बाबा मछेन्द्रनाथ के सिद्ध मठ वाले नगर की लोकसभा का प्रतिनिधित्व अब मत्स्यजीवी समुदाय के एक युवा के हाथ में है. दशकों से चली आ रही राजनीतिक खेमेबंदी का नुकसान बीजेपी के लिए आज सबसे बड़ा दर्द है, लेकिन इस हार के पीछे का कारण सिर्फ एसपी-बीएसपी की गोलबंदी नहीं बल्कि विपक्ष की चौकस रणनीति और निषाद समाज के मतदाताओं की संख्या भी है.
बीजेपी द्वारा गोरखपुर का गढ़ हारने के पीछे का कारण भले ही राजनीतिक पंडितों ने एसपी-बीएसपी और पीस पार्टी के सामूहिक गठजोड़ को बताया हो लेकिन इस गोलबंदी का असली खेल निषाद पार्टी के बगैर खेल पाना मुश्किल था.
निषाद पार्टी ने किया बसपा सपा गठजोड़ से भी बड़ा नुकसान
बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के लिए गोरखपुर की हार में निषाद पार्टी की भूमिका को नजरअंदाज करना बेवकूफी होगी. गोरखपुर लोकसभा के कुल 19 लाख मतदाताओं में से करीब 4 लाख निषाद हैं.
निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद ने 2016 में निषाद पार्टी का गठन किया था और वे लगातार निषादों के आरक्षण की मांग करते रहे हैं. 2017 के विधानसभा चुनावों में निषाद पार्टी के प्रत्याशियों को लगभग हर सीट पर सम्मानजनक वोट मिले थे. ऐसे में संजय निषाद के पुत्र प्रवीण निषाद को समाजवादी पार्टी के टिकट पर उतार कर निषाद पार्टी ने बड़ा दांव खेला.
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गोरखपुर लोकसभा की जनता और विशेषकर ग्रामीण इलाकों के मतदाताओं की मठ के प्रति गहरी आस्था है. ऐसे में उपेंद्र नाथ शुक्ल को टिकट दिए जाने के बाद से ही निषाद पार्टी ने उनके मठ के बाहर का प्रत्याशी होने की चर्चा ग्रामीण इलाकों में जोर-शोर से की. प्रवीण निषाद ने चुनाव प्रचार से पहले गोरखनाथ मंदिर जाकर दर्शन पूजन किया और उसके बाद उनके समर्थकों ने निषाद बाहुल्य इलाकों में बाबा मत्स्येंद्रनाथ के जन्म की कथा जिसमे उनके मछली के पेट से जन्म लेने के उल्लेख है को निषादों के साथ जोड़ कर प्रचारित किया.
निषाद समुदाय की महागठबंधन के तरफ बढ़ती गोलबंदी से उपजे डर के बाद बीजेपी को गोरखपुर में मछुआरा सम्मेलन का आयोजन करवाना पड़ा था. और उस सम्मेलन में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. महेंद्रनाथ पांडे ने मंच से बार बार कहा था 'भगवान राम के सबसे करीब निषाद समाज रहा है.' लेकिन इस बार निषाद समाज ने भगवान राम से दूरी बनाई और अपनी मजबूती का एहसास दिल्ली तक को करवा दिया.
जमुना प्रसाद निषाद की हार पर आज लगा मरहम
गोरखपुर के निषाद बाहुल्य इलाकों में बुधवार शाम को जमना प्रसाद की हार की चर्चा भी सर्वत्र है. गोरखपुर लोकसभा सीट में निषाद समुदाय की जनसंख्या 16 से 18 प्रतिशत होने के कारण निषाद समुदाय ने कई बार यहां राजनीतिक जमीन तलाशने की कोशिश की.
इसी क्रम में जमना प्रसाद निषाद पहली बार 1998 में लोक सभा चुनाव में खड़े हुए लेकिन वे योगी आदित्यनाथ से 26 हजार वोट से हार गए थे. 1999 के लोकसभा चुनाव में योगी आदित्यनाथ महज 7339 वोटों से जीते थे.
योगी आदित्यनाथ को 2,67,382 वोट मिले थे और समाजवादी पार्टी के जमुना प्रसाद निषाद को 2,60,043 वोट मिले थे. कड़ी मेहनत के बावजूद निषाद समुदाय के प्रतिनिधि को उस साल भी लोकसभा जाने का मौका नहीं मिल पाया था लेकिन आज प्रवीण की जीत ने उस हार पर लगभग बीस साल बाद मरहम लगा दिया.
कौन हैं प्रवीण निषाद
गोरखपुर के अगले सांसद प्रवीण कुमार निषाद उर्फ संतोष, निषाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के दूसरे पुत्र हैं. प्रवीण ने वर्ष 2009 में एनआईईटी ग्रेटर नोएडा से बीटेक(मैकेनिकल ब्रांच) की शिक्षा प्राप्त की है. उसके पश्चात इंडो एलोसिस इंडस्ट्रीज लिमिटेड भिवाड़ी राजस्थान में बतौर प्रोडक्शन मैनेजर तकरीबन तीन वर्षों तक कार्यरत रहने के दौरान ही उन्होंने सिक्किम मणिपाल यूनिवर्सिटी से दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से प्रोजेक्ट मैनेजमेंट में एमबीए की डिग्री हासिल की है. प्रवीण के बड़े भाई डॉ. अमित कुमार निषाद दिल्ली में व्यक्तिगत प्रैक्टिस करते हैं. इनके छोटे भाई इंजीनियर श्रवण कुमार निषाद भी राजनीति में सक्रिय है. पिता डॉ. संजय निषाद ने जब अगस्त 2016 में निषाद पार्टी का गठन करने के बाद प्रवीण को प्रदेश प्रभारी नियुक्त किया था. इसके अलावा प्रवीण, राष्ट्रीय एकता परिषद समेत अन्य कई संगठनों में जिम्मेदार पदों पर रह चुके हैं.
चर्चा में रहने की आदत है संजय निषाद को
संजय निषाद ने पार्टी को यहां तक लाने में कई पापड़ बेलें हैं. 2002 में पूर्वांचल मेडिकल इलेक्ट्रो होम्योपैथी एसोसिएशन का गठन करने के बाद वे इस संगठन के अध्यक्ष बनें, उसके बाद कुछ वर्षों तक वे गोरखपुर के अखबारों के दफ्तरों में इलेक्ट्रो होम्योपैथी को मान्यता दिलाने के लिए विज्ञप्तियां बांटते नजर आते थे.
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2008 में उन्होंने ऑल इंडिया बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी वेलफेयर एसोसिएशन का गठन किया और यहीं से उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा बलवती होने लगी. 2015 में संजय के नेतृत्व में हजारों कार्यकर्ताओं ने गोरखपुर से सटे सहजनवा इलाके के कसरावल गांव के पास निषादों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिए जाने की मांग को लेकर ट्रेन रोकी.
थोड़ी ही देर में वह प्रदर्शन हिंसक हो गया और पुलिस फायरिंग में एक कार्यकर्ता की मौत हो गई जिसके बाद क्षुब्ध कार्यकर्ताओं ने कई गाड़ियों में आग लगाकर घंटों बवाल काटा. तत्कालीन समाजवादी सरकार ने संजय पर दर्जनों मुकदमे भी दर्ज किए थे.
निषाद पार्टी ने 2017 विधानसभा चुनाव से लगभग एक साल पहले फूलन देवी का जन्मदिवस मनाया था. इस कार्यक्रम में निषाद, केवट और मल्लाह समुदाय के कई संगठनों की सहभागिता थी. इस कार्यक्रम में उनकी योजना फूलन देवी की 30 फीट की प्रतिमा स्थापित करने की भी थी लेकिन प्रशासनिक हस्तक्षेप के बाद ऐसा संभव नहीं हो पाया था.
क्या निषाद पार्टी अब एक मजबूत घटक है
2019 में अगर एसपी-बीएसपी को बीजेपी से लड़ना है तो दोनों के ही लिए निषाद पार्टी को साथ लेकर चलना अब मजबूरी है. पूर्वांचल के कई जिलों में निषाद समाज की अच्छी खासी संख्या है. अब तक निषादों का वोट अलग-अलग पार्टियों में बंटता रहता था और समय-समय पर कांग्रेस समेत एसपी और बीएसपी ने इन वोटों के ध्रुवीकरण का खासा फायदा उठाया. लेकिन अब निषाद पार्टी का गठन होने के बाद समीकरण बदल रहे हैं. 2017 में निषाद पार्टी ने भदोही से विजय मिश्र को टिकट देकर अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया था. बीजेपी की लहर में भी विजय मिश्रा रिकॉर्ड वोटों से जीत गए थे और निषाद पार्टी ने पहली बार में ही एक विधायक विधानसभा में पहुंचाने का गौरव भी हासिल किया था.
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निषाद समुदाय के विभिन्न वर्गों को जोड़कर प्रदेश में उनकी जनसंख्या चार प्रतिशत है, लेकिन पूर्वांचल समेत मध्य उत्तर प्रदेश और बुंदेलखंड इलाके की कुछ विधानसभाओं में इनकी संख्या अच्छी संख्या में है. 2017 के विधान सभा चुनावों में निषाद पार्टी को 72 सीटों पर 5.40 लाख वोट हासिल हुए थे. ऐसे में उपचुनाव के नतीजों के बाद एक बात साफ हो चली है कि 2019 का चुनाव बगैर निषाद पार्टी के नहीं लड़ा जाएगा.
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