अगर बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह किताब लिखते कि उनकी पार्टी के लिए दक्षिण भारत में जीतना कितना जरूरी है, तो तमिलनाडु पर उनकी किताब के अध्याय का शीर्षक यही होता: अगर आप उन्हें हरा नहीं सकते तो उनके साथ हो जाइए. या फिर वो स्कॉटलैंड की ये कहावत इस्तेमाल करते: टूटने से झुकना बेहतर है.
तमिलनाडु में बीजेपी झुकी तो है, बल्कि कुछ ज्यादा ही झुकी है. बीजेपी 2009 से एआईएडीएमके को रिझाने की कोशिश कर रही है. मगर उसकी ये कोशिश इकतरफा ही रही है.
इकतरफा सियासी इश्क के इस किस्से में बहुत से उतार-चढ़ाव और पेंच-ओ-खम देखने को मिले हैं. शायद रूमानी नॉवेल लिखने वाले भी अपने किस्से में इतने मोड़ दिखाने से बचते, जितने बीजेपी और एआईएडीएमके के रिश्तों में हमने देखे हैं.
पहले जयललिता को रिझाने की कोशिश
मिसाल के तौर पर 27 सितंबर 2014 की तारीख ही लीजिए.
उस दिन बेंगलुरू की एक अदालत ने आमदनी से ज्यादा संपत्ति के मामले में जयललिता को मुजरिम ठहराया. खुद को जयललिता की नजदीकी बताने वाली बीजेपी को इस फैसले के बाद शोक मनाना चाहिए था. लेकिन बीजेपी के नेता, जयललिता को लगे इस सदमे से बेहद खुश थे.
जयललिता को सजा होने और उनके इस्तीफे के बाद ओ पन्नीरसेल्वम ने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री का पद संभाला था. बीजेपी को लगा कि तमिलनाडु की सियासत में एक खालीपन आ गया है, जिसे वो भर सकती है. अचानक ही बीजेपी को जयललिता के भ्रष्टाचार के मामलों की याद आ गई. वो जयललिता की सरकार की खामियां तलाशने लगे.
हालांकि केंद्रीय नेतृत्व ने जयललिता के खिलाफ कुछ भी खुलकर कहने से परहेज किया, लेकिन स्थानीय बीजेपी नेता खुलकर जयललिता के खिलाफ बोल रहे थे. शायद केंद्रीय नेता भविष्य में जयललिता से सहयोग के दरवाजे खुले रखना चाहते थे.
जब 11 मई 2015 को कर्नाटक हाई कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट का फैसला पलट दिया और जयललिता को बरी कर दिया, तो बीजेपी के सुर फिर बदल गए. 23 मई 2015 को जब जयललिता फिर से मुख्यमंत्री बनीं, तो उन्हें बधाई देने वालों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले नंबर पर थे.
तमिलनाडु के बीजेपी अध्यक्ष तमिलिसाई सौंदराराजन ने कहा कि भले ही जयललिता का इतिहास बेदाग न हो, लेकिन अदालत ने उन्हें बरी कर दिया है. यानी बीजेपी फिर से जयललिता को रिझाने में जुट गई थी.
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जयललिता ने 1998 में बीजेपी के साथ गठजोड़ दिया था. लेकिन बाद में उन्होंने वाजपेयी सरकार से अचानक समर्थन वापस ले लिया. 1999 में जयललिता ने कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों के साथ मिलकर वाजपेयी की सरकार गिरा दी थी. 2004 में वो फिर बीजेपी के साथ आ गई थीं. वहीं 2009 के आम चुनाव में जयललिता ने तीसरे मोर्चे का साथ दिया था. 2014 में जयललिता ने किसी भी दल से गठजोड़ नहीं किया.
यूं तो तमिलनाडु में आरएसएस तेजी से अपना विस्तार कर रहा है. लेकिन बीजेपी को उस हिसाब से चुनावी कामयाबी नहीं मिल रही है. 1998 में कोयम्बटूर में हुए धमाकों और लालकृष्ण आडवाणी की यात्रा के बावजूद बीजेपी, तमिलनाडु की राजनीति में बड़ा नाम नहीं बन सकी है. 2014 के लोकसभा चुनाव में जयललिता को जबरदस्त कामयाबी मिली थी. जहां पूरे देश में मोदी की लहर थी, वहीं तमिलनाडु में जयललिता ने 39 में से 37 सीटें जीती थीं. बीजेपी को एक सीट और उसकी सहयोगी पीएमके को भी एक ही सीट मिली थी.
जयललिता के बहाने हिंदू वोटबैंक में सेंध की कोशिश
बीजेपी के नेताओं को पता है कि जयललिता ने 2014 में उसी फॉर्मूले से चुनावी कामयाबी हासिल की थी, जिससे मोदी ने विजय हासिल की थी. उन्होंने हिंदू वोट बैंक और विकास के गठजोड़ से बीजेपी को बहुमत दिलाया था.
द्रविड़ियन पार्टी होने के बावजूद जयललिता ने हमेशा हिंदूवाद और भगवान में अपनी आस्था जाहिर की. वो कई तरह के अंधविश्वासों पर भी यकीन करती थीं. इसी वजह से जयललिता को बड़ी तादाद में हिंदू वोट मिलते थे. इनमें तमिलनाडु के ताकतवर गौंडर और थेवर समुदाय के लोग भी शामिल हैं. ये दोनों समुदाय पश्चिमी और दक्षिणी तमिलनाडु में काफी असरदार हैं.
बीजेपी को हमेशा से ये बात मालूम थी कि जयललिता हिंदूवाद और विकास के नाम पर वोट जुटाती हैं. इसीलिए मोदी, पार्टी से इतर निजी तौर पर जयललिता से दोस्ताना ताल्लुकात बनाए हुए थे. वो 2011 में जयललिता के शपथ ग्रहण समारोह में भी गए थे.
2014 में जयललिता की जबरदस्त कामयाबी के बाद बीजेपी को लगा कि उसके पास एआईएडीएमके से सहयोग के सिवा कोई चारा नहीं. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद बीजेपी ने इसकी कोशिश और तेज कर दी. लेकिन जयललिता बीजेपी से गठजोड़ को लेकर आशंकित थीं. उन्हें लगता था कि समझौता करने पर बीजेपी उनके वोट बैंक में सेंध लगा देगी. लेकिन बीजेपी, उनके सामने बिछी जा रही थी, पार्टी हर मुमकिन कोशिश कर रही थी कि जयललिता एनडीए का हिस्सा बन जाएं.
5 दिसंबर 2016 को जयललिता की मौत से भी हालात नहीं बदले. बीजेपी आज एआईएडीएमके से गठजोड़ के लिए पहले से ज्यादा बेकरार दिखती है. उधर, संघ तमिलनाडु में विस्तार की कोशिश में लगातार जुटा हुआ है. आरएसएस ने पिछले ही महीने कोयम्बटूर में अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक आयोजित की थी.
बीजेपी ने जयललिता की मौत के बाद पहले तो उनकी सखी शशिकला से दोस्ती गांठने की कोशिश की. आखिर जया की असली सियासी वारिस शशिकला ही दिखाई देती थीं. 6 दिसंबर को पीएम मोदी चेन्नई जाकर एआईएडीएमके के गम में साझीदार बने. उन्होंने शशिकला को सांत्वना दी. शशिकला को सांत्वना देने की मोदी की तस्वीर अपने आप में बहुत बड़ा सियासी बयान थी.
लेकिन पन्नीरसेल्वम की बगावत और एआईएडीएमके में फूट के बाद जब शशिकला ने ई, पलानिसामी को मुख्यमंत्री बनाया, तो बीजेपी की परेशानी बढ़ गई. बीजेपी के लिए मुश्किल ये थी कि वो टुकडों में बंटी पार्टी के किस धड़े से समझौता करे? एक बंटी हुई पार्टी से गठजोड़ कितना फायदेमेंद होगा, ये भी नहीं कहा जा सकता.
शशिकला पर दांव नहीं
हालांकि बीजेपी ने जल्द ही शशिकला को जयललिता की सियासी वारिस मानने का भरम तोड़ दिया. बीजेपी की नजर में शशिकला बोझ बन चुकी थी, जो सियासी तौर पर काफी भारी साबित हो सकती थीं.
आर के नगर के उपचुनाव से साबित हो गया कि शशिकला का पार्टी में भले ही जलवा हो, जनता के बीच उनकी इमेज अच्छी नहीं. वो आय से अधिक संपत्ति के उसी मामले में जेल में हैं, जिसमें जयललिता को दोषी माना गया था.
शशिकला के भतीजे दिनाकरन के करीबी एक मंत्री के यहां आयकर ने छापे मारे. दिल्ली पुलिस ने भी दिनाकरन के खिलाफ केस दर्ज किया है. उन पर आरोप है कि उन्होंने चुनाव आयोग के अफसरों को रिश्वत देकर एआईएडीएमके के पार्टी सिंबल को हासिल करने की कोशिश की. इन हलचलों से एआईएडीएमके का अंदरूनी संकट और गहरा गया.
शशिकला, दिनाकरन और उनका परिवार अब कमोबेश एआईएडीएमके से बाहर कर दिया गया है. अब पार्टी में पूर्व मुख्यमंत्री ओ. पन्नीरसेल्वम और मौजूदा सीएम ई. पलानिसामी के गुट बचे हैं. अब दोनों ही गुट आपसी विलय और सत्ता की मलाई के बंटवारे को लेकर खींचतान कर रहे हैं. दोनों ही गुटों को विलय की जल्दी नहीं दिखती. लेकिन बीजेपी चाहती है कि दोनों पक्ष जल्दी से समझौता कर लें.
बीजेपी को लगता है कि एआईएडीएमके का एकजुट होना जरूरी है. अब शशिकला बाहर हो चुकी हैं. ऐसे में एकजुट एआईएडीएमके से गठजो़ड़ से बीजेपी को अपना सियासी हित सधता दिख रहा है. इससे आने वाले राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी को काफी मदद मिलेगी. आगे चलकर बीजेपी 2019 के लोकसभा चुनाव में दस सीटों पर लड़ने का दावा भी कर सकती है. इससे 2014 के मुकाबले उसका प्रदर्शन बेहतर होने की उम्मीद है.
मौजूदा खींचतान में बीजेपी को पन्नीरसेल्वम गुट के साथ जाने में ज्यादा फायदा दिखता है. बीजेपी नेताओं को लगता है कि जनता, पन्नीरसेल्वम को ही जयललिता का असली राजनैतिक वारिस मानती है. आखिर जयललिता ने खुद ही पन्नीरसेल्वम को दो बार मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी थी.
बीजेपी को ये भी लगता है कि उसके लिए पन्नीरसेल्वम के साथ चलना ज्यादा आसान होगा. पार्टी को लगता है कि ई. पलानिसामी को जालसाजी से शशिकला ने मुख्यमंत्री बना दिया था. वो जयललिता की विरासत पर कब्जा करने की कोशिश कर रही थीं. वहीं मुख्यमंत्री पलानिसामी ने शशिकला के सितारे गर्दिश में देखकर उनसे किनारा कर लिया.
पलानिसामी और पन्नीरसेल्वम को लेकर बीजेपी की राय हो सकता है कि सही हो. मगर ये यकीन के साथ नहीं कहा जा सकता कि 2019 में बीजेपी को उसकी मनचाही करने की छूट एआईएडीएमके दे देगी. तमिलनाडु ऐसा राज्य है जहां की सियासत बेहद पेचीदा है. यहां वोट बहुत से छोटे समुदायों और जातियों में बंटे हैं. इनके बीच समीकरण बैठाना आसान नहीं होगा.
फिलहाल तो बीजेपी के लिए पन्नीरसेल्वम पर दांव लगाना बेहतर दिख रहा है.
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