दो दिन पहले, बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने एक बयान दिया था. उन्होंने कहा था कि समाजवादी पार्टी (एसपी) और बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के बीच बना गठबंधन 2019 लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के लिए एक चुनौती होगा.
महागठबंधन बीजेपी के लिए चुनौती!
अगर हम 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करते हैं, तो पाते हैं कि सूक्ष्म स्तर पर यह गठबंधन बीजेपी के लिए निश्चित रूप से एक चुनौती है. क्योंकि इस गठबंधन ने लोकसभा चुनाव में 41.8% वोट हासिल किए थे. ये निश्चित रूप से एक चुनौतीपूर्ण वोट शेयर है. हालांकि, उसी चुनाव में बीजेपी ने 42.30% वोट पाए थे. यह प्रतिशत तब भी बीएसपी-एसपी गठबंधन से अधिक था. हालांकि, इस महागठबंधन में शायद कांग्रेस भी शामिल होगी, जिसकी लोकसभा चुनाव में 7.5% वोट की हिस्सेदारी थी. ये सब मिल कर महागठबंधन के अंकगणित को बीजेपी की तुलना में काफी मजबूत बनाता है. इस तरह से ये महागठबंधन अमित शाह को चुनौती देता प्रतीत होता है.
किसी भी अन्य राज्य की तुलना में, उत्तर प्रदेश से संसद के सर्वाधिक सदस्यों का निर्वाचन होता है. जाहिर है, यहां चुनाव जीतने के लिए जरूरी राजनीति काफी जटिल बन जाती है. किसी भी पार्टी के लिए सबसे कठिन चुनौती टिकट आवंटन को ले कर होती है. हरेक लोकसभा सीट पर, प्रत्येक पार्टी से चुनाव लड़ने वाले कम से कम आधा दर्जन सक्षम उम्मीदवार होंगे.
सपा-बसपा की चुनौती
सपा और बसपा के लिए भी ये चुनौती उतनी ही है. यह जटिलता और चुनौती तब और अधिक होगी, जब सपा, बसपा और कांग्रेस 2019 में मिल कर चुनाव लड़ेंगे, जैसा कि अभी दावा किया जा रहा है. आगे इस स्थिति का विश्लेषण करने के लिए, 2009 के लोकसभा चुनाव के परिणाम देखना जरूरी है.
2014 से पहले, दो दशकों तक, बीजेपी उत्तर प्रदेश चुनाव की एक प्रमुख खिलाड़ी भी नहीं थी. 2009 तक, बसपा, सपा और कांग्रेस ने राज्य में चुनावी प्रभुत्व के लिए एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ा है.
2009 के लोकसभा चुनाव में 80 लोकसभा सीटों में से 11 नए निर्वाचन क्षेत्रों का निर्माण किया गया था. शेष 69 सीटों में से बसपा, सपा और कांग्रेस ने एक दूसरे से 31 सीटें छीनी थी. इसका मतलब है कि कम से कम इन 31 सीटों पर कम से कम दो विनिंग कैंडीडेट (संभावित विजेता) हैं.
जाहिर है, ये दोनों संभावित विजेता महागठबंधन के विभिन्न दलों से आते हैं. इस विश्लेषण में, राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) का प्रदर्शन शामिल नहीं है. आरएलडी भी अब बीजेपी के खिलाफ बने गठबंधन में शामिल हो गया है. हालांकि, ये 2009 का चुनाव बीजेपी के साथ गठबंधन में लड़ रहा था. 2009 के चुनाव में आरएलडी को 5 लोकसभा सीटें मिलीं थीं, जिससे ये 31 की संख्या 36 हो जाती है. यह समस्या तब और भी बढ़ जाती है जब प्रत्येक पार्टी में कई मजबूत उम्मीदवार होते हैं.
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इसे देखते हुए, हम यह कह सकते हैं कि टिकट बंटवारे को ले कर महागठबंधन के घटकों के भीतर काफी अधिक असंतोष पनप सकता है, क्योंकि 50% से अधिक सीटें एक से अधिक पार्टियों द्वारा जीती जा सकती हैं. स्वाभाविक रूप से, वे दूसरी पार्टी को सीट देने के लिए अनिच्छुक होंगे.
अगर हम बसपा सुप्रीमो मायावती के हालिया बयानों को देखते हैं, तो उपरोक्त स्थिति और अधिक स्पष्टता से दिखती है. मायावती ने अपने बयानों से जाहिर किया है कि उनके मन में अभी से उचित सीट शेयरिंग को लेकर संदेह है.
यूपी बनाम बिहार का महागठबंधन
इसके अलावा, यूपी का महागठबंधन बिहार के महागठबंधन से बिल्कुल अलग है, बिहार में राजद और जद (यू) के पारंपरिक मतदाता सामाजिक रूप से मजबूती से जुडे़ थे. दोनों समूहों के बीच, चाहे यादव, मुस्लिम और कुर्मी हो, दुश्मनी नहीं थी. उत्तर प्रदेश में मुसलमानों और यादवों के बीच और यादवों और दलितों के बीच पर्याप्त शत्रुता है. इसका मतलब है कि बसपा या सपा के वोट शेयर का हस्तांतरण होना इतना आसान नहीं है.
फूलपुर और गोरखपुर के चुनाव परिणामों ने इस सिद्धांत को बल दिता कि महागठबंधन बीजेपी को टक्कर दे सकता है और इन परिणामों को उदाहरण के रूप में उद्धृत किया जा रहा है. हालांकि, जब हम दोनों निर्वाचन क्षेत्र के चुनावों का विश्लेषण करते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इन दो सीटों पर टिकट वितरण को ले कर सपा और बसपा के बीच कोई प्रतिद्वंद्विता नहीं थी.
फूलपुर और गोरखपुर का सच
फुलपुर में बसपा की मौजूदगी शुरू से नगण्य रही है. 2009 में उसने एक बार ये सीट जीती थी. लेकिन उस चुनाव के विजेता, बसपा सांसद कपिल मुनी करवारिया वर्तमान में जेल में हैं और चुनाव लड़ने से वंचित हैं. इसके अलावा, 2008 में लोकसभा क्षेत्र की सीमा का पुनर्निर्धारण हुआ था. इससे यहां की डायनेमिक्स बदल गई. इलाहाबाद लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा फूलपुर में शामिल हो गया था, जहां सपा प्रभावशाली रही है. इसलिए भी बसपा के लिए फूलपुर में सपा को वॉकओवर देना आसान था.
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1991 से गोरखपुर की सीट बीजेपी के पास थी. इसलिए, वहां कोई अन्य राजनीतिक दल चुनौती देने के लिए मौजूद ही नहीं था. अंततः, प्रवीण कुमार निषाद को टिकट दिया गया, जो प्रभावी रूप से सपा के सदस्य भी नहीं है. वे सपा के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़े. उनके पिता अपनी निषाद पार्टी और दल-बल के साथ सपा में शामिल हो गए.
गठबंधन की कीमत
इसलिए, 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले सपा और बसपा का गठबंधन अस्तित्व प्राप्त कर सके, इसकी संभावना बहुत कम दिखाई देती है. यहां तक कि अगर ऐसा होता भी है, तो इसकी एक भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है. यह गठबंधन पार्टी में असंतुष्ट कार्यकर्ताओं की संख्या बढ़ाएगा. कार्यकर्ता अपने पार्टी नेतृत्व के इस निर्णय से खुश नहीं होंगे कि अन्य गठबंधन सहयोगियों को सीट दी जाए.
इसलिए, यह बीजेपी के हित में है कि वह उत्तर प्रदेश में विपक्ष द्वारा गठबंधन बनाने के निर्णय का स्वागत करें. इस बीच, बीजेपी आराम से पूरे पॉलिटिकल ड्रामा का आनंद ले सकती है.
( यह लेख मूल रूप में अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ है. इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. )
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