देश की सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य यूपी में सात चरणों के चुनाव होने की घोषणा हो चुकी है और इस घोषणा के साथ राजनीतिक रुप से देश का सबसे महत्वपूर्ण राज्य एक अप्रत्याशित सियासी भंवर और उलझन में घिर चला है.
प्रदेश के चार मुख्य सियासी पार्टियों की हालत पर गौर कीजिए-
सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी को अभी यह तक नहीं पता कि वह कौन से चुनाव चिह्न से चुनावी अखाड़े में उतरेगी. पार्टी के नेता और कार्यकर्ता दोनों ही नहीं जानते कि पार्टी का अध्यक्ष कौन है- मुलायम सिंह यादव या अखिलेश यादव.
अभी यह भी साफ नहीं है कि सात चरणों वाले इस चुनाव में दल का नाम समाजवादी पार्टी वैध रहेगा या नहीं क्योंकि मुलायम सिंह और अखिलेश यादव दोनों ही के धड़े ने इस दावे के साथ चुनाव आयोग को अर्जी दी है कि वे ही समाजवादी पार्टी के वास्तविक प्रतिनिधि हैं और दूसरा दावेदार( मुलायम सिंह के मुताबिक अखिलेश यादव का धड़ा और अखिलेश यादव के मुताबिक मुलायम सिंह का धड़ा) फर्जी है और जो पार्टी के आंतरिक संविधान के विपरीत है और जिसे कार्यकर्ताओं का साथ हासिल नहीं है.
इसके अलावा चुनाव चिह्न साइकिल भी सवालिया निशान के घेरे में है कि आखिर वह किसे मिलेगा बशर्ते यह मानकर चलें कि बाप-बेटे में अभी से लेकर 17 जनवरी तक कोई सुलह नहीं होती है. 17 जनवरी से पहले चरण की 73 सीटों के लिए नामांकन के पर्चे दाखिल किए जाने हैं.
अकल्पनीय स्थिति
किसी प्रदेश के सत्ताधारी दल को लेकर ऐसी स्थिति एकदम अनसुनी और अकल्पनीय है. यूपी जैसे विशाल और महत्वपूर्ण राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी के लिए तो इसे और भी विचित्र कहा जाएगा.
ऐसा जान पड़ता है मानो समाजवादी पार्टी के यादव कुनबे के सरदारों ने मान लिया है कि इस चुनाव के नतीजे चाहे जो निकलें पहले परिवार का महाभारत समाप्त कर लिया जाए और फिर आने वाले सालों में पूरी तैयारी करके 2022 के चुनावों के लिए मैदान में उतरा जाए.
अखिलेश अभी युवा हैं और वे अपनी बारी आने के लिए पांच साल की प्रतीक्षा कर सकते हैं. फिलहाल यही लग रहा है कि समाजवादी पार्टी को हासिल होने जा रही सीटों और समर्थन का सवाल बस किताबी दिलचस्पी का विषय बनकर रह गया है.
बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती को अबतक पूरी तैयारी में दिखना चाहिए था लेकिन संकेत अफरा-तफरी के मिल रहे हैं. इन चुनावों के पेशेनजर बीएसपी के शीर्षस्तर पर जैसी भागमभाग मची वैसी किसी और पार्टी में नहीं.
स्वामी प्रसाद मौर्य, ब्रजेश पाठक और आरके चौधरी जैसे दिग्गजों ने पार्टी छोड़ दी. पार्टी छोड़ते वक्त इन सबने मायावती के खिलाफ जहर उगला. इन सबने आरोप मढ़ा कि मायावती को और कुछ नहीं बस पैसा चाहिए.
नोटबंदी से बीएसपी आहत
माना जा रहा है कि नोटबंदी से बीएसपी को करारी चोट लगी है. दरअसल आम ख्याल यही है कि यह चोट बहुत गहरी है. किसी के पास इसे साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं है लेकिन राजनीति में पार्टी और उसके नेता को लेकर कायम धारणा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है.
यह बात भी सच है कि जिन नेताओं की पकड़ किसी जाति और समुदाय पर मजबूत होती है, उनपर भ्रष्टाचार या पैसा बनाने के आरोप देर तक नहीं चिपकते.
मायावती का चुनावी अभियान अभी सड़क-चौराहों तक नहीं पहुंचा है. जब तक पहले चरण का चुनाव-प्रचार जोर नहीं पकड़ लेता उनकी जनसभा नहीं होती. पिछली दफे वो सत्ता में थीं और इस बार विपक्ष में हैं.
बहरहाल घर, दफ्तर और पार्टी के आरामगाह में बैठे-बैठे समर्थकों के बीच अपना संदेश ले जाने के लिए उन्होंने एक दूसरा माध्यम ढूंढ़ लिया है. अब वे प्रेस-कॉन्फ्रेंस करके लंबे-लंबे वक्तव्य जारी करती हैं.
दोफाड़ होती समाजवादी पार्टी के नुकसान में अपना फायदा देख रही मायावती को उम्मीद है कि मुसलमान समाजवादी पार्टी का साथ छोड़कर उनके खेमे में आ जायेंगे. सो जाति, समुदाय, धर्म, नस्ल, भाषा आदि के आधार पर वोट न मांगने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद वे खुलेआम मुसलमानों के बारे में बोल रही हैं, बता रही हैं कि मुसलमानों को क्यों बीएसपी को वोट देना चाहिए, एसपी को नहीं. बीएसपी के उम्मीदवारों की पहचान भी खुलेआम जाति और समुदाय (मुसलमान) से जोड़ी जा रही है.
शीला मैदान छोड़ने को तैयार
कांग्रेस मुस्तैदी की एक निराली अवस्था में है. उसके सामने अपने वजूद का ये संकट आ खड़ा है कि वह एक पार्टी के रुप में बची रहती है या फिर विस्मृति के गर्त में समा जाती है.
लेकिन जिस दिन चुनावों की घोषणा हुई, पार्टी के असली प्रधान राहुल गांधी विदेश में मौज कर रहे थे. नए साल के आगमन की खुशी में वे यूरोप में कहीं छुट्टियां मना रहे थे.
चुनाव आयुक्त ने जैसे ही चुनाव की तारीखों का एलान किया कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार शीला दीक्षित टीवी चैनल पर यह कहती दिखीं मुख्यमंत्री पद की दावेदारी छोड़ देने में उन्हें खुशी होगी और वे राजी-खुशी इस बात का इंतजार करेंगी कि समाजवादी पार्टी के साथ किसी किस्म का गठबंधन हो जाए.
शीला दीक्षित के करीबी समर्थक सहित कांग्रेस पार्टी के कई लोगों का मानना है कि हार की फजीहत से बचने के लिए उन्हें बलि का बकरा बनाया गया है ताकि राहुल गांधी और सोनिया गांधी के लिए अपना चेहरा बचाने की गुंजाइश बनी रहे.
बीजेपी तैयार लेकिन कितना जनाधार
सूबे के चुनावी जंग में बीजेपी ही इकलौती पार्टी है जिसके पास मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं है. पार्टी चुनाव जीतती है तो बेशक बागडोर राजनाथ सिंह के हाथ में थमाई जा सकती है लेकिन इसका एलान अभी तक नहीं हुआ है और चुनावों के दौरान भी नहीं होगा.
बीजेपी यह चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर लड़ रही है. मोदी की चुनावी रैली में जुटी भीड़ और उसका उत्साह बीजेपी के लिए आस जगाने वाली है बशर्ते पार्टी इसे वोट में तब्दील कर सके. यूपी विधानसभा के ये चुनाव नोटबंदी और सर्जिकल स्ट्राइक के बाद के वक्त में हो रहे हैं.
ऐसे में बीजेपी चुनावी जंग के लिए बेहतर हालत में जान पड़ती है लेकिन बिहार के चुनावी नतीजों ने साबित किया है कि महीने भर चलने वाली चुनावी जंग में हालात पलटी भी मार जाते हैं.
बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा ने कहा है कि इस चुनाव में उलझन बनाम सुलझन की लड़ाई है. 11 मार्च को आने वाले नतीजों से फैसला होगा कि मतदाताओं ने किसे उलझन माना और किसे सुलझन करार दिया.
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