'गुड़गुड़ी (डुगडुगी) तो यहीं से बजेगी. जिसको चाहेंगे धरती दिखा देंगे. पूरब की तरफ तो सभी सबको लपकेंगे लेकिन पक्के वोट तो यहीं के होंगे.' यह आवाज है पश्चिमी उत्तर प्रदेश की.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 26 जिलों में 77 विधानसभा सीटें हैं. इस इलाके में जाटों की आबादी लगभग 17 फीसदी और मुसलमान 26 फीसदी हैं. 2012 के चुनाव में 26 सीटों से मुसलमान जीते थे.
इस इलाके में जाटों मुसलमानों के बीच हुए दंगों की खबरें भले ही कितने ही अखबारों के पन्नों पर पसरी रहें, ज्यादा पुराना सच ये है कि यहां कई जातियां द्विधार्मिक हैं. हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों में ये जातियां मौजूद हैं. जाट मुसलमान, गूजर मुसलमान, त्यागी मुसलमान वगैरह.
इस इलाके में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी तो हैं ही. यहां पर अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोक दल भी है. चौधरी चरण सिंह के बेटे अजीत जाटों के परंपरागत नेता रहे हैं.
इस पार्टी की राजनीति किसानों के इर्द गिर्द घूमती रही है क्योंकि इस इलाके के जाट मुख्य रूप से किसान हैं. एक मजबूत जाट-मुसलमान गठबंधन आरएलडी को सत्ता में भागीदारी दिलाता रहा है.
जैसे-जैसे एसपी और बीएसपी का दखल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बढ़ता गया वैसे-वैसे आरएलडी मुस्लिम वोट से कटता गया. दंगो और काम धंधो में बदलाव के चलते आरएलडी अपने परंपरागत जाट वोटों से भी कटा है. जाटों का मानना है की पिछले कुछ सालों में पार्टी के नुकसान की वजह अजित सिंह की मुसलमानों को ज्यादा तरजीह देने की भूल रही.
हालत यहां तक आ गई की 2014 लोक सभा चुनावों में अजीत सिंह खुद भी चुनाव हार गए पर सिंह के लिए अब हालात बदलाव की तरफ सरकते दिख रहे हैं.
ग्राउंड जीरो से
अभी हाल ही में, मैं अलीगढ़, मेरठ और मुजफ्फरनगर के इलाकों में घूमी. यहां लोगों का किसी भी राजनीतिक दल में पूरा भरोसा नहीं बन पा रहा है. जाटों को जो बात बीजेपी से खटकती है वो है अजीत सिंह का लगभग बेमानी हो जाना और उनका दिल्ली के सरकारी घर से निकाल फेंका जाना.
लेकिन यहां लोग मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को सरकार की कमियों के लिए जिम्मेदार नहीं मानते. अगर अखिलेश यादव और मुलायम सिंह अलग-अलग मैदान में उतरे तो लोग ज्यादा अखिलेश की तरफ ही जाते दिख रहे हैं.
अखिलेश यादव अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी जैसे मुसलमान नेताओं के खिलाफ हैं. इन बाहुबलियों की मुसलमानों के बीच में भी कोई बहुत अच्छी छवि नहीं है. ऐसे बाहुबली मुसलमान वोटरों की भी मजबूरी होते हैं क्योंकि पार्टियां इसी तरह के लोगों को टिकट देती हैं.
यूं समझिए कि वोटर अपने लिए जरूरी भ्रम तलाश रहा है. वो भ्रम जिसके सहारे वो किसी पार्टी के साथ अपनी उम्मीदें बांध सके.
मतदाता पानी की रस्सियां पकड़ कर किनारे की तलाश में हैं. ये लोकतंत्र में वोट के बुनियादी अधिकार को बचाए रखने के लिए जरूरी भी है.
दरकता वृद्ध तंत्र
हुक्के के चारों तरफ बैठ कर हो या फिर चाय की दुकानों में समोसे -चटनी के साथ चुनावों पर होने वाली बातें अब रंग पकड़ने लगी हैं.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोक तंत्र में 'वृद्ध-तंत्र’ यानी बुजुर्गों की बात की बड़ी अहमियत है. पर हां बुजुर्गों की बात का वजन अब यहां भी पहले जैसा नहीं है.
जाट समाज के बुजुर्ग बीजेपी से खासा नाराज दिख रहे हैं. उनकी नाराजगी के कई कारण हैं. एक तो जाटों को आरक्षण नहीं मिला ऊपर से जाट नेता ओम प्रकाश चौटाला को जेल भेज दिए गया. अजित सिंह का सरकारी मकान धक्के मार कर खाली करा लिया गया.
वे इस बात को ठनक से कह रहे हैं, ‘उन्होंने दिल्ली से बड़े जाट नेता अजित सिंह के बर्तन बगाये (फेंके) हम उनको यहां से बगायेंगे.’
बीजेपी सर्जिकल स्ट्राइक को अपनी उपलब्धि गिनाती है. पर बुजुर्ग जाट जिनमें में से कई पूर्व सैनिक भी हैं वो कहते हैं, 'पाकिस्तान के मारे तीस तो हमारे मरवाये पैंतालीस.’
जाट बुजुर्गों की बात मानें तो उन्हें बीएसपी और आरएलडी के गठबंधन में उम्मीद दिखती है. उनके अनुसार 'टूटी-फूटी सरकार' ही सत्ता में आए तो सबका भला होगा.
बसपा के पिछले कार्यकालों को याद करते हुए ये कहा जा रहा है कि गठबंधन की सरकार में उसने अच्छा काम किया पर जब पूर्ण बहुमत आया तो हाथी ही हाथी खड़े कर दिये.
उन्हें मोदी की नीयत और फैसलों पर भरोसा है. हुक्के पर बैठ कर बुजुर्ग इन युवाओं को ‘भटकने’ से बचाने के लिए रणनीति बनाते दिख जाते हैं.
बात मुसलमानों की
अब मुसलमानों की बात करें तो वो भी अपने चुनावी विकल्पों की बारीकी से पड़ताल कर रहे हैं. मौजूदा एसपी सरकार के यादवों के प्रति इकतरफा रुख से कई मुसलमान निराश हैं.
इसके अलावा नौकरियां न मिलना और 2013 के मुज़फ्फरनगर दंगे भी नाराजगी का कारण बने हुए हैं. जो मुसलमान दंगों से प्रभावित नहीं हुए हैं उनमें बीएसपी की तरफ रुझान अधिक दिखता है.
उनका नारा है 'काम को सलाम'. वैसे तो ये वो इलाके हैं जो दंगों की जद से बच गए थे जैसे बघरा तहसील का पुरकाजी विधानसभा क्षेत्र (आरक्षित) जहां पर मुसलमानों का रुझान बीएसपी की तरफ है.
जहां-जहां मुसलमान एसपी का समर्थन कर रहे हैं वो अखिलेश यादव पर मुग्ध हैं. एसपी समर्थक मुसलमानों का कहना है कि वो खुद के व्यवसाय पर ज्यादा निर्भर हैं सो नौकरी की कमी उनके लिए चुनाव का मुद्दा नहीं है.
बुनियादी विकास को लेकर सरकारों की विफलताओं ने मतदाताओं को विकल्पहीनता का शिकार बना दिया है. ये बात लोगों ने कुछ इस तरह से कहीं- ‘नेता तो किराया और रफ्तार बढ़ाए जा रहे हैं लेकिन सड़क वही की वही है.’
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