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'कमजोर लालू' मजबूत महागठबंधन की जरूरत हैं

लालू यादव के कमजोर होने से नीतीश कुमार की महागठबंधन में दखल और ज्यादा बढ़ जाएगी

Updated On: May 10, 2017 07:53 AM IST

Arun Tiwari Arun Tiwari
सीनियर वेब प्रॉड्यूसर, फ़र्स्टपोस्ट हिंदी

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'कमजोर लालू' मजबूत महागठबंधन की जरूरत हैं

2014 का लोकसभा चुनाव और 2015 का बिहार विधानसभा चुनाव बिहार के लिए कई मायनों में महत्वपूर्ण था. 2013 की गर्मियों से ही 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी में नरेंद्र मोदी को पीएम प्रत्याशी घोषित करने की सुगबुगाहटें तेज हो गई थीं. बिहार के सीएम नीतीश कुमार मोदी को पीएम प्रत्याशी बनाए जाने के पक्षधर नहीं थे. उन्होंने ज्यादा दिन नहीं बीतने दिए और जून में ही एनडीए से अलग हो गए. बाद में सितंबर महीने में बीजेपी ने मोदी को पीएम प्रत्याशी घोषित किया.

नीतीश के इस अलगाव ने बिहार की राजनीति में एक ऐसा गठबंधन बना दिया जो वैचारिक तौर पर बिल्कुल  सिर के बल खड़ा होने जैसा था. मजबूरी में ही सही लेकिन नीतीश कुमार ने लालू यादव के साथ हाथ मिला लिया.

मजबूरी शब्द का प्रयोग इसलिए क्योंकि उत्तर भारत की राजनीति में नीतीश कुमार उन कुछ चुनिंदा नेताओं में शुमार किए जाते हैं जिनके बारे में लोगों का मानना है कि वे उसूलों वाले नेता है. दूसरा कारण ये भी है कि नीतीश कुमार की राजनीति का केंद्रीयविरोध बिंदु लालू यादव और उनका ‘जंगलराज’ ही रहा.

10 सालों तक राज्य की सत्ता से दूर रहा राजद

lalu yadav

बिहार से लालू यादव की सत्ता उखाड़ फेंकने में नीतीश कुमार को एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा था. 2005 में चुनावी हार के बाद लालू यादव का राज्य की सत्ता में 2015 तक एक तरीके से अवसान काल ही रहा. क्योंकि इन चुनावों के बाद एक और विधानसभा चुनाव में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन ने राजद को सत्ता की हवा तक नहीं लगने दी. लेकिन 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में दोनों चिरप्रतिद्वंदियों ने हाथ मिलाया. जबरदस्त कामयाबी हासिल की. कामयाबी भी ऐसी कि राजद जेडीयू से भी बड़ी पार्टी बनकर उभरी.

बिहार के मुख्यमंत्री फिर नीतीश कुमार बने लेकिन इस बार उनके पीछे लालू के छोटे बेटे तेजस्वी भी उपमुख्यमंत्री के तौर पर पीछे लगा दिए गए.

यही वो समय था जिसके बाद दिल्ली और बिहार में महागठबंधन की मजबूती की बात हर कुछ समय के बाद उछल ही जाती है. कभी राबड़ी देवी बयान दे देती हैं कि जनता तेजस्वी को सीएम के तौर पर देखना चाहती है तो कभी जेडीयू की तरफ से खबर आ जाती है कि राजद वाले गठबंठधन में ठीक तरीके सहयोग नहीं कर रहे हैं.

कई बार नीतीश कुमार के बयानों ने भी इस आशंका को बल दिया. जैसे नोटबंदी के समय पीएम नरेंद्र मोदी को बिहार सीएम का पूरा सहयोग मिला. पीएम ने भी नीतीश कुमार के पूर्ण शराबबंदी के संकल्प को खूब सराहा.

ये जब-जब होता है, तब-तब महागठबंधन की मजबूती सवालों के घेरे में आ जाती है. दरअसल बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों के दौरान खुद नीतीश कुमार ने भी इस बात की कल्पना नहीं की होगी कि राजद उनसे बड़ी पार्टी बन जाएगी.

राजनीति में अक्सर ऐसा होता है कि नेताओं को उनके तसव्वुर से बहुत ज्यादा या बहुत कम नसीब होता है. हाल में देश के कई चुनाव इसके गवाह हैं.

हां, तो बात नीतीश कुमार की. विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बाद से लालू यादव के राजनीतिक नखरे और बयानबाजी भी ज्यादा तेज हो गई थीं. बिहार की राजनीति के समझने वाले जानकारों का तो ये तक मानना है कि इस गठबंधन में नीतीश कुमार लगातार कमजोर पड़ रहे थे. लेकिन लालू को भी इस बात का पूरा भान है कि चुनाव में वोट नीतीश कुमार के नाम पर ही मिले थे.

नीतीश के और मजबूत होने के संकेत

NITISH KUMAR

अब सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने के बाद महागठबंधन की मजबूती एक बार फिर चर्चा में है. लेकिन जिन्हें ऐसा लगता है कि लालू के कमजोर होने से गठबंधन कमजोर होगा वो शायद ये बात भूल रहे हैं कि बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार के समक्ष सिर्फ एक लालू यादव ही ऐसे नेता थे जो उनको कमजोर कर सकने की स्थिति में थे.

ये स्थिति साफ है कि चारा घोटाले में लालू यादव पर कानून का फंदा जितना कसेगा नीतीश कुमार गठबंधन में अपने आप उतने ही मजबूत होते चले जाएंगे. प्रदेश और उससे बाहर की भी राजनीति में उनकी मोलभाव की ताकत बढ़ेगी ही. लालू के दोनों ही बेटे नीतीश कुमार के पीछे चलने के अलावा फिलहाल राजनीति में दूसरी हैसियत नहीं रखते हैं. इसलिए कमजोर होते लालू मजबूत होते नीतीश कुमार और मजबूत महागठबंधन की बानगी भर हैं.

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