दिसंबर 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगरतला गए हुए थे. वहां उन्होंने ओएनजीसी के पलटाना प्लांट की दूसरी यूनिट राष्ट्र को समर्पित किया था. उस दिन पीएम मोदी को सुनने के लिए बड़ी तादाद में लोग आए थे. उस समारोह में बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद के सलाहकार तौफीक-ए-इलाही चौधरी को भी न्यौता दिया गया था. इस प्लांट को लगाने में बांग्लादेश की पीएम शेख हसीना ने भी काफी मदद की थी. उन्होंने बांग्लादेश से होकर प्लांट के लिए मशीनरी ले जाने की इजाजत दी थी.
मोदी की रैली में जुटी भीड़ को देखकर चौधरी चकित थे. उन्होंने अचरज से पूछा कि, 'इस राज्य में उस पार्टी की सरकार है, जो लगातार बीजेपी का विरोध करती रही है. फिर भी इतनी बड़ी तादाद में लोग मोदी के स्वागत के लिए कैसे जुट गए'.
बदलाव के लिए किया वोट
हां, भारतीय लोकतंत्र का यही चौंकाने वाला चेहरा, जिसने तीन बरस पहले बांग्लादेश से आए मेहमान को चौंकाया था, वो त्रिपुरा के विधानसभा चुनाव के नतीजों के तौर पर शनिवार को फिर सामने आया. वो त्रिपुरा जो कभी वामपंथी दलों का अजेय किला था. जहां 1998 से माणिक सरकार मुख्यमंत्री थे. वो त्रिपुरा का 'लाल किला' ताश के पत्तों की तरह ढह गया, क्योंकि लोग बदलाव चाहते थे.
69 बरस के माणिक सरकार एक मिलनसार और जमीनी मुख्यमंत्री के तौर पर जाने जाते थे. लोग उन्हें प्यार करते थे. त्रिपुरा की जनता अब भी उन्हें पसंद करती है. पूर्वोत्तर के राज्यों की बात करें, तो त्रिपुरा के मानव विकास सूचकांक बताते हैं कि वो सबसे अच्छे से प्रशासित राज्य है. साक्षरता, स्वास्थ्य और सफाई के मामले में त्रिपुरा कई बड़े राज्यों से आगे है. लेकिन यहां आर्थिक समृद्धि नहीं है, क्योंकि उद्योगों ने राज्य से दूरी बना रखी है. हालांकि माणिक सरकार ने उद्योगपतियों को लुभाने की काफी कोशिशें कीं.
बीजेपी ने कैसे किया ये चमत्कार?
सीपीएम ने पिछले कई दशकों की मेहनत से राज्य में अपना काडर और पार्टी के संगठन का बुनियादी ढांचा खड़ा किया है. सीपीएम के मुकाबले बीजेपी, राज्य में नई पार्टी है. 2014 तक ये सोचना भी नामुमकिन था कि बीजेपी त्रिपुरा में सत्ता हासिल करने की रेस में भी होगी.
त्रिपुरा में बीजेपी की जीत किसी सियासी चमत्कार से कम नहीं है. ये लगातार की गई मेहनत और सियासी दांव अच्छे से खेलने की वजह से हो सका है. बीजेपी नेतृत्व, राज्य की जनता की नब्ज पहचानने में कामयाब रहा. पार्टी ने लोगों के बीच ऐसा माहौल बनाया, जिससे राज्य की जनता प्रभावित हुई और उस पर यकीन किया.
बीजेपी की रणनीति, मार्क्सवादी नारों और समाजवादी बातों से ठीक उलट थे. क्योंकि जनता पिछले कई दशकों से उन्हें सुन रही थी. इसीलिए बीजेपी ने पूरा जोर राज्य को विकास का नया मॉडल दिखाने में लगाया.
जनता को क्या थी नाराजगी?
हैरानी की बात ये है कि त्रिपुरा में राज्य सरकार ही लोगों को सबसे ज्यादा रोजगार देती है. दूसरे राज्यों के मुकाबले माणिक सरकार चौथे वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद से ही बाकी वेतन आयोगों की सिफारिशें लागू करने में आना-कानी करती रही थी. सरकार की इस आना-कानी से राज्य के सरकारी कर्मचारी बेहद नाराज थे. इन्होंने ही जनता के बीच सरकार के खिलाफ माहौल बनाने में अहम रोल निभाया. बीजेपी ने इन सरकारी कर्मचारियों को उनका बकाया देने का वादा करके उनका दिल जीता.
अब केंद्र में बीजेपी सरकार है. इस वजह से लोगों को उसके वादे पर कांग्रेस या सीपीएम के वादे से ज्यादा यकीन हुआ. लेकिन, सीपीएम के नेतृत्व को सबसे बड़ा झटका इस बात का लगा कि वो इस छोटे से राज्य की जनता की नब्ज परखने में नाकाम रही. पार्टी ये नहीं समझ सकी कि लोग परंपरागत मार्क्सवादी-समाजवादी राजनीति से उकता चुके हैं. अगरतला और आस-पास के शॉपिंग मॉल और उनमें अक्सर शाम को घूमने वाले छात्र इस बात के साफ सबूत हैं कि लोग बदलाव चाहते थे.
कहां हुई चूक?
हैरानी की बात ये है कि सिर्फ एक नेता ऐसे थे, जिन्होंने बदलाव की हवा का रुख भांपा. और वो कोई और नहीं खुद मुख्यमंत्री माणिक सरकार थे. उन्होंने बहुत कोशिश की थी कि अपनी सरकार का रुख-रवैया बदलें. लेकिन पार्टी के कट्टरपंथियों की वजह से माणिक की ये कोशिशें नाकाम रहीं.
मसलन, सरकार ने उद्योगपतियों को राज्य में आकर निवेश करने का न्यौता दिया ताकि आर्थिक तरक्की हो. त्रिपुरा में प्रतिव्यक्ति आमदनी राष्ट्रीय औसत से बहुत कम है. ऐसे में सरकार को मालूम था कि सिर्फ राज्य सरकार के बूते त्रिपुरा का विकास नहीं हो सकता.
एक बार मुझसे बातचीत में सरकार ने ईमानदारी से कहा था कि उनके राज्य को निजी निवेश की सख्त दरकार है. यही वजह थी कि माणिक सरकार ने केंद्र सरकार के साथ ताल्लुकात सुधारने की कोशिश की. उन्होंने निजी तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से रिश्ते बहुत बेहतर कर लिए.
माणिक सरकार ने पीएम मोदी को अपनी कैबिनेट को संबोधित करने के लिए बुलाया. इस बात से सीपीएम का केंद्रीय नेतृत्व काफी नाराज हुआ था. माणिक सरकार की व्यवहारिक राजनीति को प्रकाश करात जैसे कट्टर मार्क्सवादियों के विरोध का सामना करना पड़ा.
बदलाव के लिए तैयार नहीं थी पार्टी
अपनी पार्टी और सरकार की दशा-दिशा बदलने की माणिक सरकार की हर कोशिश का विरोध किया गया, क्योंकि सीपीएम लगातार बीजेपी के बढ़ते कद का कड़ा विरोध कर रही थी. अपने विरोध की वजह से ही सीपीएम ने बीजेपी को अपने खिलाफ माहौल बनाने का मौका तश्तरी में सजाकर दे दिया.
वहीं दूसरी तरफ बीजेपी ने राज्य के अच्छे खासे सरकारी कर्मचारियों को अपने पाले में कर लिया. पार्टी ने उन्हें हमेशा पिछड़पेन की कैद में रखने वाली विचारधारा से आजाद कराने और बेहतर जीवन स्तर देने का वादा किया.
त्रिपुरा में संघ का संगठन बेहद मजबूत है. इसलिए बीजेपी को तेजी से अपना काडर विकसित करने में भी दिक्कत नहीं हुई. बीजेपी के पास संघ की तैयार की हुई बुनियादी ज़मीन थी. उसमें उसने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को जोड़कर अपना बड़ा नेटवर्क खड़ा कर लिया. त्रिपुरा के लोग एक विचारधारा की कैद की शिकार सरकार से उकता चुके थे. उसे बीजेपी के तौर पर मिला विकल्प पसंद आ गया.
त्रिपुरा में बीजेपी की जीत, भारत की राजनीति में युग बदलने वाला बदलाव है. इसकी तुलना शायद बर्लिन की दीवार गिरने या सोवियत संघ के विघटन से ही की जा सकती है. बीजेपी की जीत एक विचारधारा की पराजय है, जिसने नई और ताकतवर विचारधार के आगे घुटने टेक दिए.
कुल मिलाकर ये कहें कि बीजेपी ने आज भारतीय राजनीति में वो मुकाम हासिल कर लिया है, जो आजादी के बाद कभी कांग्रेस का हुआ करता था. और हमारे लोकतंत्र की इससे बढ़िया मिसाल क्या हो सकती है कि इतना बड़ा बदलाव वोट के जरिए आया है.
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