यूपी चुनाव के ठीक पहले तीन तलाक के मुद्दे का गरमाना सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ाएगा. काफी कुछ इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया पर भी निर्भर करता है.
अगर सभी दल इसके पक्ष में आएंगे तो यह मुद्दा तूल नहीं पकड़ेगा. चूंकि पार्टियों के बीच समान नागरिक संहिता के सवाल पर असहमति है. इसलिए इस मामले को उससे अलग रखने में ही समझदारी होगी.
दिक्कत यह है कि इसे भड़काने में कई तरफ से हवा दी जाती है. यह मामला एक तरफ मानवाधिकार से जुड़ा है. वहीं अल्पसंख्यकों के धार्मिक अधिकारों से भी इसका वास्ता है. हो सकता है कि ज्यादातर मुस्लिम महिलाएं इसके विरोध में न हों, पर कुछ न कुछ तो हैं.
बहरहाल मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस मामले को उठा रहा है और वह ‘ट्रिपल तलाक’ और समान नागरिक संहिता के सवाल को मिलाकर देखता है.
संसद पर भरोसा करना चाहिए
पर्सनल लॉ बोर्ड ने विधि आयोग के प्रश्नों का बहिष्कार करके यह भी साफ कर दिया है कि उसे सरकार की मंशा पर यकीन नहीं है. पर यह सरकार की बात नहीं, भारत की बात है.
यह नहीं मान लेना चाहिए कि भारतीय व्यवस्था में एकतरफा फैसले हो जाएंगे. हमारा सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा है. संसद पर भी हमें भरोसा करना चाहिए. तीन तलाक से हटकर बहस पहले समान नागरिक संहिता पर जाती है, फिर ‘हिंदू राष्ट्र’ के अंदेशे पर. इससे मुस्लिम मन बेचैन होता है.
दूसरी ओर बीजेपी की राजनीति इसे मुस्लिम तुष्टीकरण पर रोक लगाने की कोशिश बताती है.1985 में जब शाहबानो का मामला उठा था तब दिल्ली में कांग्रेस सरकार थी, जिसने प्रगतिशील मुसलमानों की बात नहीं सुनी थी. लेकिन अब दिल्ली में उसके उलट व्यवस्था है.
तीन तलाक का वोट की राजनीति से जुड़े होना भी इसे समस्या का रूप देता है. उत्तर प्रदेश का चुनाव ऐसा ही एक मौका है. पर यह मामला यूपी के चुनाव तक का ही नहीं है. यह उससे आगे भी जाएगा.
थोड़ी देर के लिए मसले को मानवाधिकार के नजरिए से भी देखें. पत्नी के भरण-पोषण के मामले में इस्लामी व्यवस्थाएं हैं. पर शाहबानो ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत न्याय मांगा था. पत्नी, नाबालिग बच्चों या बूढ़े मां-बाप, जिनका कोई सहारा नहीं है और जिन्हें उनके पति या पिता ने छोड़ दिया है. वह धारा 125 के तहत भरण-पोषण की मांग कर सकते हैं. इसके तहत पति या पिता का जिम्मेदारी बनती है.
अदालत ने जब फैसला किया तो राजीव गांधी सरकार ने कानून ही बदल दिया. पर वह समस्या का समाधान नहीं था, बल्कि आधुनिक न्याय-व्यवस्था से पलायन था. उस मामले से राजीव गांधी पर हिंदू जनमत का इतना दबाव बना कि अयोध्या के मंदिर के ताले खुलवाने पड़े.
यूपी चुनाव में इसका पड़ेगा असर
पिछले साल काशीपुर की शायरा बानो ने सुप्रीम कोर्ट में तीन तलाक को चुनौती दी थी. जिसके बाद समान नागरिक संहिता का मामला भी उठ गया. तभी यह बात समझ में आने लगी थी कि 2017 के यूपी चुनाव में यह मसला भी शामिल हो जाएगा.
मुख्य तौर पर यह मूल सवाल नहीं है. यह एक बड़े मसले का हिस्सा है. ऐसे मसलों को सार्वजनिक रूप से उठाकर उनका समाधान नहीं खोजा जा सकता. इसके लिए समुदायों को बैठकर समझ बनानी चाहिए. नजरिया सुधारवादी और समस्या के समाधान का होना चाहिए.
शायरा बानो की याचिका आने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने जानना चाहा कि सरकार क्या कर सकती है. शायद सरकार को इसका ही इंतजार था. उसने इस मामले पर विधि आयोग से रिपोर्ट मांगी, जिसमें समान नागरिक संहिता को भी जोड़ लिया.
अब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि महिलाओं को तीन तलाक देना क्रूरता है और असंवैधानिक है. यह महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन है. हाईकोर्ट ने दो महिलाओं की याचिका पर यह कहा. हाईकोर्ट के मुताबिक पवित्र कुरान में भी तलाक के इस तरीके को सही नहीं माना गया है.
कानूनी नजरिए से यह मामला भी आखिर में सुप्रीम कोर्ट तक जाएगा. लेकिन यह फैसला कानून लाने में केंद्र सरकार के हाथ मजबूत करेगा और यदि सरकार कानून लाने की कोशिश करेगी तो उसकी प्रतिक्रिया भी होगी.
2019 चुनाव तक चलेगा तीन तलाक मुद्दा
मानकर चलिए कि यह छोटे दौर की राजनीति नहीं है. और न यह उत्तर प्रदेश के चुनाव के बाद खत्म हो जाएगी. यह 2019 के चुनाव तक भी चले तो कोई आश्चर्य नहीं.
उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों के ठीक पहले इस विषय पर चर्चा जहां बीजेपी के लिए फायदेमंद होगी. वहीं मुसलमानों के ध्रुवीकरण में भी यह मददगार होगी. मुस्लिम वक्फ बोर्ड पहले से इस पर जोर देता रहा है कि हमारे धार्मिक नियमों में राज्य की दखल नहीं होना चाहिए.
यह सवाल जब भी उठेगा तब उसे राजनीति से प्रेरित माना जाएगा. पर इसका हल इसी राजनीति को करना होगा. उसके पहले मुसलमानों को आत्मचिंतन करना चाहिए. पिछले दिनों पूर्व कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने ट्रिपल तलाक के विषय में मुसलमानों से खुद को सुधारने के बारे में विचार करने का आग्रह किया था.
सारी धार्मिक मान्यताएं आधुनिक जीवन के साथ मेल नहीं खातीं. यह किसी एक धर्म की बात नहीं है. व्यवस्था की बारीकियों पर विचार करने का वक्त भी आ रहा है.
संविधान का अनुच्छेद 13(1) कहता है
जब इस अधिकार की बात आई तब 1952 में मुंबई हाईकोर्ट ने व्यवस्था दी कि अनुच्छेद 13 पर्सनल लॉ को कवर नहीं करता है. सरकार अब इस फैसले पर भी सुप्रीम कोर्ट की राय चाहती है.
याचिका दायर करने वाले ने पूछा था, पर्सनल लॉ के चलते कोई महिला प्रताड़ित होगी तो क्या किया जाएगा? अदालत ने इसपर कहा था कि महिला प्रताड़ना को सामने रखेगी तो अदालत दखल देगी. जो अदालत अब कर रही है.
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