क्या राजनीति समाज से अपना दामन छुड़ा सकती है? न, सवाल ही नहीं उठता. क्या भारत में लोकतंत्र समाज के दबे-कुचले समूहों को अपनी ‘पहचान’ के नाम पर लामबंद होकर ताकत हासिल करने का मौका दिए बगैर चल सकता है?
इसका भी जवाब है ‘न’ है. यही वजह है कि राजनीतिक दलों को जाति, धर्म और भाषा के नाम पर वोट मांगने से रोकने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सहमत होना मुश्किल है.
सुप्रीम कोर्ट का फैसला पहली नजर में दुरुस्त जान पड़ता है. फैसला यह कहता हुआ जान पड़ता है कि पहचान की राजनीति में समाज को बांटने का माद्दा हो सकता है और इस बंटवारे से समाज में तनाव पैदा हो सकता है.
बेशक, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जाति, धर्म और भाषा की राजनीति ने लोगों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करके बड़ी कड़वाहट पैदा की है. सामाजिक पहचान को धुरी बनाकर चलने वाली राजनीति एक हद तक विकार का शिकार रही है. लेकिन यह ऊपर-ऊपर की बात है, तनिक गहरे कुरेदें तो कहानी कहीं ज्यादा जटिल जान पड़ती है.
लोग अपने जाति-धर्म के पहचान के घेरे से बाहर निकलें तो यह आदर्श स्थिति होगी लेकिन ये पहचान के घेरे ही तो हैं जो लोगों को लोकतंत्र में मोल-तोल की ताकत और बाकियों से बराबरी करने का मौका देते हैं.
पहचान की राजनीति से पिंड नहीं छूटने वाला है क्योंकि व्यवहार की जमीन पर राजनीति का मतलब होता है- लोगों की शिकायत को सुनना और उसे अपने हक में भुनाना. यह सीधे-सीधे ‘एक हाथ से ले और दूसरे हाथ से दे’ का मामला है.
ऐसी बात नहीं कि पहचान को धुरी बनाकर की जाने वाली हर राजनीति अच्छी ही हो, जैसे धर्म के नाम पर होने वाली राजनीति. लेकिन पहचान की राजनीति के सारे उदाहरणों पर यह बात लागू नहीं होती. मिसाल के लिए जाति की राजनीति को लें. इस राजनीति का मकसद सामाजिक न्याय है.
सामाजिक समूह लामबंद हों और अपनी बेहतरी के लिए पूरी ताकत से मोल-भाव करें तो इसमें कुछ भी बुरा नहीं. राजनीति में भाग लेना और अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए राजनीति का इस्तेमाल करना किसी भी लोकतंत्र में एक आम बात है.
भारत में सामाजिक-आर्थिक हैसियत की सीढ़ी पर जो समूह नीचे के पायदान पर खड़े हैं उन्हें जाति की राजनीति ताकतवर बनाने वाली साबित हुई है. यह बंधन से आजादी की राजनीति है. पूर्ण जातिगत बराबरी के लिए देश को अभी मीलों चलना है और जाति की राजनीति ही इसका एकमात्र रास्ता है.
धर्म की राजनीति से कोई ऊंचा मकसद नहीं सधता. यही उसकी दिक्कत है. यह एक हद तक यथास्थिति को बरकरार रखने की राजनीति है. इसमें अपनी छत्रछाया के भीतर आए व्यक्ति या समूह के उत्थान का मकसद नहीं होता. मुसलमानों की राजनीतिक गोलबंदी से मुस्लिम समुदाय की रोजमर्रा की जिंदगी में कोई सुधार नहीं आया है.
हिन्दुओं के बीच धर्म की राजनीति का लक्ष्य समुदाय को सीमित उद्देश्यों के लिए लामबंद करने का रहा है. हो सकता है धर्म की राजनीति अभी अधपकी हो. परिपक्व होने में उसे अभी समय लगेगा.
मामला चाहे जो हो, राजनीति समाज से अपना दामन नहीं छुड़ा सकती. ना तो ऐसा होना चाहिए और ना ही यह व्यावहारिक है. राजनीति का समाज से दामन छुड़ाना व्यावहारिक नहीं क्योंकि राजनेता बड़े चतुर होते हैं. किसी सामाजिक पहचान को सीधे-सीधे आवाज लगाने से वे बचते हैं और इशारों-इशारों में बात करने के माहिर होते हैं.
जाति या धर्म के अपने एजेंडे पर अमल का काम वे बा-आसानी छुटभैये समूहों के हवाले कर अदालती परेशानी से साफ बच सकते हैं. बेहतर यही है कि नेताओं को अपने संभावित मतदाताओं के सेवा-टहल में लगा रहने दिया जाए और उन्हें सख्त हिदायत हो कि हिंसक और आक्रामक भाषा का प्रयोग न करें.
इस बात का हमेशा ध्यान रहे कि लोकतंत्र व्याहारिक फैसलों का नाम है. लोग वही फैसला लेते हैं जो उन्हें अपने लिए सबसे अच्छा जान पड़ता है. लोगों का निर्णय अपने हित से प्रेरित होता है. यह मानकर चलना कि लोग सिर्फ जाति और ऐसी ही अन्य चीजों की लकीर पर आंख मूदकर चल पड़ेंगे, दरअसल लोगों की क्षमता को कम आंकना है.
भारतीय मतदाता हमेशा तेज साबित हुआ है. गौर करें कि बीते बरसों में उसने अपना वोट कैसे डाला है, कैसे सरकारों को हटाने या बचाने का फैसला लिया है. मतदाता को बेवकूफ, भावुक और आसानी से प्रभावित होने वाला बताने की कथित कुलीन सोच बेबुनियाद है.
सौ बातों की एक बात यह कि राजनीति हमेशा से दिक्कत-तलब रही है लेकिन समाधान भी राजनीति के ही पास है.
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