उत्तर प्रदेश की चुनावी लड़ाई का फैसला क्या होगा, यह तो बाद की बात है. फिलहाल तो सबकी निगाहें इस पर लगी हैं कि समाजवादी पार्टी के भीतर चल रही टिकटों की लड़ाई का फैसला क्या होगा, कौन जीतेगा? बाप या बेटा? पार्टी पर किसका वर्चस्व होगा? कोई सुलह होगी? मुलायम झुकेंगे या अखिलेश? या पार्टी दोफाड़ हो जायेगी?
मुलायम सिंह पुराने पहलवान हैं. अखाड़े की कुश्ती में माहिर. राजनीति की कुश्ती में उनके 'चरखा दांव' से बड़े-बड़े खुर्राट राजनेता भी कई बार पटखनी खा चुके हैं. मुलायम बस एक ही बार दांव चूके हैं, जब वह राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गये थे. कहा जाता है कि तब एक और यादव नेता लालू प्रसाद ने ऐन मौके पर औचक लंगड़ी मार दी थी.
अब मुलायम सिंह को दूसरी बार चुनौती बेटे से मिली है. वैसे समाजवादी पार्टी में तीन महीने से चल रही कुश्ती के हर राउंड में अब तक तो मुलायम सिंह यादव ही जीतते दिखाई दिये, लेकिन शायद लड़ाई अब निर्णायक राउंड में है. जो यह राउंड जीता, वही पार्टी को चलायेगा.
अखिलेश यादव ने भी जारी की अपनी लिस्ट
अखिलेश कैंप की तरफ से 235 प्रत्याशियों की लिस्ट जारी की गई है. इनमें 171 सीटिंग विधायक हैं. खबर ये भी है कि अखिलेश के प्रत्याशी दूसरे चुनाव चिन्ह से चुनाव लड़ सकते हैं. माना जा रहा है कि यह अखिलेश का आखिरी दांव है.
पिता मुलायम और चाचा शिवपाल को अल्टीमेटम कि अब भी वक्त है, अखिलेश की लिस्ट के उम्मीदवारों को टिकट दे दिये जायें, अखिलेश को चुनाव की पूरी कमान दी जाय, वरना वह पार्टी को तोड़ने तक का जोखिम उठाने को तैयार हैं!
अखिलेश इशारों-इशारों में कह ही चुके हैं कि 'मुहब्बत में जुदाई का हक' भी होता है. कहने की बात अलग है, लेकिन चुनाव से ठीक पहले ऐसी 'जुदाई' आसान है क्या?
अखिलेश भी जानते हैं और मुलायम-शिवपाल भी इतने नासमझ नहीं हैं कि चुनाव के ठीक पहले पार्टी तोड़ने से होने वाले नुकसान को न समझते हों. और मुलायम-शिवपाल इतने नासमझ भी नहीं हैं कि वह यह न समझते हों कि वोट किसके चेहरे पर मिलेंगे? मुलायम-शिवपाल के चेहरे पर या अखिलेश के?
जाहिर है कि आज चुनाव में समाजवादी पार्टी जो कुछ भी उम्मीद कर सकती है, वह अखिलेश के चेहरे से ही कर सकती है. यह बात समाजवादी पार्टी के ज्यादातर नेता, खासकर युवा नेता और कार्यकर्ता भी जानते और समझते हैं.
पार्टी का चेहरा तो अखिलेश ही हैं
पार्टी का चेहरा तो अखिलेश ही हैं. बाजार में चलनेवाली करेंसी अखिलेश ही हैं, यह मुलायम और शिवपाल बखूबी जानते हैं.
बस पेंच एक है. वह यह कि अखिलेश को 'अरदब' में कैसे रखा जाय कि वह बस दुधारू गाय की तरह बने रहें. जो सारा झगड़ा अभी चल रहा है, उसकी जड़ यही है कि अखिलेश 'आज्ञाकारी' पुत्र और भतीजे बने रहें, और मुलायम-शिवपाल जैसे चाहते हैं, वैसे सरकार चलाते रहें.
दरअसल, पांच साल पहले जब अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाया गया था, तब यही सोचा गया था कि वह 'बबुआ' मुख्यमंत्री की तरह कुर्सी पर बैठे रहेंगे. और अक्सर मीडिया में यह कहा भी जाता रहा कि उत्तर प्रदेश में 'साढ़े चार मुख्यमंत्री' हैं. अखिलेश, मुलायम, शिवपाल, रामगोपाल ये चार और आधे आज़म ख़ान.
लेकिन धीरे-धीरे अखिलेश ने अपने को इन शिकंजों से बाहर निकालने की कोशिश शुरू की. यही वजह है कि पिछले पांच सालों में कई बार मुलायम सिंह सार्वजनिक मंचों पर अखिलेश को लताड़ लगाते रहे, सरकार के काम से अपनी नाराजगी जताते रहे. लेकिन अखिलेश इन आलोचनाओं को इस कान से सुन कर उस कान से निकालते रहे.
और अब पांच साल बाद अखिलेश ने साफ जता दिया है कि वह 'बबुआ' नहीं, मुखिया हैं. पार्टी उनके साथ उनकी मर्जी पर चले, परिवार के लिए थोड़ा-बहुत वह 'एडजस्ट' करने को तैयार हैं, लेकिन 'बबुआ' बन कर वह नहीं रहेंगे.
इसीलिए मुख्तार अंसारी की पार्टी के विलय और अतीक अहमद जैसों को टिकट दिये जाने के शिवपाल के चिढ़ाने वाले पैंतरों पर भी वह समझौता करने को तैयार हैं. लेकिन इससे ज्यादा और कुछ नहीं.
अखिलेश ने अपने उम्मीदवारों की जो सूची मुलायम सिंह यादव को सौंपी थी, उसमें कुछ सीटें शिवपाल यादव की 'पसंद' के लिए छोड़ कर अखिलेश ने यही संकेत दिया था.
अखिलेश को मालूम है कि समय उनके साथ है, जनता में उनकी छवि अच्छी है. समाजवादी पार्टी कानून-व्यवस्था को लेकर हमेशा ही बदनाम रही है, लेकिन मुख्तार और अतीक जैसों का खुला विरोध करके अखिलेश ने जता दिया है कि वह समाजवादी पार्टी की राह बदलना चाहते हैं.
राजनीति में कभी-कभी भविष्य वर्तमान से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है
राजनीति में वर्तमान का महत्व तो बहुत है, लेकिन कभी-कभी भविष्य वर्तमान से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है. समाजवादी पार्टी आज ऐसे ही मोड़ पर खड़ी है.
पार्टी में एक बड़े वर्ग को मालूम है कि भविष्य में वह अखिलेश की राजनीति से तो उम्मीद रख सकता है, मुलायम और शिवपाल मार्का राजनीति से नहीं. इसलिए पार्टी के बहुत-से विधायक इस चुनाव को दांव पर लगा कर भी अखिलेश के साथ जाने को तैयार हैं.
मुलायम-शिवपाल के लिए संदेश साफ है. अखिलेश को 'बबुआ' बनाने का खेल महंगा पड़ेगा. पार्टी अगर टूटी तो इस चुनाव में तो भट्ठा बैठेगा ही, लेकिन पांच साल बाद फिर क्या होगा?
तो कुल मिला कर लगता तो नहीं कि मुलायम सिंह चाहेंगे कि ऐसी नौबत आए. लेकिन अगर आ गई तो क्या होगा? तरह-तरह की अटकलें लग रही हैं.
एक अटकल तो यही है कि अखिलेश कांग्रेस के साथ मिल कर चुनाव लड़ सकते हैं. हालांकि समाजवादी पार्टी के परंपरागत वोट अगर दो धड़ों में बंटते हैं, तो कांग्रेस का साथ अखिलेश के कुछ खास काम नहीं आएगा. लड़ाई तब बीजेपी और बीएसपी में होगी और फायदे में बीजेपी रहेगी.
एक अटकल और भी उछाली जा रही है कि बीजेपी भी अखिलेश पर दाना डाल सकती है. बड़ी दूर की कौड़ी लगती है. लेकिन भारत की राजनीति में कुछ भी हो सकता है. आखिर मुलायम किसी समय कल्याण सिंह से हाथ मिला ही चुके हैं. यह अलग बात है कि उसका उन्हें बड़ा खामियाजा उठाना पड़ा था.
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