यूपी विधानसभा चुनावों में बीजेपी की शानदार जीत में राजनीति का जो पैटर्न दिख रहा है. उससे मुसलमान और उनकी पॉलिटिक्स करने वाले लोगों को ये फिर से सोचना होगा कि उनकी राजनीति की दिशा क्या हो. अगर राजनीति का एक ही मकसद है जीत तो मुसलमानों के लिए रिवर्स पोलराइजेशन का तोड़ क्या हो सकता है?
ये सोचने वाली बात है कि देश के सबसे बड़े विधानसभा चुनाव में देश की सबसे बड़ी पार्टी एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं देती और 312 सीटें झटक लेती है. 403 सीटों पर सिर्फ 25 मुस्लिम उम्मीदवार जीतकर आए हैं. इसमें सपा और कांग्रेस गठबंधन के 19 और बीएसपी के 6 उम्मीदवार हैं. 2012 में 67 मुस्लिम उम्मीदवार चुनकर आए थे जबकि 2007 में चुने गए मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या 56 थी.
पॉलिटिकल पंडितों ने बड़ा सस्ता सा गणित लगाया है कि बीजेपी को रिवर्स पोलराइजेशन का फायदा मिला है. सवाल है कि अगर ये फायदा इस स्तर का रहा तो राजनीति में मुसलमान कहां रह जाएंगे. बीजेपी के ऐसा मान लेने के बाद भी कि उसे मुसलमान वोटों की परवाह नहीं, ऐसी शानदार जीत का रास्ता बनता रहा तो राजनीति में मुस्लिम नुमाइंदगी का क्या होगा?
इसी सवाल से जुड़ता हुआ एक सवाल ये भी है कि बीजेपी के कुछ गिने चुने मुस्लिम चेहरों के अलावा आपको कोई एक चेहरा याद आता है, जो पिछले 10 वर्षों में राजनीति में उभरा हो? ये खतरनाक संकेत है. मुसलमानों की राजनीति करने वालों से ज्यादा एक समुदाय के तौर पर मुस्लिम लोगों के लिए.
यूपी चुनाव के नतीजों ने दो चीजें स्पष्ट कर दी है. पहली बीजेपी की इस बेमिसाल जीत के बावजूद मुसलमानों ने बीजेपी और मोदी को वोट नहीं किया. दूसरी बीजेपी की जीत को रोकने के लिए मुसलमान के नाम पर राजनीति करने वालों से ये समुदाय कंफ्यूज हो गया, इसलिए उनके वोटों में जबरदस्त बंटवारा हुआ.
याद कीजिए विधानसभा चुनावों के एलान के साथ ही बीएसपी ने अपने उम्मीदवारों की मुसलमान और दलित ब्यौरावार सूची जारी कर दी थी. मायावती अपनी पहली रैली से लेकर आखिरी रैली तक मुसलमानों को बीएसपी के लिए एकजुट होकर वोट करने की अपील करती रही. लेकिन अपनी किसी भी रैली, जनसभा या बयान में वो मुस्लिम समुदाय के भीतर भरोसा जगाने में नाकाम रही.
आखिरी वक्त पर बनी राहुल-अखिलेश की जोड़ी ने रैलियों, रोड शो और जनसभाओं की भरमार कर दी. लेकिन इस साथ पर मुसलमानों का यकीन आधा ही रहा. एक बात साफ हो गई कि मुसलमान एक नेता के तौर पर जितना भरोसा मुलायम सिंह यादव पर करते थे, उतना उन्होंने अखिलेश यादव पर नहीं किया. राहुल का उनके साथ आना भी मुसलमानों में इतनी उम्मीद नहीं जगा पाया कि वो एकजुट होकर उन्हें वोट करें.
कुल मिलाकर मुस्लिम समुदाय कंफ्यूजन का शिकार ही रहा कि वो बीजेपी से डराने वाले एसपी का दामन थामे या बीएसपी का. इसका नतीजा वोटों के बंटवारे के तौर पर दिखता है. मुस्लिमों वोटों को एकजुट करने में जैसी कामयाबी नीतीश कुमार ने पाई या फिर लालू यादव या ममता बनर्जी जैसे नेताओं ने उन्हें भरोसा दिलाने में सफल रहे. वैसा यकीन न मायावती दिला पाई न राहुल अखिलेश की जोड़ी.
हफिंगटन पोस्ट ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है कि कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में कहा जा रहा है कि बीजेपी की इस शानदार जीत में मुसलमानों की भी कुछ हिस्सेदारी है. लेकिन आंकड़ें इससे बिल्कुल अलग हैं. एक भी विधानसभा क्षेत्र ऐसा नहीं है, जहां बीजेपी का वोट शेयर वहां की हिंदू आबादी से ज्यादा हुई हो. इसका सीधा मतलब निकाला जा सकता है कि वोटों की गड्डी में बीजेपी को मुसलमानों ने छुट्टे तक नहीं दिए.
आंकड़ों से पता चलता है कि साहिबाबाद इकलौता विधानसभा क्षेत्र है, जहां के बीजेपी उम्मीदवार सुनील कुमार शर्मा को 61 फीसदी वोट हासिल हुए, जबकि इस इलाके में हिंदुओं के वोट शेयर 60 से लेकर 65 फीसदी हैं. माना जा सकता है कि उन्हें मुसलमानों के कुछेक वोट हासिल हुए हों. इस इलाके में 35 से 40 फीसदी मुसलमान हैं.
यूपी में मुसलमानों की अच्छी खासी आबादी के बावजूद बीजेपी ने शानदार जीत हासिल की. लेकिन इस जीत में मुसलमानों की हिस्सेदारी बताना बेकार की बात है. यूपी में 19 फीसदी से कुछ ज्यादा मुसलमान हैं. लेकिन सिर्फ 7 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां पर इनका वोट शेयर 50 फीसदी से ज्यादा है. इन सारी सीटों पर समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को जीत हासिल हुई है. लेकिन यही गणित बाकी विधानसभा क्षेत्रों में नहीं चला.
जहां पर भी मुसलमानों के वोट शेयर 45 फीसदी से कम रहे हैं वहां बीजेपी को रिवर्स पोलराइजेशन का फायदा मिला है.
मोटे तौर पर जीत के लिए किसी भी उम्मीदवार को 30 से 35 फीसदी तक वोट की जरूरत पड़ती है. इस बार बीजेपी उम्मीदवारों को 43 से 64 फीसदी तक वोट हासिल हुए हैं. और इसकी वजह है कि बीजेपी ने मुसलमानों के साथ किसी दूसरी हिंदू जातियों की गोलबंदी करने से रोक दिया.
यूपी में 82 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां पर मुसलमानों के वोट शेयर 30 फीसदी से ज्यादा हैं. यहां की 62 सीटों पर बीजेपी उम्मीदवारों ने जीत हासिल की. ऐसी सीटों जहां पर सपा-कांग्रेस गठबंधन और बीएसपी ने मुस्लिम उम्मीदवार उतारे, वहां मुस्लिम वोट दोनों पार्टियों के बीच बंट गए.
ऐसी 42 विधानसभा क्षेत्रों पर जहां पर मुसलमानों के वोट शेयर कुल मतदाताओं के एक तिहाई के करीब थे वहां की 31 सीटों पर बीजेपी ने जीत हासिल की. यानी यहां करीब बीजेपी को 74 फीसदी वोट हासिल हुए. 2012 में यहां से सिर्फ 8 सीटें मिली थी. जबकि 2007 में सिर्फ पांच सीट हासिल कर पाई थी.
2014 के लोकसभा चुनावों में इसी गणित ने मुसलमानों की नुमाइंदगी पर चोट की थी. 80 सीटों में से बीजेपी ने 73 सीटें झटक ली थीं. यूपी की 19 फीसदी की आबादी अपना एक भी सांसद चुनकर दिल्ली नहीं भेज पाई.
मुसलमानों ने कहीं छिटक कर, कहीं बिदक कर, कहीं बिखर कर वोट किया. इसका पूरा फायदा बीजेपी को मिला. यूपी की बीजेपी सरकार में एक भी मुस्लिम चेहरा नहीं होगा. एक समुदाय के लिए बेहद तकलीफदेह बात है.
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