क्या सरकारी बजट की अधिकतम राशि से भी ज्यादा पैसे खजाने से निकाले जा सकते हैं? बिहार के चारा घोटाले से पहले तो शायद ऐसी ‘नटवर लाली’ की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. पर, चारा घोटालेबाजों ने यह अनोखा करतब भी कर के दिखा ही दिया. जिस घोटाले में लोकतंत्र के लगभग सभी स्तंभों का थोड़ा-बहुत योगदान रहा हो, वहां भला असंभव क्या था!
उच्चस्तरीय साजिश के बगैर यह घोटाला संभव नहीं था
बिहार सरकार के विरोध के बीच पटना हाईकोर्ट ने 1996 में चारा घोटाले की जांच का भार सीबीआई को सौंपते समय कहा था कि उच्चस्तरीय साजिश के बगैर यह घोटाला संभव नहीं था. उसी चारा केस में दो पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव और डॉ. जगन्नाथ मिश्र सहित अनेक आरोपी वर्षों से अदालतों के चक्कर काट रहे हैं. कभी वो जेल से बाहर होते हैं तो कभी अंदर.
अदालत से इन लोगों को किसी तरह की राहत की उम्मीद नहीं लग रही है. एक केस में इन्हें सजा भी हो चुकी है. मामला अपील में है. सजा के कारण लालू यादव की सांसदी भी जा चुकी है. वो चुनाव लड़ने से भी वंचित कर दिए गए हैं.
उधर, भागलपुर के ताजा सृजन महाघोटाले में भी कुछ इसी तरह का ‘तिकड़म’ घोटालेबाजों ने लगाया था. सृजन घोटाले की तुलना चारा घोटाले से की जा रही है.
सबसे बड़ी बात यह है कि सृजन के घोटालेबाजों ने चारा घोटालेबाजों को मिली सजा से भी कोई सबक नहीं लिया. सृजन घोटाले की परत दर परत खुलकर सामने आने लगी है. बिहार सरकार के अनुराध पर सीबीआई इसकी जांच कर रही है. सारी बातें सामने आ जाने के बाद यह भी पता चल जाएगा कि सृजन घोटाले में कितने बड़े-बड़े नेताओं और अफसरों का हाथ रहा है. साथ ही चारा घोटाले से इसकी कितनी और किस तरह की समानता है.
घोटालेबाजों की साजिश जानकर दांतों तले अंगुली दबा सकते हैं
चारा घोटाला की साजिश रचने वालों के खुराफाती दिमाग की पूरी ‘साजिश कला’ के बारे में जान कर नई पीढ़ी दांतों तले अंगुली दबा लेगी. जानकार लोग बताते हैं कि दुनिया में कहीं भी बजट में निर्धारित धन राशि से अधिक पैसों का घोटाला पहले कभी नहीं हुआ है. यह काम बिहार के चारा घोटालेबाजों ने संभव बनाया.
सन 1991-92 में बिहार सरकार के पशुपालन विभाग का कुल बजट 59 करोड़ 10 लाख रुपए का था. पर उस अवधि में घोटाले बाजों ने 129 करोड़ 82 लाख रुपए सरकारी खजानों से निकाल लिए. ऐसा उन लोगों ने जाली बिलों के आधार पर किया. उन्हें कोई रोकने-टोकने वाला नहीं था क्योंकि उन्हें उच्चस्तरीय संरक्षण जो हासिल था!
सन 1995-96 वित्तीय वर्ष में 228 करोड़ 61 लाख रुपए निकाल लिए गए. जबकि, उस साल का पशुपालन विभाग का बजट मात्र 82 करोड़ 12 लाख रुपए का था. बीच के वर्षों में भी इसी तरह जालसाजी करके अतिरिक्त निकासी हुई.
एक बार रांची के डोरंडा के कोषागार पदाधिकारी ने भारी निकासी देख कर ऐसे बिलों के भुगतान पर रोक लगा दी, तो पटना सचिवालय से उसे चिट्ठियां मिलीं. एक चिट्ठी वित्त विभाग के संयुक्त सचिव ने 1993 में लिखी थी. संयुक्त सचिव ने भुगतान जारी रखने का निर्देश दिया. साथ ही 17 दिसंबर, 1993 को राज्य कोषागार पदाधिकारी ने डोरंडा कोषागार अधिकारी को ऐसी ही चिट्ठी लिखी.
जाहिर है कि ऐसी चिट्ठियां किसके निर्देश से लिखी जा रही थीं. ऐसी चिट्ठियों के बाद कोषागार पदाधिकारी अपनी रोक हटा लेने को मजबूर हो गए. फिर तो फर्जी निकासी और भी तेज हो गई. याद रहे कि राज्य सरकार अन्य विभागों की समय-समय पर समीक्षा करती थी, पर पशुपालन विभाग की नहीं.
बिहार सरकार के आदेश से पशुपालन विभाग को छूट मिली
बिहार सरकार ने अपने विभागों को यह आदेश दे रखा था कि हर महीने वो पूरे साल के बजट का केवल आठ प्रतिशत राशि की ही निकासी करें. पर पशुपालन विभाग को इस बंधन से छूट मिली हुई थी. बहाना था कि पशुओं की जान बचाने के लिए ऐसी छूट जरूरी थी. पर ऐसी छूट स्वास्थ्य विभाग को भी नहीं थी. जहां मनुष्य का जीवन बचाने के लिए कभी-कभी अधिक खर्चे की जरूरत पड़ती है.
पर, एक विडंबना देखिए. जिस अवधि में पशुपालन विभाग के अरबों रुपए निकाले जा रहे थे, उस अवधि में इस विभाग के कामों की दुर्दशा हो रही थी. उस अवधि में पशुपालन विभाग ने कोई नई विकास योजना नहीं शुरू की. इतना ही नहीं, पहले से जारी योजनाएं भी एक-एक कर के अनुत्पादक होती चली गईं.
सन 1990 से 1995 के बीच अनावश्यक मात्रा में दवाएं खरीदी गईं पर साथ-साथ पशुओं की बर्बादी भी होती गईं. सरकारी वीर्य तंतु उत्पादन केंद्रों को उपलब्ध कराए गए 44 साडों में से 22 मर गए. ग्यारह गैर-उत्पादक हो गए. दो सांड टीबी से ग्रस्त हो गए. दो तरल नाइट्रोजन के अभाव में उपयोग में नहीं लाए जा सके. जबकि सात को स्थानांतरित कर दिया गया.
राज्य के मवेशी प्रजनन केंद्रों में मवेशियों की संख्या कम होती चली गई. उस अवधि में उनकी संख्या 354 से घटकर 229 रह गई. दूध नहीं देने वाली गाय-भैंसों की संख्या 30 फीसदी से बढ़कर 56 फीसदी हो गई. सरकारी मवेशी प्रजनन केंद्रों में बछड़ों की मृत्युदर 30 फीसदी से बढ़कर 100 फीसदी हो गई. क्योंकि, उन्हें पोषणहीन भोजन दिया जाता था.
उस अवधि में राज्य के छह सरकारी चारा उत्पादन केंद्रों की 3207 एकड़ भूमि में से मात्र 1376 एकड़ में चारा उगाया गया. कृत्रिम गर्भाधान के लक्ष्य में 59 फीसदी की कमी आई.
सीबीआई जांच की सिफारिश की तो विभाग छीन लिया
इसके बावजूद ऊपर से नीचे तक राज्य सरकार के किसी अंग में हरकत नहीं हुई. तत्कालीन पशुपालन मंत्री रामजीवन सिंह ने 17 अगस्त, 1990 को मुख्यमंत्री लालू यादव को जब पशुपालन घोटाले की सीबीआई जांच की सिफारिश की तो उनसे उनका ही विभाग छीन लिया गया.
याद रहे कि उससे पहले मिली सीएजी की रिपोर्ट में कहा गया था कि स्कूटर पर सांड ढोए गए हैं. यानी सांड की ढुलाई के बिल में जिस वाहन का नंबर दिया गया था, वह ट्रक का नहीं बल्कि स्कूटर का नंबर था.
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