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भारतीय राजनीति में एक साध्वी की सियासी मजबूरी

बुंदेलखंड की मांग दोहराकर साध्वी ने सियासी दुनिया में महत्वहीनता साबित की है.

Updated On: Nov 23, 2016 12:18 PM IST

Amit Singh

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भारतीय राजनीति में एक साध्वी की सियासी मजबूरी

कार्ल मार्क्स का एक चर्चित कथन है, हिस्ट्री रिपीट्स इटसेल्फ, फर्स्ट एज ट्रेजेडी, सेकंड एज फार्स. यानी इतिहास खुद को दोहराता है, पहले यह त्रासदी के रूप में घटित होता है और बाद में तमाशे में तब्दील हो जाता है.

यह कथन इस समय केंद्रीय जल संसाधन मंत्री साध्वी उमा भारती पर सटीक बैठ रहा है. हाल ही में साध्वी ने अलग बुंदेलखंड की मांग दोहराकर यह साबित किया कि सियासी दुनिया में वह कितना महत्वहीन हो गई हैं.

ललितपुर में हुई परिवर्तन सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा,'भाजपा हमेशा छोटे राज्यों की पक्षधर रही है. मैं ऐसा मानती हूं कि बुंदेलखंड अलग राज्य बनना ही चाहिए. लेकिन यह मेरा राजनीतिक मुद्दा नहीं है. बुंदेलखंड राज्य निर्माण के लिए सही नक्शा बनाया जाना जरूरी है. इसके लिए जनता को प्रदेश सरकार पर दबाव बनाना चाहिए. आप सभी भाजपा की सरकार बनाएं तभी बुंदेलखंड राज्य बन सकता है.'

भावनात्मक मुद्दों के जरिए वोट हासिल करती हैं 

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सबसे मजेदार बात यह है कि साध्वी के लिए कुछ भी राजनीतिक मुद्दा नहीं होता है. बस वे ऐसे भावनात्मक मुद्दों के सहारे जनता का वोट हासिल करना चाहती हैं.

साध्वी उत्तर प्रदेश में पिछले दो चुनावों से बुंदेलखंड का राग अलाप रही हैं. लोकसभा चुनाव में उमा भारती ने जनता से वादा किया कि केंद्र में बीजेपी की सरकार बनने पर तीन साल के अंदर बुंदेलखंड को अलग राज्य बनवा दिया जाएगा. तीन साल पूरे होने वाले हैं. इस मांग को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है.

इससे पहले पिछले विधानसभा चुनाव में उमा भारती ने महोबा की चरखारी विधानसभा सीट से चुनाव लड़कर बुंदेलखंड की मांग को हवा दी थी. तब उन्होंने इस क्षेत्र को 'उत्तर प्रदेश का कश्मीर' बनाने का वादा किया, लेकिन वहां कोई परिवर्तन नहीं हुआ. कश्मीर बनाना तो दूर, वह अक्सर विधानसभा सत्र से गायब ही रहीं.

वैसे बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद सुर्खियों में आईं साध्वी अभी जल संसाधन, नदी विकास और गंगा सफाई मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाल रही हैं. हालांकि दो साल का कार्यकाल पूरा होने के बाद जल संसाधन मंत्री के रूप में उमा भारती के कामकाज को अच्छी रेटिंग नहीं दी गई. इस दौरान उमा भारती सिर्फ दावे करती नजर आईं.

दावा रहा असफल 

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उन्होंने दावा किया है कि गंगा सफाई प्रयासों का असर 2016 से दिखने लगेगा और वर्ष 2018 तक गंगा पूरी तरह साफ हो जाएगी. 2016 खत्म होने को है और गंगा की हकीकत देखने के बाद उनका यह दावा अविश्चसनीय ही लगता है.

मतलब साफ यह है कि वह अभी तक अपनी गंगा सफाई के मसले में कुछ खास नहीं कर पाई हैं. राम मंदिर आंदोलन से जनता का भावनात्मक जुड़ाव नब्बे के दशक वाला नहीं रहा है. ऐसे में बुंदेलखंड निर्माण का वादा सिर्फ उमा भारती की सियासी मजबूरी है. वह राजनीति में सिर्फ अपनी अहमियत बरकरार रखने के लिए यह मांग दोहरा रही हैं.

उमा भारती बचपन से प्रवचन कर रहीं हैं. वह कई बार अपने संन्यासिन होने का फायदा राजनीतिक रूप से उठाती हैं. वह मन को स्थिर करने की बातें तो करती रही हैं लेकिन उनका खुद का मन कभी किसी भी मामले में स्थिर नहीं रहा है. वह शांतचित्त वाली संन्यासिन नहीं हैं.

दरअसल उमा भारती उग्र हैं. वे अप्रत्याशित हैं. वे मूडी हैं. उनके करीबी और मातहत इस स्वभाव से भलीभांति परिचित हैं. मन की अस्थिरता की वजह से वे अपने नेताओं से झगड़ लेती हैं. हालांकि इसकी राजनीतिक कीमत भी उन्हें चुकानी पड़ी है.

वैसे साध्वी उमा भारती का पूरा जीवन मानवीय संसार के विभिन्न रंगों से सराबोर है. उनका जीवन विलक्षण ज्ञान, धार्मिक भावुकता, राजनीतिक दांव—पेंच, प्रेम, गुस्सा, घृणा का कॉकटेल है.

कम उम्र में जुड़ी भाजपा से 

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बहुत कम उम्र में भाजपा से जुड़ने वाली उमा धर्म और राजनीति के घालमेल तथा धर्म की ताकत और उसकी सीमाओं का सबसे सटीक उदाहरण हैं.

उमा भारती का जन्म 3 मई, 1959 को मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में डुंडा नामक स्थान पर एक किसान परिवार में हुआ था. उनका जन्म अति धार्मिक लोधी किसान परिवार में हुआ था.

बचपन से ही उन्होंने सारे हिन्दू धर्मग्रन्थ कंठस्थ कर लिए. छोटी उम्र में ही उन्होंने कथा-पाठ करना प्रारंभ कर दिया था जिससे उनका परिचय राजमाता विजयाराजे सिंधिया से हुआ जिन्होंने उन्हें राजनीति में आगे बढ़ाया.

उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1984 से होती है. विलक्षण प्रतिभा वाली यह भागवत कथा वाचक पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ी और हार गई. 1989 और फिर 1991 में वह मध्य प्रदेश की खजुराहो सीट से लोकसभा चुनाव में जीतने में सफल रहीं.

लेकिन राजनीतिक कद राम जन्मभूमि आंदोलन में उनकी भूमिका से बढ़ा. उमा भारती के उग्र भाषणों से आंदोलन को गति मिली और महिलाएं बड़ी संख्या में कारसेवा के लिए पहुंचीं.

छह दिसंबर को जब विवादित ढांचा गिराया गया. तब भाजपा और विहिप के अन्य नेताओं के साथ वह घटनास्थल पर मौजूद थीं. लिब्राहन आयोग ने बाबरी ध्वंस में उनकी भूमिका दोषपूर्ण पाई.

हालांकि भारती ने भीड़ को उकसाने के आरोपों से इंकार किया. लेकिन यह भी कहा कि उन्हें इसका कोई अफसोस नहीं है और वह ढांचा गिराए जाने की नैतिक जिम्मेदारी लेने को तैयार हैं.

बाबरी ढांचा गिराए जाने के बाद उमा भारती लगातार सांसद और अटल सरकार में मंत्री रहीं. इसके बाद उनके राजनीतिक जीवन का सबसे शानदार प्रदर्शन 2003 में मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव रहा.

दिग्विजय शासन को उखाड़ फेंका

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उस दौरान उनके नेतृत्व में प्रदेश का चुनाव लड़ा गया. साध्वी ने न सिर्फ प्रदेश में लंबे समय से चले आ रहे दिग्वियय सिंह के शासन को उखाड़ फेंका, बल्कि भाजपा को तीन-चौथाई बहुमत दिलाया था. भाजपा की यह सन्यासिन मध्य प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं.

हालांकि यह जीत उनकी प्रशासनिक क्षमता का भी टेस्ट लेने वाली थी. इसमें वह बुरी तरह फेल हुईं. उन्होंने जल्द ही अपनी इस ऐतिहासिक जीत पर पानी फेर दिया.

उमा भारती बतौर मुख्यमंत्री अपने छह माह के कार्यकाल के दौरान राजनीतिक मर्यादा, शुचिता एवं ईमानदार कठोर प्रशासन की कसौटी पर खरी नहीं उतर सकीं.

इससे ज्यादा वह तुनकमिजाजी और दूसरे कारणों से चर्चा में रहीं. उनकी झुंझलाहट मीडिया के लिए अच्छी खबर होती थी, लेकिन राजनीति के लिए यह अच्छा नहीं था.

नतीजतन, जिस जनता ने उमा भारती को अपना नेता मानकर कमान सौंपी थी, उसे भी महसूस होने लगा कि राज्य की सत्ता एक कमजोर शख्स के हाथों में जा चुकी है

अगस्त 2004 जब उनके खिलाफ 1994 के हुबली दंगों के संबंध में गिरफ्तारी का वारंट जारी हुआ तब उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.

पलटा किस्मत का पासा

फिर राजनीतिक पासा कुछ ऐसा पलट गया कि उमा भारती चाहकर भी दोबारा मुख्यमंत्री नहीं बन पाईं. पार्टी से नाराजगी और वरिष्ठ नेताओं के खिलाफ बयानबाजी करते हुए वे भाजपा से दूर होती गईं.

दोबारा मुख्यमंत्री नहीं बनाए जाने से नाराज उमा भारती ने एलके आडवाणी और पार्टी के दूसरे नेताओं की सार्वजनिक आलोचना करनी शुरू कर दी.

भाजपा से बगावत करते हुए उमा भारती ने भोपाल से अयोध्या तक पदयात्रा की और भारतीय जन शक्ति पार्टी (बीजेएसपी) के नाम से अपना अलग राजनैतिक दल बनाया. हालांकि नई पार्टी स्थापित करने के बाद भी उन्हें कुछ खास कामयाबी नहीं मिली.

फिलहाल भाजपा से उनकी दूरी बहुत दिनों तक नहीं चली. भाजपा छोड़ने के छह साल बाद तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने 7 जून 2011 को उमा भारती की पार्टी में वापसी की घोषणा की.

उमा भारती उत्तर प्रदेश के 2012 के चुनाव में चरखारी से चुनाव लड़ीं और जीतीं लेकिन पार्टी को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा. फिर 2014 में झांसी से लोकसभा चुनाव जीतीं और केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हुईं.

जनता को अहमियत समझा पाने में नाकाम

फिलहाल साध्वी पिछले करीब एक दशक से जनता को अपनी अहमियत समझा पाने में नाकाम रही हैं. राजनीति में धर्म की अपनी एक सीमा होती है, उमा उस सीमा तक धर्म का दोहन कर चुकी हैं.

इसके अलावा वह ऐसे मुद्दे खोज पाने में नाकाम रहीं जिससे वह जनता को अपनी तरफ खींच सकें. भाजपा छोड़ने के बाद जब उन्होंने नई पार्टी का गठन किया तब भी उनके पास कोई नया मुद्दा नहीं था.

वह भाजपा और संघ के एजेंडे के इर्द—गिर्द ही राजनीति करती रहीं. इससे उनका जनाधार कमजोर पड़ता गया. एक दौर के बाद उनका बयान मीडिया में सुर्खियां भी नहीं बन पाता था. वह अपने आप को प्रासंगिक बनाए रखने में नाकाम में साबित हुईं.

अब गरीबी, बेरोजगारी, सूखे के लिए चर्चा में रहने वाले बुंदेलखंड की मांग करके अपने राजनीतिक करियर को लंबा करना चाह रही हैं. यह उनकी मजबूरी भी है और अभी उनके सामने यही एक मात्र रास्ता भी है.

 

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