जिसे बोलना चाहिए था वह चुप रहा और जो अक्सर चुप्पी साधे अपना काम करता है वही एकबारगी बोल पड़ा.
आगे का अजब यह कहिए कि चुप साधे रखने वाले के बोल से सबको असर पड़ा लेकिन वह जिसे लोगों ने बोलने का जिम्मा सौंपा था, सारी बातों से बेखबर अपने में खोया खड़ा रहा!
पढ़कर अटपटा लगे तो एक-दूसरे से जुड़ी बीते अड़तालीस घंटे की तीन बातें याद कर कीजिए, ऊपर लिखी उलटबांसी जैसी बात के मायने बेमशक्कत निकल आएंगे.
तीन बातों के जोड़ में छिपी इस पहेली के पहले मुकाम पर आपको मिलेंगे चुनाव-आयुक्त, दूसरे और तीसरे मुकाम पर खड़े मिलेंगे चुनावी तैयारियों में लगे राजनीतिक दल यानी एक तरफ सत्तापक्ष तो दूसरी तरफ खुद को एकजुट करने की जुगत में लगा विपक्ष!
चुनाव-आयुक्त की चिंता
चुनाव अगर युद्ध है तो फिर जोर उसमें जीत पर होगा ही लेकिन जीत क्या हर कीमत पर? जीत कैसे हुई- क्या यह सवाल जीत के शोर में एकदम ही भुला दिए जाने के लायक है?
सारी मर्यादाओं के उलट जाने के बाद युद्ध होता है लेकिन युद्ध मर्यादा से परे नहीं होता. वह पुरानी मर्यादाओं की रक्षा के लिए होता या नई मर्यादाओं की स्थापना के लिए. और, ठीक इसी कारण स्वयं युद्ध की भी अपनी एक मर्यादा होती है.
चुनावी-युद्ध की मर्यादा क्या हो, क्या उसमें कोई मर्यादा रह भी गई है ? यह चिंता झलकी 17 अगस्त को चुनाव-आयुक्त के एक भाषण में.
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चुनावी सुधार की पैरोकार स्वयंसेवी संस्था एसोशिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्म्स के एक जलसे में चुनाव-आयुक्त ओ पी रावत ने कहा कि ‘चुनाव निष्पक्ष, मुक्त और पारदर्शी हों तो लोकतंत्र फलता-फूलता है लेकिन आम आदमी की हताशा का खयाल कर सोचें तो जान पड़ता है हमलोग तमाम नैतिक आग्रहों को परे रखकर एक ऐसी कहानी लिख रहे हैं जिसमें सबसे ज्यादा जोर जीत हासिल करने पर है.’
चुनावी युद्ध अब एकदम ही मर्यादा-विहीन हो गया है- पहले इस युद्ध में पार्टियां नैतिकता के सवाल से मुंह चुराती थीं, सो उन्हें टोकने की गुंजाइश बनी रहती थी. लेकिन अब नैतिकता के सवालों से साफ पीठ फेरकर खड़ी हो गई हैं. उन्हें किसी भी कीमत पर जीत चाहिए सो ‘जीत कैसे मिली’ का सवाल उनके लिए अब मायने ही नहीं रखता.
चुनावी जीत की इबारत लिखने की हड़बड़ी में लोकतंत्र की बड़ी कहानी के साथ हो गड़बड़ी हो रही है—कुछ इसी टेक पर सोचते हुए चुनाव-आयुक्त ने कहा कि अब ‘विधायकों-सांसदों की खरीद-फरोख्त को स्मार्ट पॉलिटिकल मैनेजमैंट कहा जाता है, पैसे और सत्ता के दुरुपयोग को संसाधन-संपन्नता का नाम दिया जाता है.’
सार्वजनिक जीवन में हुए नैतिकता के सबसे बड़े उलट-फेर की ओर इशारा करते हुए तकरीबन तंज कसने के अंदाज में आखिर को कह ही दिया चुनाव-आयुक्त ने कि ‘चुनाव जीतने वाले ने कोई पाप नहीं किया होता क्योंकि चुनाव जीतते ही उसके सारे पाप धुल जाते हैं। राजनीति में अब यह ‘आम-फहम’ बन चला है.’
इसमें नया क्या है?
चुनाव-सुधार का अजेंडा नया नहीं है. माना जा सकता है कि चुनाव आयुक्त ने पुरानी चिंता को ही नए लफ्जों में पेश किया है. तो भी इस चिंता को पढ़ने-समझने के लिए हाल-फिलहाल का एक संदर्भ मौजूद है.
गुजरात में राज्यसभा के लिए हुए चुनाव को अभी एक पखवाड़ा भी नहीं बीता. समझ के सारी बनावटों को ध्वस्त करता विचित्र चुनाव था यह.
इस चुनाव में एक पार्टी (बीजेपी) को इतने भर से संतोष नहीं था कि उसके अपने उम्मीदवार (अमित शाह और स्मृति ईरानी) जीत जाएं. वह अपने उम्मीदवारों की जीत के साथ-साथ दूसरी पार्टी के उम्मीदवार (अहमद पटेल) की निश्चित जान पड़ती जीत को तयशुदा हार में बदलने पर आमादा थी.
इस मकसद को साधने के लिए पार्टी साम-दाम-दंड भेद किसी भी युक्ति के इस्तेमाल के लिए तैयार दिखी.
दूसरी तरफ कांग्रेस थी जिसे अपने ही विधायकों की निष्ठा पर भरोसा ना था. पहले उसने चुनाव में नोटा का विकल्प होने के चलन पर सवाल उठाया और सुप्रीम कोर्ट में मुंह की खाई. यह तरकीब काम ना आई तो उम्मीदवार अहमद पटेल की जीत को सुनिश्चित करने के लिए उसे अपने ही विधायकों को सूबे से बाहर ले जाना पड़ा.
पार्टी ने यह नहीं सोचा कि विधायक उसके काबू में क्यों नहीं है, पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व से उनका अलगाव इतना पक्का क्यों है. कांग्रेस की चिंता बस इतनी भर थी कि कहीं कांग्रेसी विधायकों के वोट ना खिसक जाएं.
विधायकों की निष्ठा नहीं उनके वोट बचाने की इस विरोधाभासी कोशिश में कांग्रेस मतदान की आखिरी घड़ी तक नाकाम रही.
खैर कहिए कि किस्मत ने साथ दिया जो दो विधायकों ने अपनी निष्ठा बदलने के उत्साह में मतपत्र पर लगा अपना ठप्पा सरेआम दिखाया तो चुनाव-आयोग के सामने कांग्रेस को फरियाद करने का मौका मिला कि इनके मतदान को अवैध माना जाय.
मामला खासा तकनीकी था लेकिन चुनाव-आयोग ने अपनी मर्यादा निभाई, दो कांग्रेसी विधायकों के मतदान को आयोग ने अवैध करार दिया. अहमद पटेल जीते और कांग्रेस को लगा उसकी नाक कटते-कटते आखिर को थोड़ी सी बच गई.
इस बची हुई नाक के साथ अब कांग्रेस क्या यह कहेगी कि गुजरात में आखिरकार उसे अपने विधायकों से अपने ही उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करवाने में कामयाबी मिली!
चुनाव में धन का खेल नया नहीं है, सांसदों-विधायकों के जोड़-तोड़ का खेल नया नहीं है, ना ही ‘तंत्र’ के आगे मजबूर होते ‘लोक’ की चिंता ही नई है— फिर भी एक नई बात दिख रही है.
दिख रहा है कि चुनाव-आयुक्त तो लोकतंत्र की चिंता कर रहा है लेकिन विपक्ष होने की जिम्मेदारी निभा रहे दलों यानी जिन्हें नई सरकार देने के संकल्प के साथ सचमुच चुनाव लड़ना है-- उन्हें यह चिंता जरा भी नहीं सता रही.
यह बैठे-ठाले का विपक्ष है
अगर विपक्ष को अपनी जिम्मेदारी का अहसास होता तो ‘लोकतंत्र के फलने-फूलने’ की चिंता चुनाव-आयुक्त से ज्यादा खुद को एकजुट करने की कोशिश में लगे विपक्ष दलों को सताती.
विपक्ष नाम की शै फिलहाल संसद में तो कहने भर को दिख भी जाती है लेकिन सड़क-चौराहों के धरना-प्रदर्शन या लोगों की बातचीत का कोई एजेंडा बनाती जरा भी नहीं दिखती.
क्या आपको हाल-फिलहाल की कोई ऐसी घटना याद है जिसमें आपने सत्तापक्ष के खिलाफ विपक्ष को कोई मुद्दा उछालते, आंदोलनी भाव से लोगों के बीच जाते देखा हो? विपक्ष को शक है कि वह कुछ कहेगा तो लोग उसके साथ आएंगे भी! यह बैठे-ठाले का विपक्ष है- इस विपक्ष के पास ना तो विरोध का विचार है ना ही लोगों के बीच जाने का उत्साह. दरअसल संकट इससे कहीं ज्यादा बड़ा है.
एनडीए शासन के तीन साल बीत चुके हैं लेकिन विपक्ष अभी तक यही नहीं जान पाया है कि बीजेपी के खिलाफ उसका मुद्दा क्या हो.
विपक्ष सत्ताधारी गठबंधन के विरोध के लिए अभी तक मुद्दे टोह रहा है. वह आंख बंद किए बैठा है कि अगर कहावत चरितार्थ हुई तो बटेर किसी दिन उसके हाथ लग ही जाएगा.
सिर्फ पीछे का सोच रहा है विपक्ष
इसी का प्रमाण है कि बीजेपी दो साल आगे की सोच रही है लेकिन इस तैयारी के सामने विपक्ष बनाने के लिए चेहरा और एजेंडा ढूंढ़ रही पार्टियां बीते वक्तों की बात दोहरा रही हैं, उन्हें बस पीछे का सूझ रहा है.
2019 यानी अगली लोकसभा के गठन के साल के आने में अभी लगभग दो साल शेष हैं लेकिन सत्तापक्ष अभी से चुनाव की तैयारी कर रहा है. बीजेपी के रणनीतिकार अमित शाह ने 2019 के चुनावों में बीजेपी के लिए 360 सीटों को जीतने का लक्ष्य रखा है. बीजेपी की 2014 की जीत पुरानी नहीं पड़ी तो भी वह 2019 की जीत के लिए निकल पड़ी.
लेकिन बीजेपी की इस जीत की भूख के सामने विपक्ष की तैयारी क्या है? विपक्ष तो एनडीए शासन के बीते तीन सालों के हासिल-नाहासिल के बारे में भी नहीं सोच पा रहा. प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त के दिन लाल किले से तीन सालों की कामयाबियों के आंकड़े गिनाए- क्या आपने विपक्ष को इन आंकड़ों पर अंगुली उठाते देखा-सुना?
ले-देकर विपक्ष के पास बचा है साझी विरासत को बचाने का मंत्र लेकिन साझी विरासत या साझा-संस्कृति के चूल्हे पर अपनी चुनावी हांडी विपक्ष बीते तीन सालों में कितने सूबों के चुनाव में चढ़ाने पर सफल हुआ? क्या इस विचार में बीजेपी के ‘न्यू इंडिया’ नाम के विचार का विकल्प बनने की सलाहियत अब भी कायम है?
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