शुरू से ही कहा जा रहा था कि पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में जिसने बढ़त बना ली, लखनऊ उसका होगा. कई मायनों में ये बड़ी दिलचस्प सोच है. आइए दूसरे चरण के कुछ पोलिंग बूथ पर किए गए मुआयने से इस मिजाज को समझते हैं.
यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि एक सवाल जो मतदान के सातों चरणों में शाश्वत रहेगा वह यह कि मुस्लिम वोट की खींच-तान में एसपी, बीएसपी या ओवैसी जैसी ताकतें, कामयाब हो पाएंगी या नहीं. और इसका कितना फायदा या नुकसान बीजेपी को होगा?
कहते हैं कि चुनाव में आखिरी 24 घंटों का बड़ा महत्त्व होता है. महीनों या सालों पहले से जो मेहनत की जा रही होती है वो इन्हीं चौबीस घंटों में फसल बनकर लहलहाती है.
एक साहब ने बहुत खूब कहा कि मतदाता और उम्मीदवार का रिश्ता ऐसा होता है जैसे आप छोकरी को शादी के लिए पटा रहे हों. 'छोकरी की आंखों में अपने लिए एक सहमति का इशारा देखने की उत्तेजना में आप कोई भी वादा कर सकते हैं.'
परंपरागत वोटिंग की नुमाइश
बिजनौर पहुंच कर यह आभास हुआ कि इस बार चुनाव में सांप्रदायिकता का रंग, कोशिश के बावजूद, चढ़ता हुआ दिखाई नहीं दिया. ऐसा इसलिए की पिछले साल सितम्बर में हुई तीन हत्याएं और अभी कुछ दिन पहले हुई एक हत्या के बाद जिले में इसके अासार बहुत बढ़ गए थे.
मतदान केंद्रों पर शांति-प्रियता का माहौल दिखा. कहीं फूल ही फूल खिले थे तो कहीं हाथी ही हाथी खड़े हुए थे. हर तरफ परंपरागत वोटिंग की नुमाइश थी.
सबकी जबान पर प्रतिशत रटे हुए थे, इतने जाटव, इतने सैनी, इतने मुस्लिम. बसपा ने 6 और सपा ने चार मुस्लिम उम्मीदवारों पर दांव खेला है.
जाहिर है मुस्लिम मतदाताओं की संख्या यहां बहुत है. यह बंट जाएगा इसलिए सब बीजेपी को जीतता हुआ देख रहे हैं. पिछली बार यहां से चार विधायक बीएसपी और दो विधायक एसपी के थे. चांदपुर हो या धामपुर हर तरफ यही आंकड़े बिखरे पड़े हैं.
अमरोहा में भी कमोबेश यही हाल है. यहां एसपी के मंत्री महबूब अली के लिए गुस्सा दिखाई दे रहा है. राष्ट्रीय लोकदल ने सलीम खान पर इस जिले में दांव खेला है.
एक दुकान पर जाटव मुस्लिम और जाट को एक साथ और एक सुर में बोलते देखकर अच्छा लगा. मुझे किसी नेता का ये बयान बरबस याद आ गया 'मुज़फ्फरनगर के दंगों ने मुस्लिम और जाट के बीच सदियों के लिए खाई बना दी है.' ये लोग हिंदुस्तान को समझते नहीं हैं शायद.
होना तो शायद कुछ और चाहिए था लेकिन जो कुछ होता दिखाई दे रहा है, वो ये कि इस बार मतदाताओं को घेरने में सबने बहुत सोच समझ के साथ काम लिया है. अब अमरोहा के नौगावां-सादात विधानसभा को ही देख लीजिए.
यहां से बीजेपी के चेतन चौहान हैं और टक्कर फूल और साइकिल में है. लेकिन बीएसपी ने एक जाट उम्मीदवार को आगे करके जाट-दलित समीकरण का नया खेल यहां खेलने की कोशिश की है.
एसपी के पारंपरिक वोट में जोश
संभल में मुस्लिम-यादव समीकरण के बीच जो जोश दिखाई दिया वो इशारा करता है कि एसपी के पारंपरिक वोट-बैंक में उत्साह है. जहां-जहां भी इसकी ताकत है वहां इससे टक्कर लेना बीजेपी और बीएसपी दोनों के लिए नामुमकिन सी बात लगती है.
संभल में वोटिंग का जो उत्साह देखा वो 15-16 क्षेत्रों (जहां हम गए) में कहीं भी दिखाई नहीं दिया. एक बूथ पर पतंग (ओवैसी की एआईएमआईएम) के समर्थकों द्वारा झगड़ा करने की वजह से 30-40 पुलिस फोर्स ने हमारे सामने भीड़ को तितर-बितर किया.
लोगों में (जो ज्यादातर मुस्लिम थे) पतंग के लिए गुस्सा साफ देखा जा सकता था. ऐसा लगा जैसे पूरा संभल वोट करने के लिए निकल आया हो.
सहारनपुर में भी हालात यही है. देवबंद के मशहूर शायर नवाज़ देवबंदी का यह ख्याल है कि पिछली दो बार से देवबंद ने मायावती का साथ दिया. लेकिन इस बार जबकि बीएसपी ने एक मुस्लिम उम्मीदवार को यहां से खड़ा किया है, फिर भी देवबंद अखिलेश का होने जा रहा है. जहां दो मुसलमान आमने-सामने हों वहां बेहतर कौन? की बात आ ही जाती है.
'लहर' का अभाव
पिछले तीन जिलों की तरह यहां भी किसी पार्टी या किसी नाम के प्रति ‘लहर’ जैसी चीज का अभाव दीखता है. नगर की सीट पर एसपी और बीजेपी, देहात में बीएसपी और कांग्रेस, मनिहरण में बीएसपी और कांग्रेस, नकुर में बीजेपी और कांग्रेस के बीच मुकाबला है.
ये सभी ने माना कि इन इलाकों में, चुनाव को लेकर, कहीं कोई ‘लहर’ नाम की चीज नहीं है. जाति-धर्म के आंकड़े ही यहां, जीत और हार के संकेत हैं.
बीजेपी, जिसे 2014 के चुनाव में लगभग 42% वोट मिले थे, ने घमंड न करते हुए इन चुनावों में सूझ-बूझ का परिचय दिया है. वो अपने पारंपरिक वोट-बैंक के अलावा नान-जाटव दलित और नान-यादव ओबीसी को, अपने खेमे में, लाने में सफल होती दिखती है.
दो-तीन प्रतिशत वाले समूहों, जैसे प्रजापति, राजभर, या फिर कुर्मी और सैनी जैसी जातियों से विधानसभाओं में बड़े परिवर्तन की आशा करना उसकी समझदारी का सुबूत है. इसके परिणाम उत्तर-प्रदेश में उसकी दावेदारी को मजबूत करेंगे.
इन इलाकों में, राष्ट्रीय लोकदल की बहाली सुखद है. मुस्लिम-जाट समीकरण कहीं-कहीं तो बहुत दोस्ताना हैं. बीजेपी से जाटों की नाराज़गी बहुत तीव्र है और बीजेपी भी इसे मान लेने में कोई गलती करती हुई नहीं दिखती.
पिछले कुछ अरसे में यहां ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं जिनसे सांप्रदायिक माहौल बिगड़ जाने चाहिए थे, मगर ऐसा कहीं भी नहीं दिखता. मुस्लिम बीएसपी और एसपी के बीच फंसे हुए हैं तो हिंदू-वोट बीजेपी को मजबूत कर रहा है.
कुल मिलाकर तस्वीर त्रिशंकु विधान-सभा की उभर रही है. बातचीत में, इसकी चिंता हर समुदाय के लोगों को है, लेकिन समीकरण ऐसे बन गए हैं कि इससे उबर पाना मुश्किल लगता है.
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