1971 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिभुवन नारायण सिंह मणिराम विधानसभा उप-चुनाव में हार गये थे. मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए चुनाव हारने वाले वह बहुत थोड़े से नेताओं में से एक थे.
इस हार के बाद उन दिनों बिहार के राजनीतिक हलकों में उनको ‘निकम्मा’ कहा जाने लगा. निकम्मा यानि जो बूथ मैनेज नहीं करा सके. इसके दो साल बाद 1973 में बिहार के मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता अब्दुल गफूर बाहुबल से मधुबनी विधानसभा उप-चुनाव में जीत गये.
जेपी आंदोलन की पृष्ठभूमि में 'मधुबनी धांधली'
सोशलिस्ट नेता कर्पूरी ठाकुर ने मधुबनी के चुनाव के बाद कहा था कि मैं मधुबनी कलक्टरी में आग लगा दूंगा. अहिंसक और शालीन कर्पूरी ठाकुर भी अब्दुल गफूर की ओर से की गयी कथित सरकारी और गैर-सरकारी धांधलियों के कारण काफी उत्तेजित थे. 1974 के जेपी आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार करने में उस 'मधुबनी धांधली' ने भी भूमिका निभाई थी.
सूरज बाबू की मिथिला की सभी जातियों के नेता काफी आदर करते थे. इसलिए यह माना गया कि उनकी पत्नी के प्रति मतदाताओं के मन में पैदा हुई सहानुभूति को घनघोर चुनावी धांधली के जरिए निरर्थक बना दिया गया.
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उधर, गांधीवादी त्रिभुवन की ओर से ऐसी किसी धांधली की उम्मीद नहीं थी. हुई भी नहीं. पर टी एन सिंह के कुछ उत्साही और उद्दंड समर्थकों ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की चुनावी सभा में अशोभनीय प्रदर्शन किया. उसका सहानुभूति वोट कांग्रेस उम्मीदवार रामकृष्ण द्विवेदी को मिल गया. मुख्यमंत्री लगभग 16 हजार मतों से हार गये.
संदिग्ध बताकर जांच की मांग उठाई
पत्रकार रामकृष्ण द्विवेदी का दूसरे पूर्व पत्रकार से मुकाबला था. खुद टी एन सिंह भी नेशनल हेराल्ड में कभी चीफ सब-एडिटर थे. टी एन सिंह लाल बहादुर शास्त्री के घनिष्ठ मित्रों में थे. शास्त्री जी का जब ताशकंद में निधन हुआ तो टी एन सिंह ने कांग्रेस में रहते हुए भी उसे संदिग्ध बताया और जांच की मांग उठाई थी.
उधर इंदिरा गांधी ने अपनी चुनावी सभा के जरिए हवा बना दी. बल्कि मणिराम में एक मुख्यमंत्री की हार के कारण इंदिरा कांग्रेस के पक्ष में पूरे देश में हवा बनी. टी एन सिंह तब कांग्रेस संगठनमें थे.
1969 में कांग्रेस का महा विभाजन हुआ था. इंदिरा कांगेस और संगठन कांग्रेस नाम के दो दल बने. इस विभाजन के बाद इंदिरा कांग्रेस लोकसभा में अल्पमत में आ गयी. कम्युनिस्टों के समर्थन से इंदिरा सरकार चल रही थी. इंदिरा ने 1971 में लोकसभा का मध्यावधि चुनाव करा दिया.
इंदिरा लहर काम कर गई
मणिराम उपचुनाव के कुछ ही सप्ताह बाद लोकसभा का चुनाव हुआ. इंदिरा गांधी को बहुमत मिल गया. जब हवा का रुख खिलाफ हो तो बड़े-बड़े ‘महंत’ भी चुनाव में कुछ कर नहीं पाते.
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गोरखपुर जिले के मणिराम से 1962, 1967 और 1969 में हिंदू महासभा के महंत अवैद्यनाथ विधायक चुने गये थे. पर जब वे लोकसभा के लिए चुन लिये गये तो उन्होंने यह सीट छोड़ दी. उन्होंने उप-चुनाव में टी एन सिंह को अपना समर्थन दिया.
1957 में चंदौली लोकसभा चुनाव में त्रिभुवन नारायण सिंह ने मशहूर समाजवादी नेता और स्वतंत्रता सेनानी डॉ. राम मनोहर लोहिया को हराया था. लोहिया कोई मामूली नेता नहीं थे.
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जेपी और लोहिया 1942 के भूमिगत आंदोलन के हीरो थे. कांग्रेस और टी एन सिंह की तब की ताकत देखिए. पर समय-समय का फेर था. ‘वही अर्जुन, वही वाण’ वाली कहावत 1971 में मणिराम में चरितार्थ हो गयी.
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