पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रेनकोट (बरसाती) वाले बयान ने सियासी प्याले में फिर से तूफान मचा दिया है और कांग्रेस को संसद ठप करने का नया बहाना मिल चुका है.
मोदी ने डॉ. मनमोहन सिंह का नाम लेकर सदन में कहा, 'शायद ही कोई ऐसा अर्थ-जगत का व्यक्ति होगा जिसका हिंदुस्तान की 70 साल की आजादी में आधा समय ...इतना दबदबा रहा हो. और, इतने घोटालों की बातें आयीं, लेकिन... उन पर एक दाग नहीं लगा. बाथरूम में रेनकोट पहन करके नहाना, ये कला तो डॉक्टर साहब ही जानते हैं!'
बवाल काटने का मिला मौका
अब यह बयान जिनको चुभ रहा है वे बवाल काट रहे हैं और बहुत-से लोग इस पर ठहाके लगा रहे हैं.
कुछ भद्र लोग कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री को ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थी, इससे मर्यादा टूटी है. शायद बाथरूम शब्द ने ऐसी ध्वनि पैदा की है.
अगर मोदी केवल इतना कहते कि रेनकोट पहन कर बारिश में नहाने की कला डॉक्टर साहब ही जानते हैं, तो शायद संदेश वही जाता और जिन्हें बात चुभी है उन्हें बवाल काटने का उतना मौका नहीं मिलता.
क्या है ईमानदारी की परिभाषा
मगर इस शाब्दिक मार-काट के बीच यह सवाल सामने आता है कि क्या एक व्यक्ति भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा होते हुए भी बिल्कुल ईमानदार हो सकता है? इसका जवाब हां भी है, और ना भी.
अगर मनमोहन सिंह पर मोदी रेनकोट पहन कर नहाने की चुटकी ले सकते हैं, तो मोदी के लिए भी कहा जा सकता है खुद उनकी ईमानदार छवि कीचड़ में खिले कमल की तरह है.
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कांग्रेस के बारे में जनधारणा अगर महाभ्रष्ट पार्टी की बन चुकी है, तो दूसरी जनधारणा यह भी है कि बीजेपी के लोग भी कांग्रेस से कुछ अलग नहीं हैं.
पर सवाल यही कि एक सिरे से भ्रष्ट हो चुकी व्यवस्था के बीच ईमानदारी की परिभाषा क्या हो?
ईमानदारी के भी अलग-अलग रंग
ईमानदारी के भी अलग-अलग रंग हैं. एक रंग है जो कहता है कि न खाऊंगा न खाने दूंगा. पर ऐसे लोग इस व्यवस्था में तब तक नहीं टिक सकते, जब तक वे खुद शीर्ष पर न हों.
हर जगह भिड़ जाने वाले लोग इस व्यवस्था में अमिताभ ठाकुर बन जाते हैं, जो आईजी होते हुए खुद किसी थाने में जाएं और दारोगा एफआईआर लिखने से मना कर दे. ऐसे कुछ लोग एस. मंजूनाथ भी बन जाते हैं.
कुछ लोग यह जानते हैं कि शीर्ष पर पहुंचने से पहले बहुत पंगे नहीं लेने हैं. याद कीजिए टी. एन. शेषन को. चुनाव आयोग के शीर्ष पर पहुंचने से पहले उनकी छवि एक आम नौकरशाह की ही थी. मगर वहां पहुंचने के बाद, एक संवैधानिक सुरक्षा हासिल हो जाने के बाद, उनका और ही रंग सामने आया.
यह व्यवस्था 'न खाऊंगा' वालों को तो बर्दाश्त कर लेती है, पर जैसे ही कोई कहे कि 'न खाने दूंगा', तो दुश्मन बन जाती है. ऐसे में बहुत-से ईमानदार लोग सोचते हैं कि कौन सारे जमाने से दुश्मनी ले. वे खुद गलत नहीं करते, पर उनके सामने कोई और गलत कर रहा हो तो टांग भी नहीं अड़ाते.
ऐसे ज्यादातर लोग व्यवस्था का हिस्सा नहीं बन पाते और उपेक्षित रहते हैं. उन्हें ऐसी जगहों पर रखा जाता है, जिससे वे बाकी व्यवस्था के लिए बाधा न बनें.
पर इनमें से कुछ लोग व्यवस्था के बीच अपने लिए जगह बनाना भी जानते हैं. व्यवस्था भी ऐसे कुछ लोगों को डिस्प्ले में सजे तमगों की तरह सम्मानित करके रखती है.
'ईमानदार लोगों' की व्यवस्था में जगह
मगर उनकी भी एक सीमा होती है. आप किरण बेदी हों तो आपको जेल की जिम्मेदारी मिल सकती है, पुलिस रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट जैसी जगह पर बिठाया जा सकता है, लेकिन पुलिस कमिश्नर नहीं बनाया जा सकता है.
ईमानदार लोगों को ज्यादा जिम्मेदारी की जगह तभी मिल पाती है, जब वे व्यवस्था के पक्ष में 'ईमानदारी से काम' कर सकें. जब 2जी घोटाले की खूब चर्चा चल रही थी, तब एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया था कि मंत्री जी अपने पास कुछ नहीं रखते, सारा चेन्नई पहुंचा देते हैं. यह उनकी 'ईमानदारी' थी.
व्यवस्था को ऐसे 'ईमानदार' लोगों की बहुत जरूरत होती है. जयंती नटराजन ने भी कुर्सी चले जाने के बाद 'ईमानदारी से' बताया था कि उनका काम तो केवल दस्तखत करना था. कहां दस्तखत करना है, यह बताने के लिए उनके पास पर्चियां आती थीं.
डॉ. मनमोहन सिंह ने भी 10 साल तक बड़ी ईमानदारी से प्रधानमंत्री पद संभाला है. उनकी ईमानदारी किस तरह की थी, इस बारे में उनके मीडिया सलाहकार रहते हुए नजदीक से सब कुछ देखने वाले संजय बारू अपनी किताब में बहुत कुछ लिख चुके हैं.
जिस शासन में भ्रष्टाचार की काली बूंदों की बारिश हो रही हो, उस शासन के पदेन मुखिया बिना किसी दाग के बाहर निकले. बिना रेनकोट के यह कैसे संभव हो पाता!
( लेखक आर्थिक पत्रिका 'निवेश मंथन' और समाचार पोर्टल शेयर मंथन www.sharemanthan.in के संपादक हैं. इससे पहले वे लंबे समय तक ज़ी बिजनेस, एनडीटीवी, आजतक और अमर उजाला से जुड़े रहे हैं. ईमेल : rajeev@sharemanthan.com)
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