त्रिपुरा की हार के बाद वामपंथ का आखिरी किला भी ध्वस्त हो गया. हालांकि केरल में अभी वामपंथ सत्ता में है, लेकिन, बंगाल के बाद त्रिपुरा को ही मजबूत 'लाल' किले के तौर पर देखा जाता रहा है जहां लगातार कई सालों से वामपंथ सत्ता में रहा था.
त्रिपुरा की 25 साल पुरानी माणिक सरकार के पतन के साथ ही अब दक्षिणपंथ ने अपना झंडा नॉर्थ-ईस्ट के इस राज्य में भी फहरा दिया जहां कुछ साल पहले तक कोई सपने में भी ऐसा नहीं सोंच सकता था. लेकिन, अब यह हकीकत बन चुका है. इतिहास ने करवट ली है और 2018 का साल वामपंथ के पतन के साथ ही उस अभेद्द किले में दक्षिण पंथ के उभार का इतिहास बनने वाले साल के तौर पर याद किया जाएगा.
त्रिपुरा में चुनाव परिणाम आने के बाद सीपीएम का यहां से सफाया हो गया है. बीजेपी ने लगभग दो तिहाई सीटों पर जीत दर्ज की है. यहां तक कि बीजेपी को इस बार विधानसभा चुनाव में लगभग 50 फीसदी वोट शेयर मिला है.
हालांकि सीपीएम को भी वोट शेयर थोड़ा सा ही कम है. लेकिन, लगभग 5 फीसदी के वोट शेयर के अंतर ने बीजेपी की झोली में एकतरफा जीत दिला दी है.
इस जीत के क्या हैं मायने?
त्रिपुरा में बीजेपी की जीत का असर दूरगामी होने वाला है. इस जीत ने बीजेपी की उस छवि को तोड़ने में काफी हद तक मदद की है जिसमें उसे उत्तर भारतीय राज्यों की पार्टी के तौर पर ही देखा जाता रहा है.
नार्थ-ईस्ट में त्रिपुरा के अलावा नगालैंड के प्रदर्शन से साफ है कि अब बीजेपी को महज हिंदुत्व की राह पर चलने वाली हिंदू समुदाय के समर्थन से चलने वाली पार्टी के तौर पर ही नहीं देखा जा सकता. अब बीजेपी को सांप्रदायिक पार्टी बोलकर उसके विस्तार को झुठलाने वालों के लिए भी एक संदेश है. उन्हें भी अब सांप्रदायिकता के फॉर्मूले में सुधार करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा, क्योंकि अब बीजेपी धार्मिक बंधन से बाहर निकलकर पूरे भारत में अपना पांव पसार चुकी है. अब पार्टी का राज नॉर्थ-ईस्ट में भी है तो दूसरी तरफ, दक्षिण में भी दस्तक की तैयारी है.
इस वक्त बीजेपी अपने सहयोगियों के साथ 20 राज्यों में सत्ता में आ चुकी है. 29 में से 20 राज्यों में सत्ता में काबिज पार्टी को अब लाख चाहने के बाद भी आलोचक नजरअंदाज नहीं कर सकते.
हालाकि नार्थ-ईस्ट के राज्य असम और मणिपुर में बीजेपी ने जीत दर्ज कर वहां सरकार बनाई है. लेकिन, त्रिपुरा की कहानी कुछ अलग है. क्योंकि त्रिपुरा में मुकाबला सीधे-सीधे बीजेपी बनाम सीपीएम का था. बीजेपी ने यहां 25 साल की सीपीएम सरकार को उखाड़ फेंका है.
इसके पहले बंगाल में भी सीपीएम का किला ध्वस्त हो चुका है. लेकिन, उसका श्रेय ममता बनर्जी को जाता है. अब बंगाल में लड़ाई ममता बनाम बीजेपी की हो गई है. वहां भी सीपीएम अब बीजेपी से भी पीछे खिसक गई है. लेकिन, त्रिपुरा की कहानी बिल्कुल अलग है क्योंकि इस किले को ध्वस्त कर बीजेपी ने सीधे विचारधारा के स्तर पर भी वामपंथ को मात दी है.
अब पूरे भारत में केवल केरल में ही इस वक्त पी विजयन के नेतृत्व में सीपीएम की सरकार है. बीजेपी और संघ परिवार ने वहां भी पहले ही अभियान चला रखा है. सीधी लड़ाई में त्रिपुरा में सीपीएम को पटखनी देने के बाद अब बीजेपी के लिए केरल को लेकर उत्साह और बढ़ गया है.
वहां भी लड़ाई धीरे-धीरे बीजेपी बनाम सीपीएम या दक्षिणपंथ बनाम वामपंथ की होती जा रही है. इस पूरे खेल में विपक्ष की भूमिका में रहने वाली कांग्रेस त्रिपुरा के बाद केरल में भी तीसरे स्थान पर खिसकती जा रही है.
जीत का श्रेय किसे?
दरअसल बीजेपी की त्रिपुरा की जीत के पीछे की पटकथा लंबे वक्त पहले से ही लिखी जा रही थी. त्रिपुरा समेत पूरे नॉर्थ ईस्ट में संघ परिवार की तरफ से चलाए जा रहे वनवासी कल्याण आश्रम के कार्यक्रमों के तहत आदिवासी समुदाय को अपने साथ जोड़ने की कवायद पहले से ही होती रही है. आरएसएस की तरफ से शिक्षा के क्षेत्र के अलावा जनकल्याण के क्षेत्र में जमीन पर और भी कई कार्यक्रमों का प्रचार-प्रसार होता रहा है जिससे नॉर्थ-ईस्ट के आम आदमी को संघ और उसकी विचारधारा के साथ जोड़ा जा सके.
दूसरी तरफ, केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद नॉर्थ-ईस्ट के विकास को लेकर सरकार का पूरा जोर रहा है. सरकार की तरफ से नॉर्थ-ईस्ट मामलों को लेकर एक अलग से मंत्रालय भी बना दिया गया है. प्रधानमंत्री का नॉर्थ-ईस्ट के अलग-अलग राज्यों का दौरा भी होता रहा है, जिसमें विकास की कई योजनाओं की सौगात भी दी गई है.
इसके अलावा मोदी सरकार का एक मंत्री हर महीने नॉर्थ-ईस्ट जाकर विकास योजनाओं की समीक्षा करता है. सरकार बनने के साथ ही प्रधानमंत्री ने लुक ईस्ट पॉलिसी के बजाए एक्ट ईस्ट पॉलिसी पर जोर दिया था. इस पर अमल भी हुआ है, इसी का परिणाम है कि असम और मणिपुर के बाद त्रिपुरा में भी अब भगवा ध्वज लहरा रहा है.
सरकार के साथ संगठन की भी भूमिका
हालांकि बीजेपी ने त्रिपुरा के साथ-साथ पूरे नॉर्थ-ईस्ट में सांगठनिक स्तर पर भी बड़ा काम किया है. असम में सरकार बनने के साथ ही कद्दावर मंत्री हेमंत बिस्वसरमा को पूरे नॉर्थ-ईस्ट में भगवा लहराने की बड़ी जिम्मेदारी सौप दी गई. नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक एलायंस यानी नेडा का अध्यक्ष बनाकर बिस्वसरमा को समान विचार धारा वाले दलों से बात कर हर राज्य में संगठन को मजबूत करने को कहा गया.
जोड़-तोड़ की राजनीति में माहिर हेमंत बिस्वसरमा नार्थ-ईस्ट की राजनीति में बीजेपी के चाणक्य बनकर उभरे हैं. उनकी अगुआई में बीजेपी ने त्रिपुरा के आदिवासी इलाकों में पैठ रखने वाली आईपीएफटी के साथ समझौते को अंतिम रुप दिया. बीजेपी के त्रिपुरा के प्रभारी रहे सुनील देवधर की भी रणनीति और जमीन पर किए गए उनके सांगठनिक काम काज को भी इस जीत में बड़ी भूमिका के तौर पर देखा जा रहा है.
इस बार बीजेपी ने चुनाव प्रचार में अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी. आरएसएस के साथ मिलकर बूथ स्तर तक का मैनेजमेंट हो या फिर चुनाव प्रचार को लेकर रणनीति, हालात के मुताबिक ही बीजेपी ने हर चाल चली. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोेदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के अलावा बीजेपी ने सोंची समझी रणनीति के तहत यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को मैदान में उतारा था.
योगी आदित्यनाथ नाथ संप्रदाय से आते हैं और त्रिपुरा में इस समुदाय के समर्थक लोगों की तादाद लगभग 20 से 25 फीसदी है. योगी आदित्यनाथ ने त्रिपुरा में 7 रैलियां की जिसका काफी असर देखने को मिला है.
अब आगे की रणनीति पर क्या होगा असर?
त्रिपुरा की जीत के बाद बीजेपी काफी उत्साहित नजर आ रही है. त्रिपुरा के अलावा नगालैंड में भी बीजेपी सहयोगी एनडीपीपी के साथ सरकार बनाने जा रही है. इस तरह बीजेपी अब बढ़े मनोबल के साथ कर्नाटक विधानसभा चुनाव में उतरेगी. बीजेपी कांग्रेस से इस बार कर्नाटक मे सत्ता छीनने के लिए पूरी तैयारी कर रही है.
पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार कर्नाटक दौरे पर जा रहे हैं. कोशिश कांग्रेस की सिद्धरमैया सरकार पर वार करना है. लेकिन, त्रिपुरा और नगालैंड की जीत के बाद बीजेपी का कैडर अब काफी उत्साहित नजर आ रहा है. जबकि कांग्रेस और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए नार्थ-ईस्ट की हार से उबरकर कर्नाटक में बीजेपी को चुनौती देना मुश्किल होगा.
खासतौर से राजस्थान और मध्यप्रदेश में उपचुनावों में बीजेपी की हार के बाद बने माहौल से बाहर निकलकर फिर से बीजेपी नए उत्साह के साथ आगे चलने की तैयारी में है.
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