10 राज्यों में चार लोकसभा और 11 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव के नतीजों से मिले रुझान जो कहानी कह रहे हैं, वह बीजेपी को चिंता में डालने के लिए काफी हैं. ये आंकड़े यह भी बताते हैं कि अगर कांग्रेस राष्ट्रीय मंच पर वापसी करना चाहती है तो उसे ऐसे राज्यों, क्षेत्रों व सीटों में इस बढ़त को बहुत तेजी से फैलाना होगा, जहां उसका सत्तारूढ़ दल से सीधा मुकाबला है या फिर वह प्रभावशाली स्थिति में है. अगर कांग्रेस के पास अपनी झोली में भरपूर संख्या में सीटें होंगी तभी वह अपनी बात मनवा पाने की हालत में होगी.
इसी तरह बीजेपी को हराने के लिए बड़ी क्षेत्रीय पार्टियों को सभी किस्म की अन्य विपक्षी पार्टियों से गठबंधन करना होगा. यहां तक कि बहुत छोटे दलों को भी, जिनका सीमित इलाके में कुछ सीटों पर ही प्रभाव है, उन्हें अति-महत्वाकांक्षा और ज्यादा उम्मीदवार उतारने से बचना होगा, क्योंकि बीजेपी-विरोधी वोटों का बंटवारा इन दलों की किस्मत को हमेशा के लिए ताले में बंद कर सकता है.
हिंदू ध्रुवीकरण के बाद जीती थी बीजेपी
उत्तर प्रदेश के कैराना का संदेश बहुत साफ है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उस इलाके में, जिसे जाटलैंड कहते हैं, वहां इस सीट को 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद 2014 में बीजेपी ने जीता था. उन दंगों ने इस क्षेत्र में जैसा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पैदा किया, वैसा पहले कभी नहीं हुआ था. इसी ध्रुवीकरण का नतीजा था कि हुकुम सिंह को 50 फीसद वोट मिले, जो अलग-अलग लड़े समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल को मिले कुल वोटों से भी ज्यादा थे. कांग्रेस ने यहां चुनाव नहीं लड़ा था.
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बीजेपी का दबदबा 2017 के विधानसभा चुनाव में भी बना रहा और इसने इस लोकसभा सीट के तहत आने वाली पांच में से चार विधानसभा सीटें जीतीं. उस इलाके में जहां मुस्लिम आबादी तकरीबन 35 फीसद है, बीजेपी के इतने अच्छे प्रदर्शन का मुख्य कारण हिंदू ध्रुवीकरण था, जो बीते साल विधानसभा चुनाव में भी बना रहा. नतीजों से जाहिर है कि बीजेपी को ना सिर्फ ओबीसी और सवर्ण जातियों का समर्थन मिला, बल्कि दलितों ने भी बड़ी संख्या में भगवा पार्टी को वोट दिया था.
रुझान बता रहे हैं कि इस एकजुट हिंदू वोट बैंक में तगड़ी चोट लगी है. पड़ोसी जिले बिजनौर में नूरपुर विधानसभा सीट पर भी बीजेपी से मोहभंग बताता है कि हिंदुत्व लहर ने इस बार काम नहीं किया और केंद्र और राज्य सरकार के वादे के बाद भी गन्ना मूल्य का भुगतान नहीं किए जाने से बीजेपी की सामाजिक नीतियों पर किसानों की नाराजगी भारी पड़ी.
संपूर्ण विपक्ष की एकजुटता बीजेपी के लिए चुनौती
जाहिर है कि पश्चिम उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के खिलाफ जाटों का बैर-भाव कम हुआ है और संयुक्त विपक्ष की तरफ से रणनीतिक चाल के तहत मुस्लिम प्रत्याशी तबस्सुम बेगम को खड़ा करना काम कर गया. साबित हो गया कि मुस्लिम बाहुल्य वाली सीटों पर बीजेपी की पूर्व की 'जवाबी ध्रुवीकरण' की रणनीति इस बार नाकाम रही. इसने सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील सीट पर हिंदुत्व कार्ड की सीमाओं को पूरी तरह उजागर कर दिया. इसके अलावा ध्यान देने की बात है कि यह ऐसी सीट थी, जिसे बीजेपी ने फूलपुर और गोरखपुर से भी ज्यादा गंभीरता से लड़ा था. यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मतदान से एक दिन पहले कानूनन चुनाव प्रचार का समय खत्म होने के बाद पड़ोस के बागपत में विवादास्पद तरीके से एक जनसभा को संबोधित किया. ईस्टर्न पेरिफेरल एक्सप्रेसवे के उद्घाटन के बाद उनकी रैली की काफी आलोचना हुई, क्योंकि उनका भाषण पूरी तरह राजनीतिक था.
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उत्तर प्रदेश में इस तरह अब एकदम साफ हो चुका है कि संपूर्ण विपक्ष की एकजुटता से बीजेपी को बड़ी चुनौती मिलने वाली है.
बिहार में भी मिला झटका
इसमें बिहार से आने वाले संकेत भी डरावने हैं, जहां बीजेपी की साझीदार नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) के प्रत्याशी को आरजेडी के हाथों हार का सामना करना पड़ा. यह इस साल मार्च में उपचुनाव के बाद बहुत जल्दी दोबारा मिली हार है. उत्तर प्रदेश और बिहार दोनों को मिलाकर कुल 120 लोकसभा सीटें हैं, जिसमें से बीजेपी और इसके सहयोगी दलों ने 104 सीटें जीती थीं, डरावनी तस्वीर पेश कर रहे हैं. किसी के लिए अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि बीजेपी क्या इन दोनों राज्यों में नुकसान की भरपाई उन राज्यों में कर सकेगी, जहां 2014 में उसका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा था.
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उपचुनाव के नतीजों का बिल्कुल साफ संदेश है कि बीजेपी उन सीटों पर जीत पा जाती है, जहां विपक्ष के वोट बंटते हैं. यह बात महाराष्ट्र में पालगढ़ (एसटी) लोकसभा सीट पर भी पूरी तरह सही साबित हुई जहां शिव सेना द्वारा भी उम्मीदवार उतार देने के बाद बीजेपी विरोध वोट बंट गए.
इसके अलावा झारखंड की गोमिया विधानसभा सीट पर बीजेपी और ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (एजेएसयू) ने एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ा, जबकि एजेएसयू नेशनल डेमोक्रेडिट एलायंस (एनडीए) का हिस्सा है. यह दिखाता है कि बीजेपी की अपने सहयोगियों के साथ भी पटरी नहीं खा रही है, और उनके साथ उसके रिश्ते ठीक नहीं है. बीजेपी के लिए उपचुनाव के नतीजे विपक्षी दलों के बीच बढ़ती एकता से पैदा होने वाले खतरे के चढ़ते सूचकांक की तरह हैं. इसी तरह विपक्षी दलों के लिए यह उस पुरानी कहावत की याद दिलाने वाला है- एकता में शक्ति है.
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