लोकसभा उप-चुनाव की तीन सीटों पर बीजेपी की हार नेशनल हेडलाइन है और होनी भी चाहिए. उत्तर प्रदेश की गोरखपुर सीट बीजेपी ने लगभग तीन दशक बाद गंवाई है. फूलपुर की जिस सीट पर उसे करारी शिकस्त मिली है, वहां 2014 में बीजेपी ने तीन लाख से ज्यादा वोट से जीत हासिल की थी. गोरखपुर सीट से योगी आदित्य नाथ लगातार जीतते आए थे जबकि फूलपुर केशव प्रसाद मौर्य के उप-मुख्यमंत्री बनने के बाद खाली हुई थी.
बिहार की अररिया सीट बीजेपी और जेडीयू के गठबंधन के बावजूद आरजेडी फिर से जीतने में कामयाब रही. इसके पहले पंजाब, मध्य प्रदेश और राजस्थान में हुए उप चुनावों में बीजेपी को सीटें गंवानी पड़ी थीं. बहुत से लोग ताजा नतीजों को सीधे-सीधे 2019 के एक ट्रेंड के तौर पर देख रहे हैं. मीडिया में इस बात को लेकर बहस शुरू हो गई है कि कहीं यह उस करिश्मे का उतार तो नहीं है, जो 2014 में दिखा था.
यूपी और बिहार के उप-चुनावों से प्रधानमंत्री मोदी सीधे तौर पर कोई भूमिका नहीं निभा रहे थे. यूपी में मामला पूरी तरह से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के हवाले था. उसी तरह गठबंधन नेता होने के नाते बिहार चुनाव की जिम्मेदारी एक तरह से नीतीश कुमार और बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पर थी.
फिर इन नतीजों को प्रधानमंत्री की लोकप्रियता से जोड़कर देखे जाने का क्या मतलब? इसका जवाब पिछले चार साल में नरेंद्र मोदी की कार्यशैली में छिपा हुआ है. मोदी की पहचान एक ऐसे नेता रूप में बनी है, जो चुनावी लड़ाई का नेतृत्व खुद करने में यकीन रखते हैं. छोटे-छोटे राज्यों के चुनावों में भी मोदी ने अपनी पूरी ताकत झोंकी है. इसका नतीजा यह है कि आज 21 राज्यों में बीजेपी की सरकार है. असम और त्रिपुरा समेत पूर्वोत्तर के ज्यादातर राज्यों में भगवा लहरा रहा है.
मोदी की अजेय इमेज
जिन चुनावों में मोदी सीधे कोई भूमिका नहीं निभा रहे हों, वो चुनाव भी बीजेपी उन्ही के नाम पर लड़ती और जीतती रही है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण पिछले साल दिल्ली में हुए स्थानीय निकाय के चुनाव थे. दिल्ली की तीनों निकायों पर पहले से बीजेपी का कब्जा था. सफाई कर्मचारियों की हड़ताल चल रही थी, लोगों में गुस्सा था. इसके बावजूद बीजेपी ने प्रधानमंत्री मोदी का नाम भुनाया और बड़े आराम से चुनाव जीत गई. इसी तरह की बातों से ही मोदी की इमेज एक अजेय नेता के रूप में बनी है. लगातार विधानसभा चुनावों में जीत ने इस छवि को और मजबूत किया और साथ-साथ पार्टी नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं तक में एक किस्म का अहंकार भरा है.
इसी अहंकार की मिसाल त्रिपुरा में देखने को मिली थी, जब चुनावी नतीजे आते ही कार्यकर्ताओं ने तोड़-फोड़ शुरू कर दी और लेनिन की मूर्ति को गिरा दिया गया. संसदीय लोकतंत्र में किसी भी विरोधी विचारधारा के लिए इस कदर नफरत की तारीफ नहीं की जा सकती है. ऐसी ही नफरत एसपी और बीएसपी के बीच यूपी में तालमेल की खबर आने के बाद देखने को मिली. बीजेपी के कई बड़े नेताओं ने इसे `सांप-छूछंदर का गठबंधन’ और `अपवित्र समझौता’ करार दिया. अब चुनाव नतीजे आने के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने माना है कि बीजेपी को अति आत्मविश्वास का नुकसान उठाना पड़ा है.
हर चुनावी निजी प्रतिष्ठा का सवाल क्यों?
प्रधानमंत्री मोदी इस समय अपनी लोकप्रियता की उन ऊंचाइयों पर है, जहां तक उनसे पहले बहुत कम नेता पहुंच पाए हैं. पूर्ण बहुमत वाली सरकार है. पार्टी का विस्तार लगातार हो रहा है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि अगर बीजेपी कुछ चुनावों हार भी गई तो फर्क क्या पड़ेगा? बीजेपी यह भूल जाती है कि इंदिरा गांधी जैसी लोकप्रिय नेता को भी हर विधानसभा चुनाव में कामयाबी नहीं मिलती थी. जवाहरलाल नेहरू जैसे प्रधानमंत्री की पार्टी भी उनकी अपार लोकप्रियता के बावजूद बहुत सी संसदीय सीटों पर हारती थी. चुनाव को निजी प्रतिष्ठा की लड़ाई में बदलने का नुकसान यह है कि कई बार छोटा झटका भी बड़ा बन जाता है. प्रचार जरूरत से ज्यादा होगा तो नाकामी का प्रचार भी उसी अनुपात में होगा.
लेकिन शाह और मोदी की जोड़ी शायद इस खतरे से बेपरवाह है. यह जोड़ी जोखिम उठाना जानती है. दिल्ली विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री के धुआंधार प्रचार के बावजूद पार्टी को सत्तर में सिर्फ तीन सीटें मिली थीं. यही हाल 2015 के बिहार के चुनाव में हुआ था, जहां मोदी की 50 से ज्यादा रैलियों के बावजूद एनडीए औंधे मुंह गिरा था. लेकिन मोदी-शाह सहवाग और सचिन की वनडे जोड़ी की तरह हैं. अपना नेचुरल गेम नहीं छोड़ सकते और इसी नेचुरल गेम ने कुछ नाकामियों के बीच उन्हे लगातार कामयाबी भी दिलाई है. लेकिन सवाल यह है कि लोकसभा चुनाव से ठीक पहले के आखिरी साल में भी यही रणनीति चलेगी या फिर बीजेपी को इसपर पुनर्विचार करना होगा.
कांग्रेस मुक्त बनाम बीजेपी युक्त भारत
2014 में बीजेपी ने कांग्रेस मुक्त भारत नारा दिया था. करप्शन के ढेरों इल्जाम की वजह से यूपीए सरकार को लेकर लोगो में काफी नाराजगी थी, इसलिए यह नारा काम कर गया. केंद्र में नई सरकार बन गई लेकिन कांग्रेस मुक्त भारत का नारा खत्म नहीं हुआ बल्कि लगातार गूंजता रहा. बीजेपी का हर नेता अब भी इसे एक संकल्प की तरह दोहराता है. यह आक्रमकता बीजेपी के कट्टर समर्थकों का दिल तो जीत सकती है लेकिन 2019 में इसका बहुत बड़े मतदाता समूह पर असर होगा, यह मानना तार्किक नहीं लगता है.
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गुजरात में यह नारा लगभग पिट गया और बीजेपी लगभग हारते-हारते बची. वोटर के मन में भी यह सवाल उठेगा कि भ्रष्टाचार के मामले में कोर्ट के दोषी पाये गये सुखराम जैसे पुराने कांग्रेसियों की दनादन बीजेपी में एंट्री हो रही है, तो फिर कांग्रेस मुक्त भारत का क्या मतलब? अपनी उपलब्धियों की बात करने के बदले सत्ता पक्ष एक ऐसे विरोधी दल की बात लगातार क्यों कर रहा है, जिसे संसद में मुख्य विपक्षी दल तक का दर्जा हासिल नहीं है?
बहुत से लोगों के लिए यह समझ पाना भी कठिन है कि प्रचंड राजनीतिक ताकत रखने के बावजूद बीजेपी सत्ता के छोटे-छोटे खेल में क्यों पड़ रही है. गोवा और मेघालय जैसे राज्यों में बहुमत ना होने के बावजूद जिस तरह जोड़-तोड़ से सरकार बनाई गई, वह अगर ना किया गया होता, तो कौन सा नुकसान हो जाता? प्रधानमंत्री मोदी को अपने वोटरों की इन जायज चिंताओं को समझना होगा.
मनमोहन सिंह की इमेज एक सॉफ्ट प्रधानमंत्री की थी. उनके मुकाबले मोदी एक ताकतवर नेता की इमेज लेकर आए, जिसपर लोगों ने मुहर लगाई.
इस इमेज का जादू अब भी बरकरार है. लेकिन यह भी सच है कि एक ही तरह शब्दावली वक्त के साथ बासी पड़ सकती है. पिछले चार साल में बीजेपी ने जो हासिल किया है, उससे ज्यादा किसी भी राजनीतिक दल के लिए संभव नहीं है. ऐसे में अगर कुछ नतीजे उनके खिलाफ जाते हैं तो उसे एक नेचुरल करेक्शन माना जाना चाहिए, ठीक उसी तरह जैसे शेयर बाजार अगर बहुत ज्यादा बढ़ जाए तो वहां भी कीमतें गिरती हैं.
आनेवाले विधानसभा चुनावों में ऐसा प्रतिकूल परिणाम आते हैं तो बीजेपी को उसे स्वीकार करना होगा. आज का भारत पूरी तरह बीजेपी युक्त है, ऐसे में कांग्रेस मुक्ति के नारे का कोई अर्थ नहीं है. बेहतर होगा अगर सरकार अपने आखिरी साल में ध्यान उन योजनाओं को पूरा करने में लगाए जिनकी घोषणा 2014 की ऐतिहासिक जीत के बाद हुई थी. 2019 में वोटर मोदी सरकार का आकलन उसके काम के आधार पर करेगा, पुरानी कांग्रेसी सरकारों के कामकाज के आधार पर नहीं.
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