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अभी मुलायम सिंह यादव को चित मानना होगी भूल

अखाड़े का यह महारथी इतना बेवकूफ नहीं कि चीजें हाथ से निकल जाने देगा और अपनी राजनीतिक पूंजी को यूं ही बर्बाद होने देगा.

Updated On: Dec 31, 2016 06:22 PM IST

Ajay Singh Ajay Singh

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अभी मुलायम सिंह यादव को  चित मानना होगी भूल

समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव सियासत के पक्के खिलाड़ी हैं. अब से पहले भी न जाने कितनी बार उनकी सियासत का फातिहा पढ़ा जा चुका है.

कई बार बड़े बड़े पत्रकारों ने मान लिया कि अब तो मुलायम चित हो जाएंगे. लेकिन पहलवानी से सियासत के अखाड़े में आए मुलायम के दांव हर बार भारी साबित हुए है. हर बार उन्होंने गजब की वापसी की है. उनमें राख से उठ खड़े होने का माद्दा है.

आज हम जिस आभासी दुनिया के दौर में रह रहे हैं, वहां भावनाएं सच पर भारी पड़ती हैं और अतीत के अनुभव का जिक्र न करना ही बेहतर समझा जाता है. लेकिन वहीं हमें दिखाई पड़ता है सैफई का एक जुझारू इंसान जो सत्तर के दशक से ही देश में सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य की सियासत में छाया हुआ है.

पहला संकट

वैसे तो समाजवादी विचारक राम मनोहर लोहिया के साथ मुलायम का जुड़ाव 1970 के दशक में ही शुरू हो गया था. लेकिन राजनीति में उन्हें मुकाम मिला चौधरी चरण सिंह की सरपरस्ती में.

इमरजेंसी के बाद उभरे सियासी परिदृश्य में, मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार में पहली बार कैबिनेट मंत्री बने. अपने अस्तित्व के पहले संकट का सामना उन्होंने चौधरी चरण के निधन के बाद किया. संकट का कारण थी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत, जो स्पष्ट नहीं थी.

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चौधरी चरण सिंह

चरण सिंह के निधन के बाद उनके बेटे अजित सिंह ने पिता की विरासत पर दावा किया और पूरे राज्य में एक यात्रा शुरू की. वह अपने पिता की राजनीतिक पूंजी के निर्विवाद वारिस के तौर पर खुद को स्थापित करना चाहते थे.

मुलायम सिंह को अजित सिंह का सिपहसलार बनना मंजूर नहीं था और इसीलिए उन्होंने अपने रास्ते जुदा कर लिए. असल में, चरण सिंह ओबीसी राजनीति की एक बहुत बड़ी विरासत छोड़ गए थे. जिसने मुसलमानों के साथ मझौली यानी ऊंची और नीची जातियों के बीच की जातियों को मिलाकर एक मजबूत सामाजिक आधार तैयार किया.

मुलायम सिंह ने इस आधार को पकड़ने में जरा देर नहीं लगाई और स्थानीय स्तर पर प्रभावशाली नेताओं को अपने साथ लेकर इसके साथ और जातियों को भी जोड़ा.

मुलायम सिंह ने सियासी चतुराई दिखाते हुए जनेश्वर मिश्र, कपिल देव सिंह और रेवती रमण सिंह जैसे ऊंची जाति वाले नेताओं के साथ साथ बेनी प्रसाद वर्मा और आजम खान जैसे ओबीसी और मुसलमान नेताओं को भी अपने पाले में ले लिया.

सबसे मुश्किल समय

जब वीपी सिंह ने 1987 में राजीव गांधी के खिलाफ बगावत की और कांग्रेस के खिलाफ एक मोर्चा बनाया तो उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह का सियासी कद बहुत बढ़ गया.

1989 के चुनाव में उन्होंने बहुमत-प्रदर्शन में अजित सिंह को पछाड़ते हुए पहली बार राज्य के मुख्यमंत्री की गद्दी हासिल की.

आपराधिक रिकॉर्ड वाले लोगों को अपने आसपास रखने से मुलायम सिंह को कभी दिक्कत नहीं रही. मुख्यमंत्री के तौर पर भी उन्होंने अपने आपको बदलने की कोई कोशिश नहीं की.

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लालू प्रसाद यादव-चंद्रशेखर-मुलायम सिंह यादव

लेकिन मुलायम सिंह के लिए सबसे मुश्किल समय 1990 में उस समय आया जब उन्होंने घोषणा की कि वह बाबरी मस्जिद की हिफाजत करेंगे. उन्होंने अयोध्या में बाबरी मस्जिद पर हमला करने वाले कारसेवकों पर 20 अक्टूबर और 2 नवंबर को गोली चलाने का आदेश दिया. पुलिस फायरिंग में लगभग एक दर्जन कारसेवक मारे गए और राज्य भर में दंगे हो गए.

तेजी से बदल रहे राजनीतिक समीकरणों के बीच मुलायम सिंह ने वीपी सिंह को छोड़ा और चंद्रशेखर का दामन थामन लिया.

1991 के चुनावों में मुलायम सिंह की ताकत एकदम सिमट गई और वीपी सिंह के नेतृत्व वाली जनता दल सबसे बड़ी विपक्षी ताकत के तौर पर उभरी. चुनाव के कुछ दिन बाद ही मुलायम सिंह का एक एक्सीडेंट हुआ जिसमें उनकी एक टांग में फ्रैक्चर हो गया

कैसे बने ‘मौलाना मुलायम’

जब अयोध्या आंदोलन चरम पर था, तो मुलायम की छवि एक ऐसे नेता के तौर पर हो गई जिससे हिंदू सबसे ज्यादा नफरत करते थे. इसी दौरान उन्हें ‘मौलाना मुलायम’ का तमगा दिया गया. मीडिया में उन्हें सियासी तौर पर खत्म मान लिया गया.

लेकिन इससे मुलायम सिंह के जीवटता पर कोई असर नहीं पड़ा. उन्होंने पूरे राज्य में यात्रा निकाली और 1993 के चुनावों में बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन कर फिर से धमाकेदार वापसी की. उन्हें दूसरी बार सूबे के सीएम की कुर्सी मिली और इस पर वह 1995 तक विराजमान रहे.

mulayam-mayawati

लेकिन फिर बीएसपी ने अपना समर्थन खींच लिया. मायावती का उभार उनके लिए एक बड़ी चुनौती बन गया, लेकिन फिर भी मुलायम सिंह अपने समीकरणों को ठीक बनाए रखने में कामयाब रहे.

1996 में केंद्र में बनी संयुक्त मोर्च की सरकार में वह रक्षा मंत्री बने और प्रधानमंत्री पद के बेहद नजदीक पहुंच गए थे.

हालांकि 1999 में सोनिया गांधी के साथ उनके संबंध खराब हो गए. मुलायम सिंह भी उन लोगों में शामिल थे जिन्हें सोनिया गांधी का प्रधानमंत्री बनना मंजूर नहीं था. लेकिन फिर मुलायम सिंह ने अमर सिंह के जरिए यूपीए सरकार के दौर में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से नजदीकी बढ़ाने की कोशिश की.

सियासी समीकरणों के महारथी

मुलायम सिंह बदले राजनीतिक समीकरणों को संभालने में माहिर है. इसके लिए वह विचारधाराओं से भी परे चले जाते हैं. और यही बात उन्हें हमेशा प्रासंगिक बनाए रखती है.

उन्होंने सियासी तौर पर खत्म होने की अटकलों को न सिर्फ बार बार गलत साबित किया है, बल्कि हर लड़ाई के बाद वह और मजबूत होकर उभरे हैं.

आजकल उनके कुनबे में छिड़े झगड़े की वजह से अटकलें लग रही हैं कि सियासी तौर पर उन्हें नुकसान उठाना पड़ सकता है, लेकिन मुलायम को ऐसे हालात से निबटना और उबरना अच्छी तरह आता है.

Mulayam Singh

अतीत के अनुभव देखें तो मुलायम का सामान ऐसी हालात से कई बार हो चुका है, भले ही संदर्भ अलग रहे हैं. लेकिन हर बार वह एक विजेता बनकर उभरे हैं.

अखाड़े का यह महारथी इतना बेवकूफ नहीं कि चीजें हाथ से निकल जाने देगा और खून, पसीने और आंसुओं से तैयार की गई अपनी राजनीतिक पूंजी को यूं ही बर्बाद होने देगा.

अखिलेश को मुलायम सिंह समय समय पर डांट पिलाते रहते हैं. इन डांटों का मकसद सिर्फ बेटे को वे मुश्किल सबक सिखाना है जो उन्होंने अपने कैरियर में सीखे हैं.

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