47 सीटें ही मिल पाईं थीं. दोनों राष्ट्रीय दलों के मुकाबले समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का दबदबा 2012 विधानसभा चुनाव में बरकरार था. बीएसपी को 26 फीसदी वोट के साथ 80 सीटें मिली, जबकि समाजवादी पार्टी बीएसपी के मुकाबले मात्र साढ़े तीन फीसदी ज्यादा वोट हासिल कर 224 सीटें झटक ले गई थी. सपा को पिछले चुनावों में 29.13 फीसदी वोट मिले थे.
भाजपा का सियासी भविष्य क्या है?
नोटबंदी के गहराते असर के बीच भाजपा का सियासी भविष्य क्या है? आज भाजपा की पूरी उम्मीद सिर्फ और सिर्फ एक शख्स के चमत्कार पर टिकी है और वो हैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी.
पीएम मोदी की सियासी जीत का फार्मूला भले ही उनके विकास मॉडल पर आधारित रहा हो, लेकिन यूपी में यह मंत्र बेअसर नजर आता है. आपको शायद ही कोई एक शख्स भी मिले जो प्रदेश भाजपा को विकास से जोड़कर देखता हो. भाजपा ने प्रदेश को भले ही चार-चार मुख्यमंत्री दिए हों- कल्याण सिंह (दो बार), रामप्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह- बावज़ूद इसके भाजपा सूबे में कभी विकास के लिए नहीं पहचानी गई. इस पार्टी की पहचान रही है चंद चुनिंदा उन्मादी मुद्दे- राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद, नकल अध्यादेश, वंदे मातरम और सरस्वती वंदना.
आज के राजनीतिक माहौल का सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि पीएम मोदी का बढ़ता कद भी यूपी में भाजपा को प्रभावशाली जीत की ओर बढ़ाता नहीं दिख रहा है. पिछले साल हुए दिल्ली और बिहार असेम्बली चुनावों के नतीजों को याद करना भी सही होगा, जहां भाजपा चारों खाने चित्त हुई थी. मोदी की छवि उस वक्त भी अपने शबाब पर ही थी.
भाजपा समर्थकों के इस तर्क में कोई दम है कि नोटबंदी से उपजी लहर उन्हें लखनऊ का ताज दिलाने में अहम भूमिका निभाएगी? कुछ अतिउत्साहित भगवा समर्थकों का तो यहां तक कहना है कि 1951 के आमचुनाव में जैसी जीत कांग्रेस को नसीब हुई थी, ठीक वैसा ही आलम 2017 में भाजपा के पक्ष में होगा.
जमीनी सच्चाई तो कुछ और ही
लेकिन जमीनी सच्चाई तो कुछ और ही बयां कर रही है. यूपी में बेरोजगारी चौतरफा बढ़ रही है. बड़ी तादाद में खेतिहर मजदूर, हुनरमंद कारीगर और कामगार काम की तलाश में भटक रहे हैं. बनारस के साड़ी उद्योग से जुड़े बुनकर हों, मुरादाबाद के पीतल तराशनेवाले हों या फिर कानपुर-आगरा के चमड़ा उद्योग से जुड़े कामगार, सभी के पास काम की कमी है. इसके अलावा निर्माण क्षेत्र में तो बेरोज़गारी अपने चरम पर है ही.
विडंबना तो यह है कि नोटबंदी की सराहना सब करना चाहते हैं और कर भी रहे हैं, लेकिन अफसोस कि फीलगुड कहीं नहीं है. कशमकश इस बात को लेकर भी है कि नोटबंदी की सराहना करनेवाले सही साबित होंगे या फिर परेशानी में घिरे हुए लोग. और शायद इस सवाल का जवाब पीएम मोदी के पास भी नहीं है. ऐसे सवालों का जवाब सिर्फ वक्त दे सकता है, जिसके लिए इंतज़ार करना होगा.
एक और बात कहना बेहद जरूरी है. नोटबंदी से उपजे सामाजिक उथल-पुथल के बीच जातिगत दीवारें दरकती नजर आ रही हैं. जो लोग इस फैसले से खुश हैं वो अलग-अलग जातियों से आते हैं. और जो नाखुश, निराश हैं उनमें भी कोई जाति भेद नहीं है. लोग तो यहां तक कहते हैं कि आज समाज में दो ही जातियां बची हैं- अमीर और गरीब. समाजशास्त्रियों की इस नई थ्योरी से शायद सर्वहारा वर्ग के प्रेरणास्त्रोत कार्ल मार्क्स की आत्मा भी स्वर्ग में मुस्कुरा रही होगी.
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