उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी (सपा) में यादवों के संघर्ष से बरबस तेलुगुदेशम पार्टी में 1995 में हुई फूट की याद आ जाती है. आंध्र प्रदेश में करिश्माई फिल्मी शख्सियत एन टी रामराव को उन्हीं की बनाई पार्टी से उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू ने अलग करके राजनीतिक बियाबान में डाल दिया था.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव क्या देश के राजनीतिक इतिहास में एक बार फिर वह नजारा दोहरा सकते हैं? क्या वे अपने पिता सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव और चाचा व राज्य पार्टी प्रमुख शिवपाल यादव से अलग मोर्चा बनाने का ऐलान कर सकते हैं? यह संभव है या नहीं, यह सवाल तो अलग है पर अखिलेश खेमे के कुछ नेताओं के साथ कांग्रेस के ऊंचे हलके में भी शायद ऐसी कुछ सुगबुगाहट है.
यह संभावना सितंबर के बाद शिवपाल और अखिलेश के खेमे में इस साल तीसरी और विधानसभा चुनाव के पहले अंतिम टकराहट से बनती दिख रही है. कांग्रेस से गठजोड़ या तालमेल के पक्ष में अखिलेश जब काफी आगे बढ़ गए तो शिवपाल सक्रिय हुए. उन्होंने अपने उम्मीदवारों की सूची जारी करने की धमकी दी तो अखिलेश पूरी 403 सीटों की सूची पार्टी सुप्रीमो मुलायम को दे आए.
मुलायम ने अखिलेश के उम्मीदवारों को दरकिनार करके 325 उम्मीदवारों की सूची जारी की और कांग्रेस या किसी पार्टी से गठबंधन या तालमेल की संभावना खारिज कर दी. जवाब में अखिलेश ने अपने 235 उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी. दोनों की सूचियों में 171 मौजूदा विधायकों के अलावा काफी कुछ अलग है.
अब आगे क्या करेंगे अखिलेश?
बड़ा सवाल यह है कि क्या अखिलेश पार्टी तोड़ने की हद तक जाकर कांग्रेस और अजित सिंह के रालोद जैसे दलों के साथ मोर्चा बनाकर आगे बढऩे की ताकत जुटा सकते हैं?
80 और 90 के दशक में उभरी तेलुगुदेशम पार्टी भले रामराव के फिल्मी आभामंडल और करिश्माई व्यक्तित्व के इर्दगिर्द स्थापित हुई थी (1983 के विधानसभा चुनावों में पहली बार पार्टी ने भारी जीत दर्ज करके चौंका दिया था) लेकिन उसके जमीनी संगठन को चंद्रबाबू नायडू ने ही आकार दिया था.
इमरजेंसी और उसके बाद के दौर में युवा कांग्रेस के तेज-तर्रार नेता चंद्रबाबू में संभावनाएं देखकर ही रामराव ने उनसे बेटी का विवाह किया था. उस दौर में चंद्रबाबू नायडू और राजशेखर रेड्डी दोनों दोस्त हुआ करते थे. (2004 में नायडू को हराकर राजशेखर रेड्डी कांग्रेस के मुख्यमंत्री बन और फिर 2009 भी जीते, जिनकी हेलिकॉप्टर हादसे में असमय मौत के बाद आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के सितारे भी डूब गए).
रामराव ने 1980 के दशक में तेलुगु गरिमा को भुनाने के लिए पार्टी बनाई तो नायडू ही उसके असली सांगठनिक सूत्रधार बने. इस वजह से रामराव की सेहत बिगड़ने के बाद नायडू उन्हें अलग करके भी पार्टी को अपने साथ लेकर चल पाए.
धीरे-धीरे बदली अखिलेश की छवि
अखिलेश उस तरह के सांगठनिक नेता नहीं हैं. वे पहली बार 2012 के चुनावों के पहले प्रदेश भर की अपनी साइकिल यात्रा में ही पार्टी संगठन से ढंग से परिचित हो पाए. उसी दौरान उन्होंने डीपी यादव जैसे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं के खिलाफ बयान देकर अपनी अलग छवि बनानी शुरू की थी. मुख्यमंत्री बनने के शुरुआती दो वर्षों में उनकी प्रशासनिक मौजूदगी भी नहीं दिखती थी. उनकी निष्क्रियता से यह जुमला चल पड़ा था कि प्रदेश में साढ़े पांच मुख्यमंत्रियों का राज है.
2014 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के हाथों बुरी पराजय से सपा और अखिलेश सरकार हिल उठी. उन चुनावों में कुल 80 संसदीय सीटों में से 73 पर भाजपा गठबंधन जीत गया था. सपा को सिर्फ 5 सीटें मिली थीं, वह भी सिर्फ सत्तारूढ़ यादव परिवार के सदस्य ही जीत पाए थे.
इस बुरे झटके से अखिलेश को अपने विकास एजेंडे को आगे बढ़ाने की मोहलत मिली. उन्होंने छह बड़ी विकास परियोजनाओं पर ध्यान दिया और अपनी छवि विकास के प्रति गंभीर नेता की बनाई. इसमेें लखनऊ में मेट्रो और आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस वे को रिकॉर्ड समय में पूरा करने का श्रेय अखिलेश खुद को देते हैं. यही नहीं, अखिलेश पर अभी किसी तरह का आरोप भी नहीं है. इससे खासकर युवा तबके में उनका आकर्षण बढ़ा.
लोगों में यह संदेश भी गया या फैलाया गया कि अगर यादव परिवार और मुलायम के पुराने दोस्तों (अमर सिंह जैसे) ने ठीक से काम करने दिया होता तो अखिलेश और अच्छा काम करते. अखिलेश ने हाल में राज्य सरकार के विज्ञापनों वगैरह में सिर्फ अपनी छवि के प्रसार पर ही जोर दिया है.
अखिलेश ने सिद्धांतों की लड़ाई में अपनों से दूरी बनाई
कहते हैं, अपने परिवार से खुद को अलग दिखाने के लिए उन्होंने नए घर में रहना ही नहीं शुरू कर दिया है, बल्कि अपने लिए चुनाव क्षेत्र भी पारिवारिक गढ़ इटावा-मैनपुरी-एटा-आगरा से दूर बुंदेलखंड में तलाश रहे हैं. सूखाग्रस्त बुंदेलखंड में सिंचाई और पेयजल की व्यवस्था और किसानों को राहत देने के लिए उनकी सरकार कई कार्यक्रम चला चुकी है.
हालांकि विकास की यह छवि चुनाव में जीत दिलाने के लिए काफी नहीं है. उसके लिए खासकर उत्तर प्रदेश में जाति और सामुदायिक समीकरणों की दरकार होती है. राज्य में 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों और कई शहरों में सांप्रदायिक तनाव की घटनाओं को रोकने में नाकामी के कारण सपा का मुस्लिम-यादव समीकरण भी गड़बड़ा गया है. इसी को ध्यान में रखकर अखिलेश कांग्रेस और कुछ दलों से गठजोड़ करना चाहते थे.
पिता मुलायम के साए से धीरे-धीरे निकलते गए
कांग्रेस 2012 के विधानसभा चुनावों में भले 28 सीटें जीती हो, उसे चाहे जितना कमजोर माना जाए लेकिन उसका जुड़ना कई वोटबैंकों में एक आश्वस्ति पैदा करता है. इससे मुसलमानों की दुविधा खत्म हो सकती है.
ब्राह्मणों में भी कुछ दिलचस्पी पैदा हो सकती है और खासकर अवध के इलाके में गैर-यादव पिछड़ी जातियों में भी कुछ असर पैदा हो सकता है, जहां 2009 में कांग्रेस अपनी 22 संसदीय सीटों की जीत में सबसे अच्छा प्रदर्शन कर चुकी है. अपनी इसी ताकत के एहसास से कांग्रेस ज्यादा तगड़ा मोलभाव कर रही है.
इस मामले में अखिलेश की सोच से शायद मुलायम इत्तेफाक नहीं रखते. मुलायम शायद सोच रहे हैं कि गठजोड़ से कांग्रेस मजबूत हुई तो गैर-बीजेपी सेकुलर वोट उसकी ओर खिसक सकते हैं. इसी वोट को कांग्रेस से अलग करके मुलायम ने राज्य में अपने को मजबूत किया है. लेकिन इस चक्कर में अगर सपा को बुरी हार का मुंह भी देखना पड़ सकता है.
इससे मुसलमानों में खासकर बहुसंख्यक पासमांदा बिरादरी (पिछड़ी जातियों के गरीब मुसलमान) ज्यादा मजबूती से मायावती और बसपा की ओर खिसक सकती है. मायावती की 125 मुसलमान उम्मीदवारों की सूची में लगभग सभी इसी पासमांदा बिरादरी के हैं. इसी तरह गैर-यादव पिछड़ी जातियों के वोट भी भाजपा और कांग्रेस की ओर खिसक सकते हैं.
अगर सपा के नेता चुनाव के बाद के परिदृश्य की सोचकर यह रणनीति के तहत कर हैं तो उसमें भी यह देखना दिलचस्प होगा कि इससे टूटे राजनीतिक भरोसे को कैसे वापस पाते हैं.
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