गोरखपुर और फूलपुर के चुनावी नतीजों ने योगी सरकार के एक साल पूरा होने के जश्न को फीका कर दिया. 19 मार्च को योगी सरकार का एक साल पूरा हो जाएगा. लेकिन उससे पहले ही दो वीआईपी सीटों पर हार का सामना करना पड़ गया. सीएम और डिप्टी सीएम की वजह से खाली हुईं सीटें पर उपचुनाव में हार हाथ लगी.
उपचुनाव में गोरखपुर की सीट पर योगी आदित्यनाथ लगातार 5 बार से सांसद थे. लेकिन उनके लखनऊ दरबार में बैठते ही गोरखपुर के मतदाताओं ने अचानक चौंका दिया. फूलपुर में भी दोबारा कमल का फूल नहीं खिल सका. फूलपुर की सीट पहली बार बीजेपी ने जीती थी. केशव प्रसाद मौर्य यहीं से चुनाव जीतकर डिप्टी सीएम बने. इसके बावजूद इलाके की जनता ने डिप्टी सीएम की विरासत को समाजवादी पार्टी को सौंपना बेहतर समझा. सवाल उठेगा कि आखिर चूक कहां हुई?
ये बीजेपी के लिए मंथन की बात है कि साल 2014 में यूपी में बीजेपी ने 73 सीटें जीती थीं तो साल 2017 के विधानसभा चुनाव में 325 सीटें जीतीं. इसके बावजूद सीएम और डिप्टी सीएम के प्रतिनिधित्व वाली सीटों पर हार का मुंह देखना पड़ा. बीजेपी के लिए उपचुनाव में मिल रही हार का सिलसिला घंटी बजाने के लिए काफी है क्योंकि इसका दायरा बढ़ता जा रहा है. मध्यप्रदेश और राजस्थान के बाद अब उत्तर प्रदेश भी उसमें शामिल हो गया.
विपक्ष को इस जीत के बाद ये उम्मीद जगी है कि सभी दल अगर मिल कर चुनाव लड़ें तो बीजेपी को हराया जा सकता है. लेकिन सिर्फ उपचुनावों के नतीजों से ही बीजेपी को कमजोर आंकना या ‘मोदी लहर’ का कम होना मानना जल्दबाजी होगा. उपचुनावों को मोदी-लहर से जोड़ कर कतई नहीं देखा जा सकता है. न तो पीएम मोदी ने यहां चुनाव प्रचार कर वोट मांगे और न ही बीजेपी अध्यक्ष ने यहां कोई रैली की. वैसे भी उपचुनावों में बाहर से कोई प्रचारक नहीं जाता है.
बीजेपी भले ही अपने राज्यों में अलग अलग वजहों से उपचुनावों में हार का मुंह देख रही है लेकिन त्रिपुरा जैसे राज्य में उसने सत्ताधारी पार्टी को उखाड़ने का हैरतअंगेज कारनामा भी दिखाया है. इसलिए उपचुनाव की हार से बीजेपी भले ही हैरान हो लेकिन हताश नहीं हो सकती है.
हाल में हुए उपचुनावों में सीटों के समीकरण और मौजूदा सियासी हालात को समझना जरूरी है. मध्यप्रदेश के उपचुनाव में बीजेपी उन्हीं सीटों पर हारी जहां कांग्रेस का प्रभाव था. इसके बावजूद बीजेपी ने हार में वोटों के अंतर को काफी कम किया जो कांग्रेस के लिए शुभ संकेत नहीं.
इसी तरह राजस्थान में बीजेपी सत्ताविरोधी माहौल की वजह से अपनी जीती हुई सीटें हारीं. राजस्थान की सियासत में हर पांच साल बाद बदलाव मतदाताओं की स्वाभाविक और पारंपरिक प्रतिक्रिया है.
इसी तरह यूपी के फूलपुर की सीट से मौर्या के हटने के बाद एसपी-बीएसपी गठबंधन को जातीय समीकरण भुनाने का भरपूर मौका मिला. वहीं अंदरूनी खबर ये भी है कि टिकट बंटवारे को लेकर अंतर्कलह ने बीजेपी के जीत के सफर को झटका दिया.
बीजेपी के लिए सोचने वाली बात ये है कि गोरखपुर में आखिर चूक कहां हुई? ऐसा भी नहीं कि योगी ने लखनऊ प्रवास के बाद गोरखपुर से नाता खत्म कर लिया? योगी ने गोरखपुर के लिए कई योजनाओं का ऐलान भी किया. ऐसे में कम वोटिंग और वोटिंग के बाद के नतीजों की पड़ताल जरूरी है क्योंकि सीएम के गढ़ में हार को कबूल कर पाना किसी भी पार्टी के लिए आसान नहीं हो सकता है.
उपचुनावों में मिली जीत से विपक्ष आत्मविश्वास से लबरेज है लेकिन उसे अतिआत्मविश्वास से बचना होगा. उपचुनावों के नतीजों को विपक्ष साल 2019 के लोकसभा चुनाव से जोड़कर देखने की गलती न करे. गोरखपुर और फूलपुर की जीत साल 2019 के लोकसभा चुनाव का खाका नहीं खींचती हैं. इस जीत को अगर विपक्ष सत्ता का सेमीफाइनल समझ कर जश्न मनाता है तो उसे फिर ये भी सोचना चाहिए कि जिस त्रिपुरा में बीजेपी ने लेफ्ट का लाल किला ढहाया वो क्या था?
साल 2003 में एनडीए ने 3 राज्यों में मिली जीत के बाद लोकसभा चुनाव जल्द कराने का फैसला किया. तीन राज्यों की भारी जीत से उसे भरोसा था कि जनता का यही मूड लोकसभा चुनाव में भी दिखेगा. लेकिन विधानसभा चुनाव के नतीजे लोकसभा चुनाव में एकदम उलट गए. एनडीए सत्ता में दोबारा वापसी नहीं कर सकी. यही वजह है कि गिनती की सीटों पर हुए उपचुनाव में मिली जीत से विपक्ष 543 सीटों वाली लोकसभा के चुनाव को लेकर कोई राय बनाने से पहले इतिहास जरूर याद रखे.
ये नतीजे बीजेपी को झकझोरने के लिए काफी हैं लेकिन हराने के लिए नहीं. नए सिरे से चुनावी रणनीति बनाने के लिए बीजेपी के पास एक साल का पूरा वक्त बाकी है. लेकिन सही मायनों में विपक्ष के पास अब वक्त कम बचा है. विपक्ष साल 2014 के लोकसभा चुनाव में सिर्फ ‘मोदी विरोध’ की राजनीति का परिणाम देख चुका है.
यूपीए के लिए चिंता की बात ये भी है कि जिन दलों के साथ वो गठबंधन कर विपक्षी एकता का दावा कर रही है वो दल चुनाव बाद किस करवट बैठेंगे? राजनीति में चुनाव पूर्व और चुनाव बाद गठबंधनों का विकल्प हमेशा खुला और बड़ा होता है. अवसरवादी राजनीति के दौर में जरूरी नहीं कि क्षेत्रीय दल चुनाव पूर्व ली गई गठबंधन की शपथ का निर्वाह करें.
साथ ही सवाल विपक्षी दलों की एकता पर असमंजस को लेकर है जो बीजेपी के खिलाफ मिलकर लड़ना ही तय नहीं कर पा रहे हैं. अगर सामूहिक एकता होती तो तीसरे फ्रंट की चर्चा नहीं होती. विपक्षी बिखराव ही दर्शा रहा है कि साल 2019 को लेकर वो कितना तैयार है.
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