उत्तर प्रदेश 2017 विधानसभा चुनाव के नतीजे आ गए हैं. जिसमें बीजेपी को बड़ी जीत मिली है. इस जीत की कई व्याख्याएं हो सकती हैं. इसमें एक व्याख्या जो बहुत जरूरी लग रही है. वह यह देखना यूपी में भविष्य सबऑल्ट्रन पोलिटिक्स किस दिशा में जाएगी.
सबऑल्ट्रन शब्द में दलित, अति पिछड़ी जातियां तथा अन्य पिछड़ी जातियों का वो वर्ग जो अपने ज्यादा प्रभावित तबको की तुलना में उपेक्षित महसूस करता है.
उत्तर प्रदेश में मंडल आयोग के बाद राजनीति में बड़ा परिवर्तन हुआ है. पहले पिछड़े की राजनीति विकसित हुई फिर दलितों की राजनीति विकसित हुई. ये दोनों ही राजनीति असमिता की राजनीति से प्रभावित थी.
दलितों का तबका खुद को उपेक्षित समझने लगा
आरक्षण का मुद्दा इस चुनाव में मुख्य तत्व था. इस प्रक्रिया में इन समुदायों में एक प्रभावी तबका विकसित होता गया. विकास से एवं जनतांत्रिक संसाधन का वितरण नीचे तक नहीं हो पाया है. जिसके कारण इन समूहों में भी आसमान सामाजिक स्तर बन गया.
धीरे धीरे उपेक्षित समूहों में भी आकाक्षाएं बढ़ने लगीं. क्योंकि जनतंत्र की राजनीति की खूबी ही है कि वह धीरे-धीरे कर सभी में आकांक्षाओं का निर्माण करता है.
इस प्रक्रिया के कारण दलितों में एक बड़ा तबका खुद को उपेक्षित महसूस करने लगा. उत्तर प्रदेश में लगभग 65 जातियां दलित समूहों में आती हैं. 5-6 दलित जातियों को ही राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिल पाया है. ऐसे में छूटे हुए समूहों में बीजेपी एवं आरएसएस पिछले तीस सालों से काम करती रही है.
उनके नायकों की तालाश उनकी स्मृतियों का हिंदुत्व के परिपेक्ष में विश्लेषण उनके बीच स्कूल स्थापित करना तथा समरसता भोज कार्यक्रम चलाना इन सारे माध्यमों से दलितों एवं पिछड़ों के बीच जगह बनाती रही है.
अनेक तरह के समाज सुधार के काम आरएसएस और बीजेपी ने दलितों के बीच चलाए हैं. 2014 में बीजेपी जब प्रभावी पार्टी के रूप में उभरी तो उसने इन समूहों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने की जरूरत को महसूस किया.
परिणामस्वरूप इनमें से कुछ समूहों को पार्टी संगठन में पद देना साथ ही सुहल देव भारतीय समाज पार्टी जैसे सबऑल्ट्रन जाति संगठन के साथ चुनावी तालमेल करना तथा अतिपिछड़ी जातियों के अनेक उम्मीदवारों को चुनाव में टिकट देकर इन समूहों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश की.
आरएसएस में बढ़ा है आंबेडकर प्रेम
बीजेपी ने एक तरफ सुहल देव जैसे मध्यकाल के दलित नायक खोजे और उनकी स्मृति को सेलिब्रेट किया. साथ ही आंबेडकर जैसे आधुनिक दलित आयकोन को भी अपने पॉलिटिकल विमर्ष से जोड़ा.
आंबेडकर मेमोरियल की स्थापना और लगभग हर आरएसएस कार्यालय में आंबेडकर का फोटो होना और आंबेडकर के नाम से अनेक कार्यक्रम मोदी सरकार ने चलाए. जिसका सीधा-सीधा फायदा बीजेपी को इन चुनावों में हुआ.
ऐसे में दलित एवं अतिपिछड़ी जातियों के तबके ने इस चुनाव में बीजेपी को अपना राजनीतिक विकल्प चुना. उनके मन में शायद यह आस है कि जो आकांक्षाएं मंडल आयोग के बाद बहुजन राजनीति से पूरी नहीं हो पाई, हो सकता है हिंदुत्व राजनीति से पूरी हों.
इस क्रम में शायद मोदी की इमेज के प्रति आकर्षण दलितों एवं पिछड़ों में बढ़ता जा रहा है.
बीजेपी ने मौर्य, शाक्य, लोध, निशाद, गोंड़, भड़भूंजा जैसी जातियों को भी राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिया. केशव प्रसाद मौर्य को यूपी बीजेपी का अध्यक्ष बनाया स्वामी प्रसाद मौर्य को पार्टी में लिया.
कल्याण सिंह, उमा भारती, विनय कटियार जैसे नेताओं को इसी सोशल इंजीनियरिंग के तहत बीजेपी में महत्व मिला. इससे जाहिर होता है कि अब भविष्य में दलितों एवं पिछड़ों के बीच यूपी की राजनीति में हिंदुत्व राजनीति का दखल बढ़ेगा. मायावती और 90 के दशक के लीडर्स को इनसे कड़ा मुकाबला करना पड़ेगा.
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