जम्मू इलाके में रविवार को पाकिस्तान की तरफ से की गई गोलाबारी में बीएसएफ के दो जवान मारे गए और 12 आम नागरिक जख्मी हो गए. इसके साथ ही पाकिस्तानी डीजीएमओ द्वारा युद्धविराम की पेशकश और भारत-पाक के बीच 2003 में हुए समझौते के पालन पर दोनों देशों के बीच सहमति बनाने को लेकर पैदा हुआ उत्साह और खुशनुमा माहौल खत्म हो गया है. पाकिस्तानी सैन्य बलों ने रविवार को जम्मू इलाके में गोलाबारी के जरिये 10 चौकियों और 35 गांवों को अपना निशाना बनाया.
इसके तुरंत बाद भारतीय टेलीविजन न्यूज चैनल पाकिस्तान को 'कायर' करार देने लगे, जबकि आईएसआई के पिछलग्गू मसूद अजहर ने सार्वजनिक तौर पर ऐलान किया कि फायरिंग खत्म नहीं होगी. इसी बीच, जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने कहा कि दोनों देशों के डीजीएमओ को जरूर बात करनी चाहिए. हर ऐसी घटना के बाद ठीक इसी तरह से घटनाक्रमों का चक्र चलता है. दरअसल, भारत लगातार उस सामरिक दिक्कत को समझने और स्वीकार करने में नाकाम रहा है, जिसके तहत 'अनियमित (टेढ़े) युद्धकौशल' में भारत के मुकाबले पाकिस्तान का पलड़ा भारी पड़ता है.
कितना कारगर है सशर्त युद्धविराम?
अब हम जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की सलाह पर रमजान के दौरान राज्य में लागू किए गए 'सशर्त' युद्धविराम की बात करते हैं. कई लेखों में नॉन-इनिशिएशन ऑफ कॉम्बैट ऑपरेशंस (NICO) जुमले के तहत महबूबा की इस पहल की काफी वाहवाही की गई. अमेरिकी NICO जैसा जुमला गढ़ने में काफी आगे रहे हैं- इस मामले में 'हिंसक आतंकवाद', 'अच्छे आतंकवादी', 'बुरे आतंकवादी' जैसे शब्दों को भी याद करना प्रासंगिक है.
अमेरिकी नजरिये के मुताबिक 'अच्छे आतंकवादी' तब तक अपने चरमपंथी अभियानों को जारी रख सकते हैं, जब तक वे 'हिंसक आतंकवाद' में शामिल नहीं होते. हालांकि, NICO का हवाला देते वक्त भारत यह भूल जाता है कि अमेरिकी अपनी ही धरती पर विद्रोही गतिविधियों के खिलाफ अभियान में शामिल नहीं हैं. वे इस संबंध में विदेशी इलाके में किसी प्रशासन का समर्थन करने में थोड़ी सुस्ती को बर्दाश्त कर सकते हैं.
लगातार मौजूदगी के लिए थोड़ी अस्थिरता फायदेमंद हो सकती है. ऐसा कई वजहों से हो सकता है. NICO अभियान के दौरान अमेरिकी टुकड़ी सुरक्षा की कई परतों के तहत उनके 'ग्रीन' जोन में जा सकती है.
हालांकि, जम्मू-कश्मीर में यह सब कुछ नहीं के बराबर प्रासंगिक है, जहां NICO का मतलब घेराबंदी और तलाशी अभियान के अभाव में आतंकवादियों द्वारा फिर से संगठित होकर मिशन के बारे में पता करना और उसे ध्वस्त करने जैसा होगा. यहां तक कि मारे गए गए लोगों को दफनाने के दौरान भी हथियारों से फायरिंग करने वालों पर कोई कार्रवाई नहीं होती है.
मारे गए आतंकियों के मुकाबले ज्यादा तेजी से नए दहशतगर्दों की भर्ती
जम्मू-कश्मीर में NICO के पक्ष में एक अहम वजह यह बताई गई कि कश्मीरी नौजवान बड़ी संख्या में आतंकवादी बन रहे हैं. कश्मीर घाटी में 2014 में मारे गए आतंकवादियों की संख्या 12 थी, जो 2015 में बढ़कर 23 हो गई, जबकि 2016 में यह आंकड़ा और बढ़कर 33 हो गया. बीते साल यानी 2017 में कश्मीर घाटी में मारे गए आतंकवादियों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई और इस दौरान कश्मीर घाटी में कुल 80 आतंकवादी मारे गए.
इसी तरह, 2014 में घाटी में आतंकवादी बनने वाले युवाओं की संख्या 53 थी, जो 2015 में बढ़कर 66 हो गई. साल 2016 में ऐसे युवाओं की संख्या 88 थी और 2017 में यह आंकड़ा बढ़कर 131 हो गया. वे (इसके पैरोकार) इस नतीजे पर पहुंचे कि सशर्त युद्धविराम के जरिये युवाओं को आतंकवादी बनने से रोका जा सकेगा. क्या इस बात को लेकर कोई विश्लेषण किया गया था कि युवा क्यों आतंकवादी बन रहे हैं और NICO के दौरान क्या हो सकता है? रमजान खत्म होने के बाद क्या होगा?
सरकारी रिपोर्ट में भी कबूली गई आतंकवाद कम नहीं होने की बात
जम्मू-कश्मीर पुलिस की एक रिपोर्ट में नवंबर 2016 से अप्रैल 2018 के दौरान हुए 43 एनकाउंटरों का विश्लेषण किया गया है. रिपोर्ट में बताया गया है कि इस दौरान 77 आतंकवादी मारे गए, जबकि 104 नए आतंकवादी बने हैं. इसके मुताबिक, बुरहान वानी के मारे जाने के बाद कश्मीर घाटी में बने आतंकवादियों में से तकरीबन आधे का घर मारे गए आतंकवादियों या एनकाउंटर स्थल से 10 किलोमीटर की दूरी के अंदर है.
रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया है कि मारे गए आतंकवादियों के मुकाबले ज्यादा नए आतंकवादी बने हैं और 41 फीसदी नए आतंकवादी एनकाउंटर स्थलों के 10 किलोमीटर के दायरे में हैं, जबकि 27 फीसदी 11-20 किलोमीटर के भीतर और 18 फीसदी 10-15 किलोमीटर के दायरे में हैं. रिपोर्ट के मुताबिक, 2010-2018 के दौरान 354 गांवों से आतंकवादियों की भर्ती हुई और साल 2018 के शुरू में 149 सक्रिय आतंकवादी थे.
इसमें कहा गया है कि कई चीजें एनकाउंटर में मारे गए आतंकवादियों और नई भर्तियों (आतंकवादियों) के बीच परस्पर संबंध की तरफ इशारा करती हैं. एनकाउंटर में स्थानीय आतंकवादियों का मारा जाना भी नए आतंकवादियों की भर्ती में उत्प्रेरक का काम करता है. रिपोर्ट में संकेत दिए गए हैं कि सफल अभियानों के बावजूद आतंकवाद में किसी तरह की सुस्ती नजर नहीं आती. हालात के आगे सरेंडर करने जैसी स्थिति है.
हालांकि, यह रिपोर्ट कई मुद्दों पर चुप है. मसलन कश्मीर घाटी में आबादी ग्रोथ रेट क्या है और इसके हिसाब से बेरोजगारी दर का क्या आंकड़ा है? दरअसल वानी खुद सेना में शामिल होना चाहता था और जब भी सेना की भर्ती निकलती है, तो कश्मीर के हजारों जवान भर्ती प्रक्रिया में शामिल होने के लिए पहुंचते हैं.
दूसरा-कब, कैसे और किसके द्वारा युवाओं को कट्टरपंथी और चरमपंथी बनाने का काम किया जा रहा है- मस्जिद, स्कूलों/मदरसा. तीसरी बात यह कि क्या युवाओं को भड़काने वालों की पहचान की गई है (नाम का जिक्र किए बिना) और क्या उन्हें इस तरह की गतिविधियों से रोकने के लिए किसी तरह की कार्रवाई की गई है? चौथा यह कि कट्टरपंथ या चरमपंथ के खिलाफ अगर कोई अभियान चल रहा है तो उसकी क्या स्थिति है? पांचवां- पत्थरबाजारों, उनकी संख्या, उनके समर्थन आधार, इसके खिलाफ अप्रभावी कार्रवाई आदि का कोई जिक्र नहीं है. क्या करने की जरूरत है, इस बारे में बिना कोई सुझाव दिए सिर्फ यह कहना कि 'किसी भी तरह से आतंकवाद कम होता नहीं नजर आ रहा है', पूरी तरह से हालात के आगे सरेंडर करने जैसा है.
सशर्त युद्धविराम के दौरान शोपियां, बांदीपुरा और पुलवामा जैसी जगहों पर आतंकवाद से जुड़ी कई घटनाएं हुई हैं. एक घटना में बारूदी सुरंग से सुरक्षा वाली गाड़ी को दमदार IED से उड़ा दिया गया. सोशल मीडिया पर ऐसी कई वीडियो हैं. एक में यह दिखाया गया है कि किस तरह से स्थानीय लोग बंदूक से लैस आतंकवादियों का स्वागत कर रहे हैं. एक और वीडियो में पुलवामा में गश्त लगाने वाले सुरक्षा बलों पर घात लगाकर किए गए हमले का दृश्य है.
इसमें आतंकवादियों की फायरिंग में प्रमुख संतरी के फंसने और आतंकवादियों द्वारा मारे गए सैनिक के सर काट लेने जैसी चीजें देखी जा सकती हैं. बीते शुक्रवार (1 जून) को सीआरपीएफ की एक गाड़ी पर तमाम तरफ से पत्थरबाजों के हमले के कारण बच निकलने की कोशिश में गाड़ी के ड्राइवर द्वारा दो लोगों को कुचले जाने के बाद श्रीनगर का माहौल एक बार गर्म है. इसमें एक शख्स की मौत भी हो गई थी.
सिर्फ सर्जिकल स्ट्राइक की बात करने से कुछ नहीं होगा
भारत जिस तरह से पत्थरबाजों से निपटता है, वह कायराना है. इससे पत्थरबाजों को इस तरह की गतिविधियों में शामिल होने के लिए प्रोत्साहन मिलता है और वे ऐसा करके पैसे भी कमाते है. डीआरडीओ के जरिये विकसित गैर-जानलेवा लेजर डैजलर का 2014-15 में सफलतापूर्वक परीक्षण किया गया था. इस उपकरण की रेंज (हाथ में रखकर इस्तेमाल किए जाने वाले और हथियार से जुड़े वर्जन ) क्रमशः 50 और 500 मीटर है.
हालांकि, अब तक इसे सेना और सुरक्षा बलों को मुहैया नहीं कराया गया है. इस साल अप्रैल में श्रीनगर में लाल चौक पर पत्थरबाजी में सीआरपीएफ के दो जवानों की हत्या होने के बावजूद इस पर पहल नहीं हुई है. इससे शर्मनाक बात और क्या हो सकती है?
बेरोजगारी और कट्टरपंथ की समस्या (इस पर महबूबा का फोकस होना चाहिए) से नहीं निपटने और असरदार मनोवैज्ञानिक अभियान पर काम नहीं करने की स्थिति में हालात और बदतर हो सकते हैं. अजहर की रिहाई का नतीजा सैकड़ों की हत्या के रूप में दिख रहा है.
पत्थरबाजों से निपटने में अक्षमता हालात को और खराब बनाएगी. पत्थरबाजी में मारे गए सीआरपीएफ के जवान के परिजन को 1 करोड़ देना समस्या का हल नहीं है. दुश्मन के क्षेत्र में जाकर 'टेढ़ी' लड़ाई को अंजाम देने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है. चुनावी मकसद के लिए सिर्फ 'सर्जिकल स्ट्राइक' की बात करने से कुछ नहीं होगा. जब तक इस तरह से काम नहीं किया जाता है, तब तक आंतकवादी हमलों का सिलसिला जारी रहेगा.
(लेखक भारतीय सेना के रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल हैं)
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