ये शायद 'भारतीय' मीडिया के दुर्लभतम मौकों में हैं जब नॉर्थ-ईस्ट का चुनाव खबरों में छाया हो. त्रिपुरा में लेफ्ट का गढ़ ढह गया. वामपंथ खत्म हो रहा है. दक्षिणपंथ आ रहा है. जैसे 'जुमले' सुनाई दे रहै हैं. नॉर्थ ईस्ट की थोड़ी बहुत जानकारी रखने वालों ने माणिक सरकार का नाम सुना होगा. माणिक सरकार भारत के सबसे गरीब सीएम हैं.
एक ऐसा मुख्यमंत्री जिसके पास लगभग कोई संपत्ति नहीं. वो भी तब जब वो 25 साल सीएम रहा हो. माणिक सरकार ने 18 फरवरी को धनपुर असेंबली क्षेत्र से परचा दाखिल किया, तो उनके हलफनामे के मुताबिक उनके पास 1520 रुपया नकदी थी और बैंक खाते में महज 2410 रुपये थे. सीपीएम की पोलित ब्यूरो के सदस्य माणिक सरकार के पास अगरतला के बाहरी इलाके कृष्णानगर में 0.0118 एकड़ ज़मीन थी जिसका मालिकाना उनका और उनकी इकलौती बहन का है. न तो सरकार के पास कार है न कोई जायदाद. ऐसे मुख्यमंत्री का मुकाबला दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी से था.
कई लोग माणिक सरकार की गरीबी को उनकी योग्यता मानकर देखते हैं. इस देश में गरीबी और संघर्ष को थोड़ा रोमांटिसाइज़ करने का चलन भी है. लेकिन एक हेड ऑफ स्टेट का आंकलन उसके गवर्नेंस के आधार पर होना चाहिए. त्रिपुरा में दो दशक तक सत्ता संभालने वाले माणिक सरकार के राज में ऐसे बहुत से बिंदु हैं, जिनपर काम होना चाहिए था, लेकिन नहीं हुआ.
बाकी देश से कटा हुआ
त्रिपुरा बाकी देश से सिर्फ एक सड़क, एनएच-8 से जुड़ा हुआ है. इसके अलावा बाकी का राज्य 'भारत' की तुलना में म्यांमार के करीब है. इतने सालों के शासन में त्रिपुरा में उद्योग और व्यापार की तरक्की न के बराबर रही है. इसका सीधा असर वहां के हालात पर पड़ा दिखता है. वैसे इसके लिए राज्य सरकार से ज्यादा दोष पुरानी सरकारों को देना चाहिए. आप नरेंद्र मोदी और बीजेपी की विचारधारा से सहमत हों या न हों तो लेकिन इतना तो मानना पड़ेगा कि बतौर प्रधानमंत्री नॉर्थ ईस्ट के जितने दौरे उन्होंने किए, शायद ही दूसरे किसी पीएम ने किए हों.
समस्याओं भरा इतिहास
त्रिपुरा की प्रमुख भाषा बांग्ला है. 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय पूर्वी पाकिस्तान से बड़ी तादाद में हिंदू त्रिपुरा में पहुंचे. इसके अलावा मणिपुर और त्रिपुरा नॉर्थ ईस्ट के दो ऐसे राज्य हैं, जिनका कनेक्शन कृष्ण और संस्कृत और हिंदू मान्यताओं से सीधे जुड़ता है. इन सबके बीच त्रिपुरा में उग्रवाद समस्या बनकर खड़ा रहा.
बेइंतहा बेरोजगारी और अपराध
रिपोर्ट्स के मुताबिक त्रिपुरा में 2013 में मर्डर का आंकड़ा 3.87 था जो राष्ट्रीय औसत से ज्यादा था. इसी तरह से त्रिपुरा में महिलाओं से जुड़े अपराधों की संख्या प्रतिशत के हिसाब से काफी ज्यादा थी. रेप का क्राइम रेट राज्य में 6.34 प्रतिशत था जो देश के औसत 2.78 प्रतिशत से तीन गुना था. अपराध और बेरोजगारी का सीधा कनेक्शन है. 2011 की जनगणना के मुताबिक त्रिपुरा में 25.2 प्रतिशत लोग बेरोजगार थे. कश्मीर जैसे राज्य में भी ये आंकड़ा 7 प्रतिशत है.
देश के सबसे ज्यादा लिट्रेसी रेट वाले त्रिपुरा के शहरों में रोजगार न के बराबर है. ग्रामीण त्रिपुरा की स्थिति कमोबेश ऐसी ही है. राज्य की 27 प्रतिशत भूमि ही खेती लायक है. इसके लिए भी सिंचाई की अच्छी व्यवस्था नहीं है. राज्य रबर की खेती के मामले में देश में दूसरे नंबर पर है. जूट, टीक, चाय और बांस जैसे तमाम कैश क्रॉप्स यहां आसानी से होती हैं. लेकिन इनके अधिक्तम इस्तेमाल के लिए अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठे. 2015 में राज्य सरकार ने टाटा ट्रस्ट के साथ मिलकर मछली पालन को बढ़ाने के लिए समझोता किया था. इसी तरह से त्रिपुरा में नैचुरल गैस से भंडार हैं. इनका अभी भी पूरी तरह से इस्तेमाल होना बाकी है.
सीमा पार तस्करी और ड्रग्स
एक लाइन में कहें तो त्रिपुरा में भंयकर गरीबी, अपर्याप्त इन्फ्रास्ट्र्चर और खराब कम्युनिकेशन की समस्या है. इसके अलावा बांग्लादेश-मयांमार से आने वाला ड्रग्स और तस्करी राज्य की समस्याओं में इजाफा करता है. एम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक सूंघ कर नशा करने वाले बच्चों में 68 प्रतिशत त्रिपुरा से थे. हालांकि शराब और हेरोइन के इस्तेमाल के मामले में त्रिपुरा पीछे है. जाहिर तौर पर माणिक सरकार से वहां की जनता ने इसके जवाब मांगे होंगे. आने वाले समय में बीजेपी (जिसकी जमीन तैयार करने में संघ ने कई दशक काम किया है) इस दूरस्थ राज्य की दशा सुधारेगी या मीडिया की तरह एक दिन के बाद भूल जाएगी.
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