दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का कहना है कि राहुल गांधी को परिपक्व होने में अभी वक्त लगेगा लेकिन और कितना वक्त? ज्यादातर कांग्रेस सदस्य यही सवाल पूछ रहे होंगे.
टाइम्स ऑफ इंडिया को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि 'कृपया इसे याद रखिए राहुल अभी अपरिपक्व हैं. उनकी उम्र उन्हें परिपक्व बनने की इजाजत नहीं देती. उनकी उम्र ही कितनी है. वो महज 45 साल के हैं. कृपया उन्हें थोड़ा वक्त दीजिए…'
शीला दीक्षित ने एक सवाल का जवाब दिया था. जवाब जिस तरह से दिया उससे साफ है कि कांग्रेस जल्दी में नहीं है. पार्टी अपने उपाध्यक्ष के परिपक्व होने का इंतजार लंबे समय तक कर सकती है.
लेकिन एक ही समस्या है, जब तक वो परिपक्व होंगे तब तक कहीं पार्टी ही न बिखर जाए. राहुल गांधी 45 वर्ष के हो चुके हैं. उम्र के इस पड़ाव तक ज्यादातर पेशेवर अपने क्षेत्र में नीचे से ऊपर तक अलग-अलग पदों पर खुद को साबित कर चुके होते हैं और नेतृत्व की भूमिका निभाने लगते हैं.
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जैसा कि, महाराष्ट्र नगरपालिका चुनाव के नतीजों से साफ है कि कांग्रेस एक और राज्य में बीमारी की हालत में है. पार्टी की सेहत सुधरने के आसार कम ही दिख रहे हैं.
क्योंकि इतिहास बताता है कि देश के किसी भी हिस्से में सत्ता की बाजी गंवाने के बाद कांग्रेस की वापसी का रिकॉर्ड काफी खराब रहा है. कांग्रेस वाकई बीमार है क्योंकि लोकसभा में पार्टी के महज 44 सांसद हैं.
कांग्रेस का वोट शेयर
देश भर में पार्टी का वोट शेयर 19 फीसदी है. जबकि सियासी तौर पर महत्वपूर्ण राज्यों में से किसी भी राज्य में पार्टी सत्ता में नहीं है. बिहार, पश्चिम-बंगाल और उत्तर-प्रदेश जैसे राज्यों में पार्टी क्षेत्रीय ताकतों के मुकाबले दूसरे दर्जे की हैसियत में है.
हालांकि, पार्टी का पतन हाल की घटना नहीं है. 1990 में जब देश की राजनीति मंडल और मस्जिद जैसे मुद्दों से दोबारा परिभाषित हो रही थी तब से पार्टी के प्रदर्शन का ग्राफ नीचे जाने लगा था.
इस दौरान जो घटनाएं हुईं उसने कांग्रेस की कीमत पर क्षेत्रीय ताकतों को पनपने का मौका दिया. इसी दौर से बीजेपी धीरे-धीरे सत्ता की ओर कदम बढ़ाने लगी थी.
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भविष्य के संकेतों को समझने में कांग्रेस धीमी पड़ गई. साथ ही कांग्रेस ने पार्टी के लचर प्रदर्शन को लेकर वक्त रहते सुधार के कदम भी नहीं उठाए. यहां तक की उम्मीद की जा रही थी कि 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी शिकस्त के बाद पार्टी गंभीरता से डैमेज कंट्रोल में जुटेगी.
अब जबकि एक के बाद एक राज्यों में कांग्रेस की सियासी जमीन कम होती जा रही है, बावजूद इसके पार्टी को वापस पटरी पर लाने की कोशिशें होती नहीं दिख रहीं. आखिर पार्टी किसका इंतजार कर रही है?
कांग्रेस पार्टी में निचले स्तर तक संगठन का ढांचा करीब-करीब धराशायी हो चुका है. इसके अलावा पार्टी में कई धड़ा है. जबकि, जनता से सीधे जुड़ने की क्षमता किसी नेता में नहीं है.
जनता से जब किसी सियासी दल का जुड़ाव कम होता जाता है तो ऐसी पार्टी का रसातल में जाना तय होता है. यहां तक कि पार्टी के ऊपरी स्तर पर भी कई नेता हैं जिनकी उपयोगिता न के बराबर है लेकिन पार्टी के लिए वो परेशानी का सबब जरूर हैं.
राहुल की ताजपोशी
क्या आपने कभी ये सोचा है कि पार्टी अब तक यह क्यों नहीं सोच पा रही है कि राहुल गांधी को कब उपाध्यक्ष से अध्यक्ष की कुर्सी पर बिठाया जाना चाहिए? वो अपरिपक्व हैं यह वजह नहीं हो सकती है. राहुल मौजूदा पद पर रहते हुए भी सभी निर्णय ले रहे हैं.
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इसके बावजूद राहुल को पार्टी का पूरा कमान संभालने को नहीं दिया जा रहा है. जबकि, कांग्रेस के लिए वो एक निर्विवाद सत्य की तरह हैं. पार्टी को उनके साथ ही आगे बढ़ना है या फिर डूबना है.
कहते हैं कि कांग्रेस के कुछ बुजुर्ग नेता जो सोनिया गांधी के करीबी हैं, वही राहुल गांधी के अध्यक्ष पद संभालने की राह में रोड़ा पैदा कर रहे हैं. कुछ लोगों का कहना है कि जब वो अपनी नेतृत्व क्षमता का सबूत देंगे तभी उनके सिर पार्टी का ताज सजेगा.
आखिर वे कब तक इंतजार करेंगे? क्योंकि पार्टी की जमीनी हालत को देखते हुए तुक्के के बल पर ही किसी राज्य में पार्टी की जीत मुमकिन है. लेकिन, जब तक राहुल परिपक्व होंगे तब तक कांग्रेस की वजह से जो सियासी जगह खाली होगी उसे कोई दूसरी राजनीतिक पार्टी हथिया लेगी.
दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी ऐसा पहले ही कर चुकी है और जल्द ही ऐसा विस्तार दूसरे राज्यों में भी देखने को मिल सकता है.
सच्चाई यही है कि सियासत में बीजेपी काफी सधे कदमों से आगे बढ़ रही है लेकिन कांग्रेस में ऐसी कोई बात नही है. कांग्रेस ख्याली दुनिया में खोई हुई है.
क्या कोई है जो कांग्रेस पार्टी को यह बात याद दिलाएगा?
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