यह दो बिहारियों और एक बाहरी की कहानी है. लेकिन इस ट्रैंगल में प्यार नहीं, न खोया प्यार, न एकतरफा प्यार और न अधूरा प्यार... इसमें सिर्फ अविश्वास और अवसरवाद है.
दोनों बिहारी अपने करियर की शुरुआत से ही एक ऐसी राजनीतिक दल के सदस्य थे जो एंटी कांग्रेस था और जो इंदिरा गांधी को बिलकुल पसंद नहीं करता था. उन्हें सत्ता से हटाना इस दल का मुख्य लक्ष्य था. ये दोनों बिहारी एक दूसरे से एकदम अलग थे लेकिन इंदिरा गांधी को हटाने के लिए साथ मिलकर काम किया.
लेकिन शुरुआत से ही दोनों ने यह साबित कर दिया कि 'एक म्यान में दो तलवार' वाली कहावत इन दोनों के लिए सही साबित होती है. इस बात को लेकर बहुत कम लोगों को शक था नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के रास्ते कभी न कभी अलग होंगे क्योंकि दोनों एक दूसरे की तरक्की के लिए खतरा थे. ऐसा हुआ भी, लेकिन डेढ़ दशक के बाद. अप्रैल 1994 में नीतीश कुमार ने जनता दल से अलग एक पार्टी का गठन किया.
हालांकि बाहरी ने काफी लेट शुरुआत की और कई सालों तक वह दोनों बिहारियों से अलग ही रहा. तब भी नहीं जब नीतीश कुमार ने बीजेपी से गठबंधन किया. 90 के दशक के आखिरी सालों में जब नीतीश कुमार अटल सरकार में कैबिनेट मंत्री थे तब नरेंद्र मोदी पार्टी के एक आम कार्यकर्ता थे.
जब मोदी गुजरात के सीएम बने और गोधरा के बाद हुए साम्प्रदायिक हिंसा के बाद जब विवादों में आए तब भी नीतीश वाजपेयी सरकार में बने रहे. हालांकि तब रामविलास पासवान ने मोदी के विरोध में इस्तीफा दे दिया था. नीतीश को मोदी से कोई खतरा नजर नहीं आया.
तीनों नेताओं के ट्रायंगल में लालू और मोदी के रिश्ते में कभी बदलाव नहीं आया. दोनों ने हमेशा एक दूसरे से दूरी बनाकर रखी. हालांकि नीतीश कभी लालू के करीब रहे तो कभी मोदी के. बिहार के सीएम कभी इन आरोपों से बच नहीं सके कि उनका स्टैंड पूरी तरह से उनके कन्वीनिएंस पर निर्भर करता है.
नीतीश कुमार की महत्वाकांक्षा समझने के लिए आइए चलते हैं 1977 में. तब वह पहली बार हरनौत विधानसभा सीट से चुनाव लड़े थे जिसमें वह हार गए थे. उस वक्त उनके पास पार्टी में कोई पद नहीं था. वहीं उनके साथी लालू प्रसाद यादव विधायक/सांसद बन चुके थे. कॉफी हाउस में फ्रस्ट्रेशन में टेबल पीटते हुए नीतीश ने कहा, 'सत्ता प्राप्त करूंगा, बाय हूक ओर क्रूक और अच्छा काम करूंगा.' वह अच्छा काम कर पाए या नहीं यह तो एसेसमेंट का पार्ट है पर इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि किसी भी तरीके से सत्ता हासिल करने की बात पर वह टिके हुए हैं.
नीतीश ने भले ही जेपी आंदोलन से राजनीति में कदम रखा हो पर एक दशक बाद उन्हें अपना रास्ता मिल गया था. वह सांसद बने और वीपी सिंह सरकार में मंत्री बने. इसके बाद वह कभी लालू तो कभी बीजेपी से रिश्तों के आधार पर आगे बढ़ते रहे.
एनडीए में नीतीश की वापसी 2019 के चुनाव में पीएम की कुर्सी के लिए खुद को मोदी के खिलाफ मुख्य चैलेंजर बनाए जाने की उनकी साल भर की कोशिशों के बाद हुई है. क्योंकि कांग्रेस के तरफ से इस पद के लिए उन्हें नॉमिनेट करने को लेकर कोई संकेत नहीं दिया गया, दूसरी तरफ लालू लगातार यह जाहिर कर रहे थे कि उनके पास अधिक विधायक हैं इसलिए वह बॉस हैं.
लालू और उनके परिवार पर केंद्रीय जांच एजेंसियों की कार्रवाई के दौरान नीतीश ने अपना समीकरण बैठाया कि यदि उन्हें नंबर दो ही रहना है तो क्यों न एक बड़ी नाव में सवार होकर ऐसा किया जाए. मोदी की छत्रछाया में वापसी नीतीश के लिए एक अच्छा अनुभव हो सकती है लेकिन क्या उनका यह गठबंधन लंबे समय तक टिक सकेगा? राजनीति में कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता. नीतीश को भाजपा के समर्थन के बाद उन्हें कहीं न कहीं भाजपा की शर्तों पर गठबंधन करना होगा.
मोदी न कुछ भूलते हैं और न कभी माफ करते हैं. जून 2013 में मोदी को बीजेपी ने अपना नेता तय किया था, नीतीश ने अपनी बायोग्राफी लिखने वाले पत्रकार शंकरशन ठाकुर से कहा था, 'उस व्यक्ति पर कोई कॉम्प्रोमाइज नहीं होगा. जो व्यक्ति देश के लोगों में भय पैदा करता हो उसकी महत्वाकांक्षा के लिए अपने उसूलों को सती नहीं कर सकता.'
मोदी नीतीश को उनकी बातें याद नहीं दिलाएंगे, न ही उनसे पूछेंगे कि अब किसने कॉम्प्रोमाइज किया. लेकिन यह तय है कि उन्हें ये बातें याद होंगी और इनका इस्तेमाल वह अपनी सहूलियत के हिसाब से जरूर करेंगे. अब तक नंबर वन बनने का सपना देख रहे नीतीश कुमार को अब नंबर दो पर रहकर काम करना होगा.
(न्यूज 18 से साभार)
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