राजनीति भी गजब अनिश्चितताओं का खेल है. यहां कब दोस्त दुश्मन हो जाए और दुश्मन दोस्त ये अंदाजा लगाना भी मुश्किल होता है. अखिलेश का गठबंधन मायावती के साथ इस कदर परवान चढ़ेगा इसका आभास गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव में बीजेपी की हार के बाद लोगों को लगने लगा था लेकिन अखिलेश-मायावती के रिश्ते यूपी विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद इस कदर प्रगाढ़ हो जाएंगे, इसकी उम्मीद शायद ही किसी को थी.
कमाल देखिए संभावनाओं का खेल यहीं खत्म नहीं हुआ. बिहार के एक और युवा तुर्क जो प्रदेश में कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन बनाने की कसमें कई बार खा चुके हैं वो अखिलेश और मायावती की दोस्ती का औपचारिक ऐलान होने के बाद सीधा लखनऊ पहुंच गए और मायावती की शरण में जाकर उनकी शान में तारीफों के पुल बांध दिए. इतना ही नहीं आर्शीवाद लेने के बाद बीजेपी को जमकर लताड़ा लेकिन कांग्रेस को महागठबंधन में शामिल नहीं किए जाने को लेकर कुछ भी बोलना गैरजरूरी समझा. जाहिर है संभावनाओं के इस खेल में तेजस्वी लखनऊ आकर एक तीर से कई निशाने लगा बैठे हैं, जिसमें वो महागठबंधन के प्रमुख घटक दल कांग्रेस सहित जीतन राम मांझी को मैसेज देने में कामयाब भी हुए हैं. इतना ही नहीं यूपी में कांग्रेस रहित महागठबंधन को समर्थन देकर एक तरह से तीसरे मोर्चे के गठन को स्वीकार्यता भी प्रदान कर दी.
कांग्रेस को साधने की कोशिश?
जिस कांग्रेस को मायावती और अखिलेश यादव द्वारा बुलाए गई प्रेस कॉफ्रेंस में मायावती ने खूब भला बुरा कहा, उसी मायावती से मिलने तेजस्वी यादव अगले ही दिन पहुंच गए. इतना ही नहीं महागठबंधन बनने की प्रक्रिया को खूब सराहा और मायावती को परिपक्व राजनीतिज्ञ कहकर उनसे आशीर्वाद भी लिए. मिलने का सिलसिला मायावती तक ही नहीं रुका. ये सफर जारी रहा अखिलेश यादव से मुलाकात तक और महागठबंधन के निर्माण की प्रक्रिया को तेजस्वी ने मीडिया के सामने भी खूब सराहा. जाहिर है तेजस्वी पिता लालू की तरह ही बिहार में कांग्रेस पर मज़बूत पकड़ पर ढील देने के मूड में दिखाई नहीं पड़ते हैं. वो तीसरे मोर्चे के बनने की प्रक्रिया को सराह कर एक प्रेशर ग्रुप बनने की कवायद में अहम भूमिका निभा रहे हैं ताकी कांग्रेस पर मजबूत पकड़ रखी जा सके.
दरअसल तीन प्रदेशों में मिली जीत के बाद कांग्रेस का आत्मविश्वास बढ़ा है और कांग्रेस इस आधार पर ज्यादा सीटें मांग रही है. कांग्रेस के मुताबिक पहले उसके चार विधायक थे और तब उसने आरजेडी के साथ मिलकर 12 सीटों पर चुनाव लड़ा था. कांग्रेस का कहना है कि अब उसके पास 3 लोकसभा सदस्य 27 विधायक और 3 एमएलसी हैं. इसलिए बढ़ते जनाधार को ध्यान में रखते हुए उस हिसाब से सीटों का आवंटन होना चाहिए.
कांग्रेस अपनी मांग को मजबूती से रखने के लिए जल्द शक्ति प्रदर्शन करने जा रही है. पटना के गांधी मैदान की रैली में राहुल गांधी भी शिरकत करने वाले हैं और इस मौके पर कांग्रेस भारी भीड़ जुटाकर महागठबंधन के भीतर और बाहर विरोधियों को अपनी ताकत का अहसास कराने की कोशिश कर रही है.
इससे पहले नवोदित पार्टी के नेता मुकेश साहनी के द्वारा बुलाए गए मांछ भात पर हुई मुलाकात के बाद कांग्रेस के प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल और प्रदेश के महासचिव संजीव सिंह समेत कई नेताओं ने तेजस्वी यादव से मुलाकात कर प्रदेश में महागठबंधन के स्वरूप को लेकर चर्चा करने की कोशिश की. सूत्रों के मुताबिक शक्ति सिंह गोहिल ने कांग्रेस के लिए 15 सीटों पर चुनाव लड़ने की इच्छा जताई, जिस पर तेजस्वी यादव ने हल्की सी मुस्कान के साथ चुप्पी बरकरार रखी.
जाहिर है तेजस्वी महागठबंधन में कई और दलों को जगह देकर मजबूत गठबंधन बनाना चाहते हैं. इसलिए इसमें कई क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर चलना उनकी मजबूरी है. तेजस्वी यादव लखनऊ की यात्रा कर कांग्रेस को ये मैसेज देना चाहते हैं कि कांग्रेस उनके ऊपर सीट शेयरिंग को लेकर दबाव न बनाए वरना यूपी की तर्ज पर चलना उनकी मजबूरी होगी.
जाहिर है राजनीतिक चाल को पैनापन देने की कला में हर नए दिन माहिर दिख रहे तेजस्वी यादव अपने तीर को निशाने पर लगाने में कामयाब नजर आ रहे हैं. इस यात्रा से वो कांग्रेस पर अपनी मजबूत पकड़ बनाए रखना चाहते हैं वहीं यूपी में महागठबंधन की तारीफों का पुल बांधकर तीसरे मोर्चे की स्थापना में अपनी दखलंदाजी भी बढ़ाना चाहते हैं. जाहिर है इस कवायद से कांग्रेस सीट शेयरिंग के मुद्दे पर डिफेंसिव तो दिखेगी ही साथ ही मजबूत तीसरे मोर्चे के गठन को समर्थन देकर अपनी स्थिति मजबूत कर रहे हैं.
मांझी बगावती हुए तो दलित वोटों में कर सकते हैं सेंधमारी
मुलाकात के मायने क्या हैं, इसको लेकर सियासी बवाल उफान पर है. तेजस्वी यादव मायावती से मुलाकात को शिष्टाचार बता रहे हैं, लेकिन महागठबंधन में कांग्रेस को शामिल नहीं किए जाने पर कुछ भी नहीं बोलने को लेकर कई स्वाभाविक सवाल उठने लगे हैं. तेजस्वी यादव परिवार के भीतर तेजप्रताप और अन्य सदस्यों की तुलना में अपनी परिपक्वता का परिचय कई बार दे चुके हैं. वो ही लालू परिवार के असली वारिस हैं, इस पर अब किसी को शक नहीं रह गया है.
राजनीतिक पंडित के मुताबिक आरजेडी बिहार में 'महागठबंधन' का औपचारिक निर्माण कांग्रेस के बगैर नहीं करना चाहेगी लेकिन यूपी में महागठबंधन को समर्थन देकर राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में अपनी महत्ता बनाए रखना चाह रही है. वैसे लखनऊ यात्रा कर तेजस्वी ने एक तीर से कई शिकार किए हैं.
पहला ये कि बिहार में महागठबंधन के नेता लालू प्रसाद हैं या फिर उनके उत्तराधिकारी तेजस्वी यादव जबकि कांग्रेस इस बात पर जोर दे रही है कि 'महागठबंधन' को राहुल गांधी को अपना नेता मान लेना चाहिए क्योंकि वो राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष हैं और मोदी और उनकी पार्टी बीजेपी का सामना कर पाने में कारगर भी. दरअसल कांग्रेस तीन प्रदेशों में चुनाव जीत जाने के बाद राहुल के नेतृत्व को पदस्थापित करने का कोई भी अवसर हाथ से जाने देना नहीं चाहती है.
वहीं मायावती से मिलकर और उनका आशीर्वाद लेकर तेजस्वी दलित समुदाय के मतदाताओं को रिझाने का भी प्रयास कर रहे हैं ताकी बिहार में मांझी का साथ छूटा भी तो पासवान के अलावा अन्य दलित समुदाय के वोट में सेंधमारी किया जा सके. सूत्रों के मुताबिक हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा के नेता लगातार 3 लोकसभा सीटों की मांग पर डंटे हुए हैं और मांझी को फिलहाल 2 सीट देने की बात पर मनाया नहीं जा सका है.
आरजेडी के सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक मांझी महागठबंधन और एनडीए दोनों के शीर्ष नेताओं के संपर्क में हैं. इसलिए सीट बंटवारे के समय तक मांझी किस खेमे में होंगे इसको लेकर महागठबंधन पशोपेश में है. दूसरी तरफ बिहार के एक और दिग्गज दलित नेता रामविलास पासवान एनडीए के मजबूत सहयोगी के तौर पर चुनावी मैदान में होंगे इसलिए दलित मतदाताओं में तेजस्वी पैठ बना सकें इसलिए उन्होंने मायावती का आर्शीवाद लेना जरूरी समझा है.
इस कड़ी में तेजस्वी ने अखिलेश का समर्थन भी जरूरी समझा ताकी यूपी के महागठबंधन के शीर्ष नेताओं से नजदीकी जता भविष्य की संभावनाओं को खुला रखने का खेल जारी रख सकें और प्रेशर ग्रुप के निर्माण में अपना समर्थन देकर कांग्रेस को साधने का कोई मौका हाथ से जाने न दें.
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