2001 की फिल्म 'गदर: एक प्रेम कथा' में एक राष्ट्रवाद से भरा हुआ दृश्य है जहां सनी देओल के चरित्र, तारा सिंह को इस्लाम मंजूर करने के लिए कहा जा रहा है, ताकि उनके पाकिस्तानी ससुर (अमरीश पुरी) उन्हें स्वीकार कर सकें और उन्हें अपनी पत्नी और बच्चे के साथ रहने की अनुमति दे सकें. इस मशहूर दृश्य में, तारा सिंह 'इस्लाम जिंदाबाद' और 'पाकिस्तान जिंदाबाद' तो कह देते हैं, लेकिन जब 'हिंदुस्तान मुर्दाबाद' कहने के लिए कहा जाता है, तो वह गुस्से से भर जाते हैं और दोहराते हैं कि 'हिंदुस्तान जिंदाबाद था, जिंदाबाद है और जिंदाबाद रहेगा.'
अब आम तौर पर लोग मानते हैं कि यह उनकी देशभक्ति की भावना और मातृभूमि के प्रति प्रेम के कारण है, यह शायद सच हो भी सकता है, हालांकि, एक वैकल्पिक सिद्धांत यह हो सकता है कि वह केवल हिंदुस्तान वापस आने पर राजद्रोह के मुकदमे से डर रहे थे. राजद्रोह, जैसा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124 A में दिया गया है, जब कोई भी सरकार के प्रति घृणा या अवमानना या दुर्भावना जाहिर करने का प्रयास करता है, के मामले के संदर्भ में बात करता है. यदि आप अनुभाग को पढ़ते हैं, तो यह बहुत स्पष्ट है कि राजद्रोह का संदर्भ सरकार से है, न कि देश से. ऐसा इसलिए है क्योंकि 1870 में धारा 124A के रूप में ब्रिटिश सरकार की ओर से, भारतीय कानूनी प्रणाली में राजद्रोह लाया गया था.
इसे उस समय की अंग्रेज सरकार के खिलाफ असंतोष फैलाने वालों को रोकने के लिए लाया गया था. बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी अधिक प्रसिद्ध नामों में से दो हैं, जिन पर इस कानून के तहत मुकदमा चलाया गया था, हालांकि आजादी पाने के बाद इस प्रावधान का अधिकांश प्रयोग अखबारों के संपादकों पर किया गया है.
कानून किस तरह करता है राजद्रोह को परिभाषित?
वर्तमान समय में, हमने कन्हैया कुमार जैसे लोगों पर राजद्रोह का आरोप लगते हुए देखा है. हमने क्रिकेट मैचों में पाकिस्तान का समर्थन करने के लिए लोगों के खिलाफ राजद्रोह के आरोप लगते हुआ भी देखा है. हमने देखा है कि सरकार के हिसाब से जो चीज राष्ट्रवाद या देशभक्ति मानी जाती है, उसके खिलाफ अगर कोई भी आवाज उठाता है, या फिर एक अलग दृष्टिकोण पेश करता है, उन्हें शांत करने के लिए राजद्रोह का कानून एक सुविधाजनक कानूनी उपकरण बन गया है. आइए, इस बात की बारीकियों को समझने की कोशिश करें कि कानून किस तरह राजद्रोह को परिभाषित करता है.
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एक कर्म राजद्रोह माना जाएगा, अगर उसके कारण लोगों में सरकार के प्रति घृणा या अवमानना का अनुभव होता है. यदि कोई व्यक्ति बोले गए या लिखित शब्दों या इशारों का उपयोग करता है, जिसका उद्देश्य लोगों को निम्न कृत्यों की ओर प्रोत्साहित करना है:
- सरकार के अधिकार की अवहेलना, या - सरकार के अधिकार का विरोध करें, तो वह राजद्रोह की श्रेणी में आएगा
यह जरूरी है कि इस कृत्य के कारण, आरोपी ने हिंसा में हिस्सा लिया हो या हिंसा करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया हो या जन अव्यवस्था फैलाई हो . सार्वजनिक अव्यवस्था या हिंसा के माध्यम से लोगों को अवज्ञा करने या सरकार का विरोध करने का प्रयास भी राजद्रोह का कार्य हो सकता है.
उच्चतम न्यायालय ने विभिन्न निर्णयों में माना है कि राजद्रोह का कानून केवल वहीं लागू होता है:
- एक व्यक्ति हिंसा का कारण बनता है, या - एक व्यक्ति लोगों को हिंसा पैदा करने के लिए प्रोत्साहित करता है.
इसलिए राजद्रोह का जुर्म सिद्ध करने के लिए, ऐसे बयान जो सरकार की वास्तविक आलोचना करते हैं और ऐसे बयान जो राष्ट्र के खिलाफ विद्रोह करना चाहते हैं या ऐसा करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते हैं, उनके बीच में अंतर करना बहुत जरूरी है.
बस मुर्दाबाद के नारे ही नहीं हिंसा के लिए उकसाना फैक्टर
जैसा कि रोमेश थापर बनाम महाराष्ट्र राज्य सरकार में चर्चा की गई है, यह एक भेद है जो संविधान के निर्माताओं ने भी स्पष्ट किया है. जैसा कि निर्णय में दिया गया है, अनुच्छेद 13 (2), जो अंततः अनुच्छेद 19 बन गया, मैं से 'राजद्रोह' शब्द का विलोप, यह दर्शाता है कि सरकार की आलोचना करने को, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने के लिए एक आधार के रूप में नहीं माना जा सकता, जब तक यह सार्वजनिक व्यवस्था, सुरक्षा और सरकार के अस्तित्व से संबंधित मुद्दों को आकर्षित नहीं करता. तो सिर्फ 'हिंदुस्तान मुर्दाबाद' कहना ही राजद्रोह नहीं माना जाएगा, जब तक साथ में भारत सरकार को हटाने के लिए लोगों को हथियार उठाने के लिए नहीं कहा जाता और लोग वास्तव में उस बात का अनुसरण करते हैं, जिससे हिंसा हो.
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जब-जब भी राजद्रोह खबर में आता है, आज के हिंदुस्तान में, इस तरह के कठोर कानून के इस्तेमाल पर सवाल उठाए जाते हैं. लेकिन यह यहां एकमात्र मुद्दा नहीं हैं. हालांकि, अब हम अंग्रेजों के शासन नहीं हैं, यह शासन हमारे कानूनों पर एक ऐसा प्रभाव छोड़ गया है जो राज्य और उसके लोगों के बीच संबंधों को अभी तक परिभाषित करता है. संरचनाएं अभी भी वही हैं, और कभी-कभी लोगों के हित के बजाय लोगों के उत्पीड़न के लिए उपयोग की जाती हैं. सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि 'राष्ट्र' और सरकार के बीच का अंतर इस हद तक धुंधला गया है कि सरकारी कामकाज की कोई भी आलोचना, राष्ट्र-विरोधी मानी जाती है.
आलोचना भी राष्ट्र प्रेम का हिस्सा
भारत जैसे लोकतांत्रिक गणराज्य में, हर किसी को अपनी आस्तीन पर हमेशा अपनी देशभक्ति पहनने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है. सरकारी नीतियों की रचनात्मक आलोचना, विभिन्न राज्यों के हस्तक्षेपों की प्रभावशीलता पर बहस को भी राष्ट्र के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाना चाहिए और इस बात की चिंता करना कि राष्ट्र कैसे प्रगति कर रहा है, भी देशभक्ति का रूप माना जाना चाहिए. इसको राजद्रोह नहीं कहा जा सकता.
इसका मतलब यह नहीं है कि राजद्रोह पर कानून का कोई समकालीन प्रयोग नहीं है. सभी कानूनों का दुरुपयोग हो सकता है. एक तर्क दिया जा सकता है कि राजद्रोह पर कानून, यदि सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या और निर्देशों के हिसाब से लागू किया जाता है तो यह कानून भारतीय राष्ट्र की अखंडता की रक्षा करता है और उन तत्वों को हतोत्साहित करता है, जो सार्वजनिक अव्यवस्था का प्रोत्साहन करते हैं और लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकारों को हटाने का प्रयत्न करते हैं.
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यदि कल, कोई व्यक्ति दिल्ली के लोगों को भारतीय राष्ट्र से अलग करने के लिए प्रोत्साहित करता है और उन्हें राज्यतंत्र को उखाड़ फेंकने के लिए या हथियार उठाने के लिए उकसाता है, यह एक ऐसी स्थिति होगी जिसमें राजद्रोह पर कानून लागू हो सकता है. समस्या यह है कि यह कानून ऐतिहासिक रूप से ऐसे लागू नहीं किया गया है. समस्या यह है कि इस कानून का एक अति संवेदनशील सरकार की ओर से ज्यादातर दुरूपयोग किया गया है, इसका उपयोग गैर-कानूनी तरीके से किया गया है.
पहले पैराग्राफ में बताई गई परिस्थिति में, तारा सिंह के राजद्रोह के कानून का डर, उचित है; क्योंकि यह बात तो तय है कि अगर कोई भी इंसान जो 'हिंदुस्तान मुर्दाबाद' कह रहा है, उससे बहुत जल्द यह समझना पड़ेगा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए क्या कहती है.
(लेखक सुमेश श्रीवास्तव 'न्याया' में काम करते हैं. यह संगठन सरल भाषा में भारत के कानूनों की व्याख्या करता है)
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