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राफेल पर SC का निर्णय: राहुल को अब विनम्रतापूर्वक पीछे हटना चाहिए, सरकार पर फाइटर प्लेन लाने का दबाव बनाना चाहिए

अगर हम ‘मेक इन इंडिया’, को अपनाना चाहते हैं, तो हमें रिलायंस और अन्य सभी सैंकड़ों कंपनियों को इस रेस में शामिल कर उन्हें भारत की मिलिट्री हार्डवेयर उत्पादन प्रणाली में तेज़ी लाने देना चाहिए

Updated On: Dec 15, 2018 04:32 PM IST

Bikram Vohra

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राफेल पर SC का निर्णय: राहुल को अब विनम्रतापूर्वक पीछे हटना चाहिए, सरकार पर फाइटर प्लेन लाने का दबाव बनाना चाहिए

भारत की सुप्रीम कोर्ट ने राफेल डील से संबंधित, कथित अपराध के सभी मामलों (आरोपों) को निरस्त कर दिया है और इसके साथ ही राहुल गांधी का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ़ चलाया जा रहा प्रचंड अभियान औंधे-मुंह आ गिरा है. अब समय आ गया है कि राहुल गांधी को बहुत ही सम्मानपूर्वक तरीके से खुद को इस मामले से जल्द से जल्द अलग कर लेना चाहिए और आसमान में भारत की सुरक्षा करने को तत्पर राफेल फाइटर विमानों के रास्ते से हट जाना चाहिए.

लेकिन, बहुत ही अफ़सोस की बात है कि वैसा होता दिख नहीं रहा है. राहुल गांधी अब भी बहुत ही फूहड़ तरीके से एड़ी-चोटी एक किए हुए हैं, बजाए इसके कि वो अपनी हार मान लेते. वे अब इस मामले में एक JPC यानी जॉइंट पार्लियामेंट्री कमेटी की मांग कर रहे हैं. जिसकी जांच, सुप्रीम कोर्ट की जांच से अलग होगी. JPC की मांग करके राहुल गांधी एक ऐसी चीज़ की मांग कर रहे हैं जो काठ के घोड़े के समान होगा और जिससे उन्हें कभी भी नीचे उतरने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, और वे हमेशा उसपर लदे रह सकते हैं, किसी असाधारण झुकाव या डगमगाहट के दौरान भी. असामान्य तौर पर होता ये आया है कि विरोधी पक्ष ऐसे मसलों पर JPC को बंद या स्थिर (फ्रीज़) करने की मांग करते हैं, जिसपर सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही कोई फैसला सुना दिया है. हालांकि, गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने संकेत दिए हैं कि इस मामले में सरकार की तुरंत ऐसी कोई मंशा नहीं है लेकिन राहुल गांधी पर इसका कोई असर नहीं पड़ रहा है.

भारतीय एयरफोर्स को इन विमानों की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है

लोगों को सिर्फ़ भौचक्का करने और उनके मन में घृणा पैदा करने की नीयत से, आसमान में उड़ने लायक 36 राफेल फाइटर विमानों की खरीद की जो लंबी और थकाऊ प्रक्रिया रही है, उसे और 126 अन्य विमानों के उत्पादन और भारत में किए जाने वाले संयोजन की प्रक्रिया के कारण ऐसा लग रहा है मानो जैसे बोफोर्स विवाद कोई प्रतिष्ठा का मुद्दा था. ये देखते हुए कि कैसे अभी तक इस श्रेणी का पहला विमान भी भारत की धरती तक नहीं पहुंच पाया है, इससे जुड़े ज़हरीले विवादों ने इस पूरे प्रकरण को ही एक बहुत बड़ी गड़बड़ी या बेतरतीबी वाला वाकया बना दिया है. जबकि, भारतीय एयरफोर्स को इन विमानों की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है.

हमें फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद के साथ-साथ भारतीय रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण, एचएएल के विभिन्न वरिष्ठ अधिकारियों, कई एयरमार्शल्स, दसॉल्ट के प्रवक्ताओं और अनगिनत विशेषज्ञों, जानकारों का शुक्रगुज़ार होना चाहिए, जिन्होंने लगातार इस मुद्दे पर अपनी राय और कांग्रेस पार्टी के आरोपों के विरुद्ध जानकारी देते रहे हैं. वरना, राहुल गांधी ने तो ऐसा माहौल बना दिया था कि– हम और आप ये समझ ही नहीं पा रहे थे कि आख़िर ये पूरा माजरा है क्या?

संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण

संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण

एक ऐसा देश जिसकी वायुसेना की मारक क्षमता स्वीकृत तौर काफी जर्जर हो चुकी है, जिसके पास 11 स्कॉवर्डन कम हैं, और 100 से भी ज़्यादा एयरक्राफ्ट चौथी पीढ़ी के हैं, उसके लिए इस तरह से ऐसे 36 लग्जरी विमान खरीद पाना बहुत बड़ी बात है. सच तो ये है कि जब भारत ऐसे समृद्ध विमान खरीदने की हिम्मत कर पा रहा है, तब इस खरीद को राजनीतिक रंग देना, उससे अपने फायदे की सोचना, एक ऐसी ग़लती है जिसे हमें गलती से भी नहीं करना चाहिए.

इसके बावजूद हम एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में व्यस्त हैं. एक भारतीय के तौर पर, जिसके चारों तरफ ऐसे दुश्मन पड़ोसी हों, जो हर समय हमारी सीमा पर अपनी वायुसेना की बदौलत डराने-धमकाने का काम करते हैं, तब मैं ये सबकुछ सुनकर थक सा गया हूं. इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि हिंदुस्तान एरोनॉटिकल लिमिटेड इसे सही तरह से कर पाया या नहीं, वो भी तब जब हम आकाश में चारों तरफ दुश्मनों से घिरे हैं, जहां हम कमज़ोर हैं और जहां से हमपर हमला हो सकता है. ऐसे में हम यहां बैठकर एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं?

चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने बिल्कुल सही जगह पर वार किया जब उन्होंने कहा कि, ‘हमारा देश किसी भी स्थिती में बिना तैयारी या अपर्याप्त तरीके से तैयार नहीं हो सकता है,’ खासकर, लड़ाकू विमानों के मामले में.

वायुसेना के प्रमुख भी एचएएल की कामकाज और उत्पादन से खुश नहीं 

सुप्रीम कोर्ट के द्वारा सुनाए गए फैसले से पहले, राफेल मुद्दे पर जो हालिया खबर आई थी वो दो हफ़्ते पहले तब आई थी जब, हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड के सीईओ आर.माधवन ने, बड़े ही विस्तार से ये बात समझाने की कोशिश की थी कि एचएएल के राफेल बनाने का सामर्थ्य और साधन दोनों ही मौजूद हैं, (क्योंकि वो सुखोई 30 भी बना चुके हैं) लेकिन उनकी कंपनी ने खुद ही इसे नहीं बनाने का निर्णय लिया था. एचएएल वही कंपनी है, जिसे राहुल गांधी के मुताबिक, मोदी सरकार ने अनिल अंबानी को फायदा पहुंचाने के लिए अंतिम समय में बदल दिया था. उनके मुताबिक उनका (एचएएल का) दसॉल्ट के साथ समझौता काम करने के घंटों और तकनीक के आदान-प्रदान के मुद्दे पर एक-राय नहीं बनने के कारण टूट गया था.

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हम लाख चाहकर भी माधवन की इस कोशिश को नकार नहीं सकते हैं जब वो अपनी कंपनी की छवि को ये कहकर बचाने की कोशिश कर रहे हैं कि, हम ‘कर’ सकते थे. लेकिन, ‘कर सकने’, ‘करने’ और ‘करना चाहते थे’, ये सब बातें बेमानी हैं अगर आपने किया नहीं. ऐसे में उनको आखिर कुछ कहने की ज़रूरत ही क्यों आन पड़ी?

आइए, अब हम गले की फांस बनी इस हड्डी को काटते हुए आगे बढ़ें, और एचएएल से जुड़ी कुछ आंतरिक सच्चाईयों से रुबरू हो लें, ताकि हम दिमाग लगाकर तर्कपूर्ण तरीके से इसके इतिहास के संदर्भ में इस पर सोचविचार कर सकें.

एचएएल एक सरकारी कंपनी है और कई अन्य पीएसयू कंपनियों की तरह इसे भी सरकार द्वारा अपनी देखरेख में रख लिया गया था. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि केंद्र सरकार ये डील होने देना चाहती है कि नहीं, ये समझौता हर हाल में होकर रहता. फिर चाहे कर्मचारियों के काम करने के घंटे और उसपर आए खर्चे में फर्क होता या कोई और वित्तीय असहमति. इस बात की परवाह किए बगैर ये डील हर हाल में होकर रहती.

क्या आप एचएएल में ऐसे किसी भी व्यक्ति को जानते हैं, जिसने नई दिल्ली या पीएम मोदी के आदेशों को मानने से इनकार कर दिया है ?

लेकिन, ज़रा रुक कर सोचें. मुमकिन है कि इस पूरी बातचीत या सौदे के दौरान दसॉल्ट ही एचएएल के साथ डील करते हुए खुश नहीं हों. हो सकता है कि वो ही चाहते हों कि वे सार्वजनिक की जगह किसी निजी कंपनी के साथ ये सौदा करें, जहां जवाबदेही किसी भी सरकारी कंपनी से ज्य़ादा होती है और लाल-फीताशाही कम. इसके अलावा वहां काम की डिलीवरी भी समय पर होती है, वरना उसका जुर्माना पड़ता है. एचएएल के कार्य इतिहास पर नज़र डालें तो पाएंगे कि उसके सीवी इस तरह की कोई उपाधि मौजूद नहीं है, न हीं उसकी ऐसी कोई ख़्याति है. न तो उसके नाम हवाई जहाज़ बनाने का कोई कीर्तिमान है, और न ही समय पर काम पूरा करके देता है. पिछले महीने ही एयरचीफ़ मार्शल बीएस धनोहा ने रिकॉर्ड पर कहा था कि, ‘सुखोई की डिलीवरी में एचएएल तीन साल पीछे चल रहा है, जगुआर में हम छह साल पीछे हैं और मिराज में भी दो साल पीछे चल रहे हैं.’

जगुआर एयरक्राफ्ट

जगुआर एयरक्राफ्ट

हम तो उस एलसीए प्रोग्राम का ज़िक्र ही नहीं करते हैं, जो पिछले 35 सालों से चल रहा है और अभी तक पूरा नहीं हुआ है.

अब सवाल ये है कि अगर वायुसेना के प्रमुख भी एचएएल की कामकाज और उत्पादन से खुश नहीं हैं, तो फिर दसॉल्ट को उनसे दिक्कत क्यों नहीं हो सकती है ? आख़िर, ये जो पृष्ठभूमि हमारे सामने है उसे मानने में दिक्कत क्यों है ?  क्या हमें इस बात पर चर्चा नहीं करनी चाहिए कि एचएएल के सीईओ अपनी कंपनी के कामकाज, उसकी उपयोगिता और कार्यक्षमता को न सिर्फ़ बेहतर करे बल्कि दुरुस्त भी ?

और ये जो दिमागी तौर पर एक तमाशा बनाने की कोशिश की जा रही है कि इन फाइटर विमानों को रिलायंस बना रहा है उसे भी एक किनारे रखने की ज़रूरत है. क्योंकि जिन चीज़ों का निर्माण हो रहा है वो सिर्फ़ कुछ कल-पुर्ज़े और अतिरिक्त हिस्से हैं, जिसे चाहे रिलायंस बनाए या एचएएल या कोई और भी बना लेता तो भी दसॉल्ट, उन्हें बड़ी ही आसानी से मैनुफैक्चरिंग ब्लूप्रिंट थमाकर यूं ही चला नहीं जाता. उसकी प्रतिष्ठा ठीक वैसे ही दांव पर लगी है, जैसे राफेल की और वो किसी भी तरह से एक बाहरी कंपनी को बग़ैर पूरी निगरानी और जांच के घटिया सामान बनाने की बनाने की अनुमति नहीं देता. इसलिए, उत्पादन की कुशाग्रता, हुनर और साधन सबकुछ दसॉल्ट के अधीन होता.

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अगर हम ‘मेक इन इंडिया’, को अपनाना चाहते हैं, तो हमें रिलायंस और अन्य सभी सैंकड़ों कंपनियों को इस रेस में शामिल कर उन्हें भारत की मिलिट्री हार्डवेयर उत्पादन प्रणाली में तेज़ी लाने देना चाहिए और इतना ही नहीं उन्हें वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धात्मक होने का भी अवसर देना चाहिए. आज़ादी के 70 सालों के बाद, आज भी हम अपनी मिलिट्री और रक्षा सेवाओं के लिए दुनिया के सामने भीख मांगते हैं.

यहां तक कि चीन और पाकिस्तान के पास भी उनके अपने एयरक्राफ्ट हैं, हालांकि सयुंक्त अभियान के तहत. ठीक ऐसे ही स्वीडन, बेल्जीयम, दक्षिण कोरिया और सऊदी अरब के पास भी जल्द ही स्वदेशी विमान आ जाएंगे. साब डिफेंस एंड सिक्योरिटी ने ब्राज़ील को ग्रिपेन एनजी मल्टी रोल फाइटर देने की पेशकश की थी, जैसे उसने फ्रांस और भारत को की. लेकिन, वहां उसके इस कदम के बाद किसी तरह का विवाद या कीचड़ नहीं उछाला गया.

New Delhi: Congress President Rahul Gandhi holds a cutout of a fighter aircraft during a protest demanding the reinstatement of CBI Director Alok Verma outside the CBI headquarters, in New Delhi, Friday, Oct 26, 2018. (PTI Photo/Arun Sharma) (PTI10_26_2018_000032B)

देश में करीब 500 लोगों को नौकरी के अवसर मिलेंगे

इस पूरे मामले में एक बड़ा मुद्दा उस मुनाफ़े का भी बनाया जा रहा है जो अनिल अंबानी की कंपनी को इस सौदे से होगी. ये संभवत: वही पैसा है जिसमें एचएएल को कोई रूचि नहीं थी और उसने डील नहीं की. विडंबना ये है कि अब उसे ही एक मुद्दा बनाया जा रहा है. हम ये भी भूल रहे हैं कि इस सौदे का 50% फ्रेंच कंपनियों से ऑफसेट प्रोग्रामिंग की मांग कर रहा है. ये वो कंपनियां हैं जो भारतीय मिलिट्री की मैनुफैक्चरिंग सेक्टर को मदद करने के लिए प्रतिबद्ध हैं.

चूंकि, दसॉल्ट के सीईओ एरिक ट्रैपियर ने इस साल की शुरुआत में ही कह दिया था कि- उनकी कंपनी अनिल अंबानी की रिलायंस के साथ जुड़ने जा रही है और उनकी नई कंपनी में 49% का निवेश भी करेगी. उसने इसके अलावा भी कई कंपनियों के साथ समझौते पर हामी भरी थी जिनमें – बीटीएसएल, काईनेटिक, महिंद्रा, मैनी, डिफिस़, भारत इलेक्ट्रोनिक शामिल हैं. इसके अलावा भी अन्य 90 कंपनियों के साथ जल्द ही कई और समझौते होने वाले हैं जिससे देश में करीब 500 लोगों को नौकरी के अवसर मिलेंगे.

जब साल 2017 में अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस ने फ्रांसिसी कंपनी थेल्स के साथ मिलकर काम करना शुरू किया था, ताकि वो रडार और इलेक्ट्रॉनिक वॉरफेयर सेंसर्स के क्षेत्र में काम करे और इसमें भारतीय क्षमता को विकसित करे, तब तो किसी ने शोर नहीं मचाया था. उस अनुभव के बाद, हो सकता है कि दसॉल्ट को लगा हो कि वो दोबारा उसी कंपनी (रिलायंस) के साथ काम करे, जिसके साथ उसने पहले से काम किया हो और संतुष्ट भी हुआ हो. क्योंकि काम के दौरान जान-पहचान और आसानी होना दोनों ही काफी मायने रखता है.

थेल्स इस समय ऑफसेट प्रोग्राम पर एक बिलियन डॉलर तक खर्च कर रहा है. कंपनी के वाइस - प्रेसीडेंट पास्केल सूरिस के अनुसार, ‘हम हज़ारों नौकरियां पैदा करने के रास्ते पर हैं, ऐसी नौकरियां जो उच्चतम तकनीकि क्षमता वाली नौकरी हो.’

इस मसले पर अब वो वक्त आ गया है, जब हर किसी को अपना मुंह बंद कर लेना चाहिए और हमारी कमज़ोर पड़ी वायुसेना में नई जान भरने देना चाहिए. हमारी वायुसेना में इस वक्त काफ़ी पुराने एयरक्राफ्ट के सिर्फ़ 31 स्कॉर्डन हैं, जबकि होने कम से कम 42 चाहिए थे, ताकि दो मोर्चे पर लड़ाई लड़ सके. क्या आप ये जानना चाहते हैं कि हमारे एयरक्राफ्ट पुराने कैसे हो गए हैं? हमने पिछले चार सालों में 31 एयरक्राफ्ट खो दिए हैं, जिनमें मिराज-2000, जगुआर और एमआईजी 27 शामिल हैं.

मैं किसी भी दिन इन तुच्छ नेताओं और अफ़सरशाही के अनर्गल प्रलापों की जगह, आसमान में उड़ते अपने जेट विमानों की गड़गड़ाहट सुनना पसंद करूंगा. इसके लिए राहुल गांधी अगर कुछ कर सकें तो उन्हें इन विमानों की डिलीवरी जल्द से जल्द देश की धरती पर करवाना सुनिश्चित करना चाहिए.

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