हिंदुस्तान में मुस्लिम सियासत में नया दांव चला जा रहा है. शिया और सूफी एकता की नई बात की शुरूआत हो रही है, जिसके लिए 25 मार्च को लखनऊ के एतिहासिक बड़े इमामबाड़े में बैठक हो रही है. जिसमें शिया मसलक और सूफी मत के मानने वालों का जमावड़ा हो रहा है. जिसका नाम रखा गया है- ‘शिया व सूफी सद्भावना सम्मेलन.’ इसका मकसद आतंकवाद के खिलाफ मुसलमानों को एकजुट करने का बताया जा रहा है.
इस बैठक का आयोजन शिया धर्मगुरू मौलाना कल्बे जव्वाद ने किया है. जिसमें तमाम मुस्लिम संगठनों को बुलाया गया है. सूफी मत के मानने वाले कई दरगाहों और खानकाहों के नुमाइंदे इस जलसे में शिरकत कर रहे हैं. जिसमें किछौछा मकनपुर देवा शरीफ के अलावा दिल्ली के ख्वाजा निज़ामुद्दीन दरगाह और अजमेर शरीफ दरगाह के सूफी संत शामिल हो रहे हैं.
इस जलसे के बारे में मौलाना कल्बे जव्वाद का कहना है कि 'मुसलमानों को बादशाहों के जरिए पहचाना जा रहा है जो गलत है. कहा जा रहा है कि किसी ने रोम को फतेह किया तो किसी ने ईरान पर जीत हासिल की है. इस्लाम बादशाहों के जरिए नहीं बल्कि इमाम हुसैन और ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती के जरिए पहचाना जाना चाहिए. जो अमन की बात करता है. दायश तालिबान और आईएसआईएस की विचारधारा इस्लाम की विचारधारा नहीं है. इस जलसे में आंतकवाद के खिलाफ मुहिम की शुरूआत भी की जाएगी.'
शिया और सूफी में समानता
हिंदुस्तान में शिया मसलक के मानने वाले तकरीबन 3 से 4 करोड़ होने का दावा किया जा रहा है.जो ईरान के बाद दूसरे नंबर पर है. एक सर्वे के मुताबिक मुस्लिम आबादी का तकरीबन 15 फीसदी हिस्सा शिया मुस्लिम धर्म के मानने वालों का है. कश्मीर के कारगिल से सुदूर तमिलनाडु तक ये सम्प्रदाय फैला हुआ है. हालांकि इनका मुख्य केन्द्र लखनऊ है. इस तरह से सूफी मत के मानने वाले देश में काफी ज्यादा तादाद में हैं. लेकिन खानकाहों और दरगाहों के बीच बंटे हुए हैं.
मौलाना कल्बे जव्वाद के मुताबिक दोनों में तकरीबन 90 फीसदी समानता है. शिया की तरह ही सूफी मत के मानने वाले इमाम हुसैन को मानते हैं. मोहर्रम के दौरान शियों की तरह ही गम मनाते हैं. सूफी मत के मानने वाले अजमेर के ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती और शहबाज कलन्दर के अनुयायी हैं, जो 11 वीं सदी के संत है इनकी दरगाह पाकिस्तान के सेहवान सिंध में है.
क्या है शिया सुन्नी में मतभेद
शिया-सुन्नी के बीच मतभेद पैगंबर मोहम्मद साहब के इस दुनिया के जाने के बाद 632 ईस्वीं में शुरू हुआ है. शिया मसलक के मानने वाले ये दावा करते हैं कि पैगंबर के बाद हज़रत अली खलीफा हैं. इसका ऐलान खुद पैगंबर करके गए थे. हज़रत अली पैगंबर के चचेरे भाई और दामाद थे. उनके बाद इमामत का सिलसिला है. जिनके नस्ल से इमाम हुसैन हैं जिनका कत्ल ईराक कर्बला में इस्लामिक कैलेंडर के हिसाब से 61 हिजरी यानि 680 ईस्वीं में कर दिया गया था. इन्हीं की याद में शिया हर साल मोहर्रम में गम मनाते हैं. वहीं सुन्नी मसलक वाले पैगंबर के बाद अबू बक्र को खलीफा मानते हैं. सुन्नी मसलक के लोग अली को चौथा खलीफा मानते हैं. सुन्नी मसलक के बीच ही देवबंदी सलफी और वहाबी स्कूल की शुरूआत हुई. जो अपने आप को सुधारवादी बताते हैं. इस फिकह के मानने वालों का केन्द्र सउदी अरब बना है. जो सूफी और शिया मत पर लगातार एतराज़ करते रहे हैं.
क्या है सियासत?
दरअसल आजाद भारत की राजनीति में देवबंदी मत के मानने वालों को ज्यादा महत्व मिला है. जिसकी वजह से सूफी मत और शिया सम्प्रदाय के लोग राजनीतिक तौर पर हाशिए पर हैं. हालांकि इनकी तादाद कम नहीं हैं. कांग्रेस की राजनीति में भी देवबंदी मसलक के मानने वालों को महत्वपूर्ण पद मिलता रहा है. कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ने कोशिश की थी लेकिन कांग्रेस की राजनीति में सूफी मसलक को जगह देने की कवायद अंजाम तक नहीं पहुंच पाई. बरेलवी मसलक के तौकीर रज़ा को कांग्रेस में शामिल किया गया लेकिन विवाद के नाते कांग्रेस से अलग हो गए.
बीजेपी की सियासत में मुस्लिम
हालांकि बीजेपी की सियासत में मुस्लिम को जगह कम मिल रही है लेकिन बीजेपी ने शिया मत के लोगों को महत्वपूर्ण पद दिया है. मुख्तार अब्बास नकवी केंद्र में मंत्री हैं. मोहसिन रज़ा को यूपी में मंत्री बनाया गया है. वहीं अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन पद गैरूल हसन रिज़वी को नियुक्त किया गया है. ऐसा संयोग शायद पहली बार दिखाई दे रहा है. एनडीए की पहली सरकार में मुख्तार अब्बास नकवी मंत्री थे. बाद में शहनवाज़ हुसैन को अटल बिहारी वाजपेयी ने मंत्री बनाया जो सुन्नी हैं. लेकिन एनडीए की पहली सरकार में शिया पर्सनल लॉ बोर्ड के गठन की शुरूआत हुई, जिसके कर्ता-धर्ता मिर्जा मोहम्मद अतहर थे. लेकिन इसके हिमायत वाजपेयी जी के सहयोगी लालजी टंडन थे.
बीजेपी को शिया सूफी मत मुफीद लग रहा है. बीजेपी को लग रहा है कि इसका विभाजन बीजेपी की राजनीति के लिए फायदेमंद हैं. हालांकि कई मुद्दों पर मुसलमानों के तमाम मसलक एकजुट हैं. जैसे बाबरी मस्जिद के मसले पर सबका स्टैंड एक है कि कोर्ट के फैसले को सभी मानेंगे. हालांकि शिया वक्फ बोर्ड के चैयरमैन की कहानी अलग है. लेकिन उनसे शिया धर्मगुरुओं ने किनारा कर लिया है.
पीएम मोदी जब मुस्लिम कांफ्रेस में बोले
बीजेपी मुस्लिम के बीच आपसी दूरी बनाने की कोशिश कर रही है क्योंकि कई बार बीजेपी के नेता सुब्रमण्यम स्वामी खुलेआम शिया-सुन्नी के बिखराव की वकालत कर चुके हैं. प्रधानमंत्री ने भी सूफी और शिया मसलक के लोगों को तरजीह दी है. लेकिन ट्रिपल तलाक के मसले पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को मिलने का वक्त नहीं दिया है. सूफी कांफ्रेस में प्रधानमंत्री हिस्सा भी लेते रहे हैं. पहली मार्च 2018 को प्रधानमंत्री ने इस्लामिक हेरिटेज कॉफ्रेंस को संबोधित किया, जिसमें उन्होंने कहा कि वो चाहते हैं कि मुसलमान के एक हाथ में कम्प्यूटर हो तो दूसरे में कुरान.
इस जलसे मे जॉर्डन के किंग अबदुल्ला-2 भी मौजूद थे. प्रधानमंत्री ने भाषण में सूफी इस्लाम की काफी तारीफ भी की थी. हालांकि इस कांफ्रेस में जमाते इस्लामी जैसे संगठन को न्योता नहीं दिया गया था. इससे पहले 18 मार्च 2016 को वर्ल्ड सूफी कांफ्रेस में प्रधानमंत्री ने हिस्सा लिया था, जिसमें इस्लाम को शांति का मजहब बताया और कहा कि सूफी मत शांति के अलावा भाइचारे का धर्म है. हालांकि मुस्लिम संगठन बीजेपी पर दोहरेपन का आरोप लगाते रहे हैं. खासकर लव जिहाद के मुद्दे पर बीजेपी लगातार दक्षिणपंथी ताकतों के साथ दिखाई दे रही है. योगी सरकार के मुज़फ्फरनगर के दंगों के मुकदमे वापिस लेने के फैसले से बीजेपी कटघरे में है.
मुस्लिमपरस्त राजनीति से परहेज
नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद मुस्लिमों को लेकर सियासत में नया बदलाव देखने को मिला है. जिस मुस्लिम वोट के लिए कई पार्टियां जी-जान लगा रहीं थी, अचानक अपनी हार की वजह मुसलमानों को बताने लगी हैं. कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने हाल में एक कार्यक्रम में कहा कि बीजेपी कांग्रेस को मुस्लिम पार्टी बताकर बदनाम कर रही है, जबकि कांग्रेस ऐसी नहीं है.
जाहिर है कि राजनीति की मजबूरी की वजह से इस तरह का बयान दिया जा रहा है. मुस्लिम राजनीतिक तौर पर अछूत दिखाई पड़ रहा है. 2014 के आम चुनाव के बाद कांग्रेस ने एके एंटनी कमेटी बनाई, जिसने कांग्रेस के हार का कारण मुस्लिम परस्ती को बताया था.
हालांकि कांग्रेस के इस रिपोर्ट पर तमाम मुस्लिम संगठन आपत्ति जता चुके हैं क्योंकि कांग्रेस के ऊपर आरोप लगाए जा रहे हैं कि मुसलमानों के लिए उतना नहीं किया गया जितना करना चाहिए. कांग्रेस ने सिर्फ प्रचार किया कि वो अल्पसंख्यक के लिए बहुत कुछ कर रही है लेकिन धरातल पर कुछ नहीं हुआ है.
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