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पहले भी दो प्रधानमंत्री आरक्षण के मुद्दे पर नहीं बचा पाए थे सरकार, कहीं गलती तो नहीं कर रहे मोदी

इतिहास पर नजर डालें तो बैलेंस करने में कई प्रधानमंत्री दोबारा शासन नहीं कर पाए हैं. 90 के दशक की राजनीति से वर्तमान प्रधानमंत्री तीसरे राजनेता हैं, जिन्होंने ये जुआ खेला है.

Updated On: Jan 09, 2019 09:20 AM IST

Syed Mojiz Imam
स्वतंत्र पत्रकार

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पहले भी दो प्रधानमंत्री आरक्षण के मुद्दे पर नहीं बचा पाए थे सरकार, कहीं गलती तो नहीं कर रहे मोदी

नरेंद्र मोदी सरकार तीन राज्यों में बीजेपी की हार से घबरा गई है. पार्टी का मानना है कि एससी-एसटी एक्ट में संशोधन की वजह से उच्च जाति के हिंदू नाराज हो गए हैं. इस वजह से बीजेपी को इन जातियों ने वोट नहीं किया है. इन सभी जातियों का ज्यादा वोट बीजेपी को मिलता रहा है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सरकार के रवैये से ये तबका पार्टी से दूर हुआ है.

लोकसभा चुनाव का काउंटडाउन शुरू हो गया है. मोदी सरकार ने उच्च जाति को आरक्षण का लॉलीपाप दिया है. सरकार का संविधान संशोधन विधेयक पास हो जाएगा, क्योंकि चुनाव के समय कोई भी दल इसका विरोध करने का साहस नहीं कर पाएगा. हालांकि आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट ने 50 फीसदी का कैप लगा रखा है.

क्यों अवसरवादी राजनीति?

पिछले साढ़े चार साल में मोदी सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया है. बीएसपी जैसी छोटी पार्टी भी इस तरह के आरक्षण की वकालत करती रही है, लेकिन सरकार साहस नहीं जुटा पाई थी. चुनाव से ऐन पहले इस तरह का राजनीतिक कदम सरकार अपने फायदे के लिए उठा रही है. इस पूरे काम में सरकार जल्दबाजी में है. इतने बड़े काम के लिए सर्वदलीय बैठक भी बुलाना मुनासिब नहीं समझा है. इसका मकसद साफ है कि बीजेपी खुद क्रेडिट लेना चाह रही है.

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हालांकि इसका नुकसान भी है अचानक ऐसा फैसला करने से पूरा मामला कानूनी पचड़े में फंसता है तो उंगली बीजेपी पर ही उठेगी. दूसरा इतना बड़ा काम करने के बाद भी अगर दूसरे आरक्षित वर्ग गोलबंद हुए तो नुकसान बीजेपी का ही होगा. ना खुदा मिलेगा ना विसाल-ए-सनम. इससे पहले एससी/एसटी एक्ट में संशोधन का राजनीतिक नुकसान बीजेपी को झेलना पड़ा है.

चुनाव से पहले तुष्टिकरण

narendra modi

उच्च जाति में आर्थिक तंगी है. इससे इनकार नहीं किया जा सकता है. हालांकि 8 लाख का इनकम लेवल ज्यादातर सवर्ण जातियों को इस दायरे में ले आएगा. जो गरीब सवर्ण हैं उनको इसका लाभ नहीं मिल पाएगा. जिस आधार पर ये पूरी कवायद चल रही है. उसके फेल होने की आशंका ज्यादा है. इसलिए ये तुष्टिकरण से ज्यादा कुछ नहीं है. बल्कि इससे बवाल पैदा होगा.

सरकार ने ना कोई स्टडी कराई है. ना ही कोई कमेटी बनाई है. एक बार ये सीमा बढ़ाई गई तो कई ओर इसकी मांग उठ सकती है. खासकर अल्पसंख्यक वर्ग की तरफ से जिनके पास सच्चर कमेटी जैसा दस्तावेज है. उनको नई सरकार किस तरह से इनकार कर पाएगी?

चुनाव के ऐन वक्त क्या मिलेगा

बीजेपी के इस पूरे फैसले से चुनाव की मजबूरी साफ नजर आ रही है. हालांकि चुनाव के वक्त के पहले लिए गए फैसले ज्यादा कारगर साबित नहीं हुए हैं. ये राजनीतिक बैलेंसिंग कभी भी बैलेंस बिगाड़ सकती है. सोशल मीडिया पर तस्वीर वायरल हो रही है, नोटा के बदले कोटा जिसमें प्रधानमंत्री सवर्ण मतदाता के पीछे कोटा लेकर दौड़ रहे हैं.

हालांकि इतिहास पर नजर डालें तो बैलेंस करने में कई प्रधानमंत्री दोबारा शासन नहीं कर पाए हैं. 90 के दशक की राजनीति से वर्तमान प्रधानमंत्री तीसरे राजनेता हैं, जिन्होंने ये जुआ खेला है. सबसे पहले राजीव गांधी का नाम है. दूसरे वीपी सिंह का नाम आता है.

राजीव गांधी 1984-1989

राजीव गांधी इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री बने, फिर चुनाव में प्रचंड बहुमत मिला जिसमें कांग्रेस के 403 सांसद चुने गए थे. इस बहुमत के बाद राजीव गांधी का पाला ट्रिपल तलाक की पीड़ित शाह बानो प्रकरण से हुआ. 1985 में शाह बानो प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने भरण पोषण के हक में फैसला दिया पहले राजीव गांधी ने इस फैसले से सहमति जताई, तब उनकी सरकार के मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने मुस्लिम जमातों की मांग को खारिज कर दिया था.

Rajiv-Gandhi

राजीव गांधी

अचानक राजीव गांधी मुस्लिम संगठनों के दबाव में आ गए और कोर्ट का फैसला संसद ने पलट दिया. इस वाकये के बाद राजीव गांधी को लगा कि गलत हो गया है. राजीव गांधी ने फिर बहुसंख्यक वर्ग को खुश करने की कवायद शुरू की थी. जिसमें अयोध्या में विवादित परिसर का 1986 में ताला खुलवाने में अहम भूमिका निभाई थी. राम मंदिर के निर्माण के लिए 1989 में शिलान्यास भी कराया, इस साल चुनाव हुए नतीजे सबके सामने हैं. बोफोर्स का मसला चुनाव में हावी हो गया और वीपी सिंह प्रधानमंत्री बन गए थे.

कमंडल की जगह मंडल

वीपी सिंह की सरकार बनते ही बीजेपी ने अयोध्या आंदोलन तेज कर दिया. लाल कृष्ण आडवाणी ने रथ यात्रा का एलान कर दिया. इस यात्रा के जवाब में अगस्त 1990 में वीपी सिंह ने बी.पी. मंडल आयोग की सिफारिश लागू कर दी. जिसमें पिछड़े वर्ग को रिजर्वेशन दिया गया लेकिन इसके खिलाफ इतना भयानक आंदोलन हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने स्टे लगा दिया था.

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वीपी सिंह को कदम वापस खींचना पड़ा था. इस आंदोलन में कई छात्रों को जान से हाथ धोना पड़ा था. 25 सितंबर 1990 को एल.के. आडवाणी ने रथ यात्रा शुरू की थी. बिहार में आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया. बीजेपी ने सरकार गिरा दी. वीपी सिंह की पार्टी टूट गई और कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर की सरकार बन गई.

पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह

विश्वनाथ सिंह

तिहासिक गलती दोहरा रहे मोदी

बैलेसिंग राजनीति का घिसा-पिटा फॉर्मूला नरेंद्र मोदी सरकार अपना रही है. बीजेपी के विरोधी चुनावी स्टंट बता रहे हैं. बीजेपी के समर्थक मास्टरस्ट्रोक से नवाज रहे है. हालांकि ये सिर्फ लाज बचाने की तरकीब है. इससे ये साबित हो रहा है कि सरकार चुनाव में जाने के लिए नया नैरेटिव नहीं ढूंढ पा रही है. बल्कि जो एजेंडा सरकार के सामने होना चाहिए उसे नजरअंदाज किया जा रहा है.

ये भी कहा जा सकता है कि सरकार असल मुद्दों से मुंह फेर रही है. जिस तरह कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने लिंगायत को अलग धर्म का दर्जा देने की कोशिश की थी. जब नतीजे आए तो कांग्रेस को फायदा नहीं मिला था. 2014 से पहले तत्कालीन यूपीए सरकार ने जैन समुदाय को अल्पसंख्यक दर्जा दिया था.

2019 में सरकार के सामने चुनौती

नरेंद्र मोदी सरकार के सामने पांच साल की एंटी इनकंबेसी है. कई अहम मसलों पर 2014 का वायदे पूरे नहीं हुए. काला धन का मामला, बेरोजगारी और आर्थिक कमजोरी अहम मसला हैं. नोटबंदी पर सरकार कोई माकूल जवाब नहीं ढूंढ पा रही है. किसान की बदहाली पर सरकार उदासीन है. आवारा पशु फसल की तबाही का कारण बन गए हैं. मसले यही हैं देश के सामने, जिनका ठीक से सामना करने पर ही जनादेश मिल सकता है.

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