शुक्रवार 13 जनवरी को राना अय्यूब ने एक लेख में कहा कि अपनी तीन फिल्मों डियर जिंदगी, ऐ दिल है मुश्किल और अब रईस में लगातार मुस्लिम किरदार निभाकर शाहरुख़ ख़ान ने अपने विद्रोही मिजाज का परिचय दिया है.
राना अय्यूब के लेख की सुर्खी थी ‘बिग बोल्ड मैसेज’ (बड़ा और निर्भीक संदेश). फिल्म के रिलीज के मौके पर इंडियन एक्सप्रेस में खुद शाहरुख़ का एक लेख छपा. लेख में बाकी बातों के अलावा शाहरुख़ ने राना अय्यूब के लेख और मेरिल स्ट्रिप के गोल्डन ग्लोब वाले भाषण का जिक्र करते हुए बताया कि आखिर कोई हिंदुस्तानी एक्टर मेरिल स्ट्रिप के तेवर में क्यों नहीं बोलता.
फिलहाल इस बात को किनारे कर दें कि शाहरुख़ का लेख उसी दिन छपा जिस दिन उनकी फिल्म पर्दे पर आई. बेशक, फिल्म रिलीज होने को हो तो अभिनेता उसे लेकर बहुत सारी बातें कहते हैं. लेकिन अभिनेता को अपनी फिल्म का प्रमोशन करता पाकर हम जिस खब्त भरी हताशा में उसे ओछा ठहराने पर तुल जाते हैं वह फुर्सती गप्प से ज्यादा तवज्जो के काबिल नहीं.
शाहरुख़ ख़ान ने इस बात को सिरे से खारिज किया कि कोई संदेश देने के मकसद से उन्होंने अपनी तीन फिल्मों में लगातार मुस्लिम किरदार निभाया है. ऐ दिल है मुश्किल फिल्म में निभाये गये किरदार का नाम तक उन्हें याद नहीं और रईस फिल्म के रिलीज में काफी देरी हुई. फिर भी, शाहरुख खान ने मीडिया को हड़काया कि वह बातों को एक खास चश्मे से देख और दिखा रही है.
निष्पक्ष मीडिया
मीडिया को इसी बात की नोटिस लेनी चाहिए ताकि वह निष्पक्ष, ईमानदार और जैसा को तैसा कहने के भाव से लोगों और देश की सेवा कर सके. मीडिया इसी के लिए होती है.
राना अय्यूब के लेख को पसंद या नापसंद करने वाले हो सकते हैं, लेकिन लेख अगर शाहरुख़ ख़ान की राय जाने बगैर उनके बारे में किसी ख्याल का इजहार करता है. तो यह आशंका लगी रहेगी और उसने एक शोर भी पैदा किया. ऐसा शोर जिसमें बात को ठीक-ठीक कहना और सुनना संभव नहीं.
देश की मीडिया जिस तरह काम कर रही है उसमें बड़े सुधार की जरुरत है. शाहरुख़ ख़ान ने बेलाग-लपेट के ठीक इसी तरफ इशारा किया है. हमें कहीं ज्यादा जिम्मेदार मीडिया की जरुरत है, एक ऐसे मीडिया की जो अपने कॉरपोरेट मालिकान से जूझते हुए लोगों को सही खबर बताये, बात को ठोक-बजाकर देखें और तब उसके बारे में राय जाहिर करे.
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अंग्रेजी मीडिया ज्यादातर बीजेपी-नीत सरकार के पीछे कोड़े फटकारने के भाव लगी हुई जान पड़ती है जबकि क्षेत्रीय भाषाओं की मीडिया एकदम से नरेंद्र मोदी की तरफदारी में खड़ी दिखायी पड़ती है. ऐसा लगता है मानो वह मोदी की जुबान बोल रही हो. ऐसे में ठीक-ठीक कौन सोच रहा है, तटस्थ नागरिकों के विश्वास की रक्षा कौन कर रहा है?
शाहरुख़ ख़ान जैसा सेलिब्रेटी अपनी कोई राय लोगों के सामने क्यों रखे जब उसके कहे को किसी मशहूर शख्सियत की बात के रुप में नहीं बल्कि इस या उस विचाराधारा के खांचे में फिट करके ही देखा जाना है? मीडिया को निजी पसंद-नापसंद से ऊपर उठकर काम करने की जरुरत है. पेशेवर ईमानदारी की राह से भटकाने वाली चीजें मीडिया की कलम और कैमरे की राह में नहीं आनी चाहिए.
मेरिल स्ट्रिप जैसे नहीं
शाहरुख़ ने एक अलग ही बात कही थी और उसपर ध्यान देने की जरुरत है. शाहरुख़ ने कहा कि हिन्दुस्तानी एक्टर मेरिल स्ट्रिप की तरह नहीं बोलते क्योंकि फिलहाल ऐसे हालात हैं ही नहीं कि उनके बारे में बोलने की जरुरत पड़े. यह बात और ज्यादा व्याख्या की मांग करती है क्योंकि हमलोग निश्चित ही एक ऐसे मुकाम पर हैं जब शाहरुख़ ख़ान जैसी शख्सियतों को कहीं ज्यादा बोलने की जरुरत है.
शायद शाहरुख़ ख़ान ने अपना लेख बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के उस ट्विट से पहले तैयार कर लिया था जिसमें उन्होंने 2017 के गणतंत्र दिवस वाले हफ्ते में रिलीज होने वाली दो बड़ी फिल्मों के बारे में राष्ट्रवाद और धर्म के रंग में डूबी टिप्पणी की थी.
आज विजयवर्गीय जैसे नेता अपनी पार्टी और पार्टी-प्रमुख को देश से मिले भारी जनादेश की इज्जत करने की जगह मुख्य अभिनेता के धर्म के आधार पर उसकी फिल्म पर निशाना साध रहे हैं.
टेक्नीशियन और दिहाड़ी मजदूर
विजयवर्गीय ने दोनों फिल्मों को अंजाम तक पहुंचाने में लगे उन टेक्नीशियन और दिहाड़ी पर खटने वाले लोगों के बारे में तो सोचा ही नहीं जो फिल्म के नायक के चेहरे पर मेकअप चढ़ाते या सिनेमैटोग्राफर को उसकी मनपसंद शॉट देने के लिए लाइटस् को एकदम सही जगह पर रखते हुए यह बिल्कुल नहीं देखते कि फिल्म में नायक का रोल निभाने वाले अभिनेता का धर्म क्या है.
अमेरिका में संकट जैसे सिर चढ़कर मंडरा रहा है भारत में वैसी हालत बिल्कुल नहीं है. अमेरिका ने अपने को परम प्रभु मानने वाला सिरफिरा नेता चुना है, एक ऐसा नेता जिसे कुर्सी संभाले हुए हफ्ता भर भी नहीं बीता और उसने ऐसे आदेश जारी करने शुरु कर दिये जो दुनिया में जारी नियम-कायदों को सिरे से बदल सकते हैं.
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भारत में हालत ऐसी भी गई-बीती नहीं है. जरुरत इस बात की है कि शाहरुख़ ख़ान जैसी शख्सियतें विजयवर्गीय जैसे नेताओं के खिलाफ जो कला और संस्कृति को अपने सियासी एजेंडे से रंगना चाहते हैं... और ज्यादा जोर लगाकर बोलें.
बेशक, शाहरुख़ ऐसा करेंगे तो ट्रोल उनके पीछे पड़ेंगे. उनपर कीचड़ उछालेंगे. शाहरुख़ के देशप्रेम पर सवाल खड़े किए जायेंगे और शायद यह भी सुनना पड़े कि पाकिस्तान चले जाओ. लेकिन इस लड़ाई में आगे बढ़कर शाहरुख़ को दो-दो हाथ करना ही होगा. यह एक देश के रुप में हमारे लिए जरुरी है.
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