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'पॉजिटिव पॉलिटिक्स' से ही बेहतर गवर्नेंस दे पाएंगे केजरीवाल

सुप्रीम कोर्ट की तरफ से चीजें साफ किए जाने के बाद केजरीवाल के पास अब जाहिर तौर पर अपने पूर्ववर्तियों के मुकाबले ज्यादा अधिकार हैं

Updated On: Jul 05, 2018 10:00 AM IST

Sanjay Singh

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'पॉजिटिव पॉलिटिक्स' से ही बेहतर गवर्नेंस दे पाएंगे केजरीवाल

दिल्ली सरकार के अधिकारों के बारे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला निश्चित तौर पर अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के लिए जीत है. हालांकि, दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने का मामला अभी भी इस केंद्रशासित प्रदेश की सत्ताधारी पार्टी और उसके नेताओं के लिए दूर की कौड़ी ही माना जा सकता है, लेकिन बेशक यह उनके लिए खुशी का मौका है. सुप्रीम कोर्ट ने चुनी हुई सरकार के पक्ष में अधिकारों और जिम्मेदारियों की परिभाषा फिर से तय की है. उप-राज्यपाल (लेफ्टिनेंट गवर्नर) को अब दिल्ली सरकार के मंत्रिमंडल की मदद और सलाह के मुताबिक काम करना होगा. दिल्ली के प्रशासनिक कामकाज, परियोजनाओं को शुरू करने और अधिकारियों की पोस्टिंग व ट्रांसफर के लिए मुख्यमंत्री द्वारा उपराज्यपाल को सिर्फ सूचना देना पर्याप्त होगा और सीएम अपने हिसाब से इन मामलों में कार्यों को अंजाम दे सकेंगे.

मानहानि के ज्यादातर मामलों को भी निपटा चुके हैं केजरीवाल

एलजी हाउस के एयरकंडीशन वाले रूम में और घर के खाने की सुविधा के साथ केजरीवाल के 'सोफा धरना' के बाद आया यह फैसला आम आदमी पार्टी के लिए और मिठास भरा है. बहरहाल, धरना किसी भी तरह का हो, आखिरकार वह धरना ही है. खास तौर पर जब मुख्यमंत्री और उनके कैबिनेट सहयोगियों की तरफ से ऐसा किया रहा हो, तो वह और अहम हो जाता है. अरविंद केजरीवाल ने अरुण जेटली, बिक्रम सिंह मजीठिया, नितिन गडकरी, अमित सिब्बल, दिल्ली पुलिस के जवानों समेत कई लोगों से अलग-अलग माफी मांग कर अपने खिलाफ मानहानि के ज्यादातर मामलों को निपटा लिया है. उन्हें अब अदालती मामलों का खतरा नहीं के बराबर है, जिनमें से कुछ मामले उनकी निजी और राजनीतिक किस्मत पर असर डाल सकते थे. वह बेंगलुरु में नेचुरोपैथी सेशन के बाद दिल्ली लौटे हैं, लिहाजा उन्हें तरोताजा और ऊर्जा से लबरेज होना चाहिए.

केजरीवाल के पास अपने तरीके से लोगों के लिए काम करने का मौका

सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संवैधानिक बेंच ने अपने एक निर्णायक फैसले में दिल्ली हाईकोर्ट के उस निर्णय को पलट दिया, जिसमें लेफ्टिनेंट गवर्नर (एलजी) को दिल्ली सरकार का बॉस बताया गया था. सर्वोच्च अदालत का यह फैसला केजरीवाल के लिए अपने तरीके से दिल्ली के लोगों की सेवा करने के मौके की तरह है. पहले जिस तरह से वह लोगों के लिए काम करने का इच्छा जाहिर करते थे, अब उन्हें ऐसा करने की पूरी आजादी होगी. दिल्ली विधानसभा के अगले चुनाव से पहले उनके पास डेढ़ साल का वक्त है. उनकी सरकार चल रही है और काम करने के लिए उनके पास पर्याप्त गुंजाइश है. आखिरकार दिल्ली की जनता ने काफी उम्मीदों के साथ उन्हें जनादेश दिया था. आम आदमी पार्टी को दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से 67 सीटों पर जीत हासिल हुई थी.

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केजरीवाल ने अपनी पार्टी से वैसे सभी नेताओं को या तो बाहर कर दिया है या उनके हाशिए पर पहुंचा दिया, जिन्होंने उनसे असहमति जताने की कोशिश की. पार्टी संगठन या सरकार में उनके फैसलों को कोई चुनौती देने वाला नहीं है, चाहे वह सही हो या गलत. जाहिर तौर पर अब उनके लिए किसी दूसरे पर जिम्मेदारी खिसकाना नामुमकिन जैसा होगा. वह अपनी गलतियों और किसी भी तरह के जनहित का काम नहीं होने के लिए एलजी और केंद्र सरकार को दोषी नहीं ठहरा सकते. लिहाजा, अब वक्त आ गया है कि वह उन वादों को पूरा करने के लिए मेहनत से काम करें, जो उन्होंने 2015 में हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों से ठीक पहले किए थे. केजरीवाल को गवर्नेंस पर जमकर काम करने की जरूरत है और उसके बाद उन्हें राजनीति में अपनी भूमिका निभानी चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तुरंत बाद फिर से अपने पुराने खेल में जुट गए आप नेता

यहां सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णायक फैसले के बाद के घटनाक्रम पर भी गौर करने की जरूरत है. फैसले के कुछ ही मिनट बाद आम आदमी पार्टी के नेता उस खेल में जुट गए, जिसमें वह पिछले 4-5 साल में पारंगत हो गए हैं. इसके तहत खुद को हीरो और पीड़ित की तरफ पेश करने और नया खलनायक तलाशने की कोशिश की गई. मिसाल के तौर पर आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता सौरभ भारद्वाज का ट्वीट कुछ इस तरह था, 'क्या मोदी जी (प्रधानमंत्री) दिल्ली में 3 साल 5 महीने की अराजकता को वापस ले सकते हैं? क्या दिल्ली के लोग 3 साल 5 महीने बर्बाद करने के लिए बीजेपी को माफ करेंगे?'

अपने एक और ट्वीट में उन्होंने दिल्ली पुलिस के एंटी-करप्शन ब्रांच (एसीबी) पर नियंत्रण का मुद्दा उठाया, जो तकनीकी तौर पर दिल्ली सरकार के दायरे में आता है.

यहां शीला दीक्षित के 15 साल के कार्यकाल के बारे में बात करने का कोई मतलब नहीं बनता है. उन्होंने आम-सहमति के जरिए और एलजी के साथ मिलजुल कर अपनी सरकार चलाई. शीला दीक्षित ने न तो रोजाना विवाद किए, न ही उल्टे सीधे बयानों का सहारा लिया और न ही कथित धरने के लिए एलजी हाउस के एक हिस्से पर अनधिकृत तरीके से कब्जा किया.

आप के एक और प्रमुख नेता राघव चड्ढा ने मीडिया को दिए अपने शुरुआती बयान में एसीबी पर नियंत्रण का मुद्दा उठाया. उन्होंने यह भी कहा कि अब यह जनता पर निर्भर है कि राजनीतिक मैदान में जनता किस तरह बीजेपी को सजा दे.

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एंटी-करप्शन ब्यूरो पर नियंत्रण की बात क्यों?

यह समझना जरूरी है कि केजरीवाल की कोर टीम ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कुछ ही मिनट के बाद एसीबी पर नियंत्रण के बारे में बात करना क्यों शुरू कर दिया है? यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि केजरीवाल और उनकी टीम ने हमेशा से सरकार के पुलिसिया अधिकारों की हसरत पाली है. हालांकि, उनके लिए दुर्भाग्य की बात यह है कि संविधान ने दिल्ली सरकार को दिल्ली में इस तरह का अधिकार नहीं दिया. जनवरी 2014 में विधायक (उस वक्त मंत्री) सोमनाथ भारती द्वारा खिड़की-एक्सटेंशन में आधी रात में रेड और मुख्यमंत्री के पहले कार्यकाल में केजरीवाल का राजपथ पर धरना (यहां तक कि उन्होंने गणतंत्र दिवस परेड को बाधित करने की भी धमकी दी थी) दिल्ली में पुलिस आदि के नियंत्रण या उन पर प्रभाव जमाने की कोशिश से ही जुड़ा था. पंजाब विधानसभा चुनाव से पहले आप नेता, कार्यकर्ता और समर्थक निजी बातचीत में खुलेआम बता रहे थे कि पंजाब पुलिस पर नियंत्रण होने के बाद केजरीवाल क्या कर सकते हैं.

अब हम 11 फरवरी 2014 का पन्ना पलटते हैं. इस दिन केजरीवाल ने कुछ ऐसा किया, जिसके बारे में सोचा नहीं जा सकता था. यहां तक कि सरकारी निजाम और सामान्य लोगों के लिए भी यह बात कल्पना से परे थी. उनकी राय में एंटी-करप्शन ब्रांच पर उनका नियंत्रण था और इसके जरिए उन्हें किसी के भी खिलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज करने और इसके आगे की कार्रवाई करने का अधिकार था. उन्होंने तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री एम वीरप्पा मोइली, पूर्व मंत्री मुरली देवरा और रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड के चेयरमैन मुकेश अंबानी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के आदेश दिए. केजी बेसिन से निकाले जाने वाले नेचुरल गैस की कीमत में बढ़ोतरी के लिए कथित तौर सांठगांठ करने के मामले में एफआईआर दर्ज करने के आदेश दिए गए थे. उन्होंने ऐलान किया कि भ्रष्टाचार निरोधक कानून के प्रावधानों के तहत केस दर्ज किए जाएंगे. उस वक्त दिल्ली में केजरीवाल की सरकार कांग्रेस के समर्थन पर टिकी हुई थी.

इस पूरी कवायद, उसकी वैधता और अन्य पहलुओं ने राष्ट्रीय राजधानी और अन्य जगहों पर राजनीति, कानूनी और प्रशासनिक ढांचे को हैरान कर दिया था. यह अलग बात है कि इस घटनाक्रम के कुछ दिनों के बाद केजरीवाल ने एलजी और केंद्र को दोषी ठहराते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. लिहाजा, यह मामला वहीं खत्म हो गया. बाद में केंद्र सरकार ने एक आदेश के जरिए साफ किया कि एसीबी का नियंत्रण एलजी के पास है.

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अब भी एक्टिविस्ट की तरह सोचते और करते हैं केजरीवाल

उम्मीद की जाएगी कि अब केजरीवाल बेहतर ढंग से सरकार चलाने पर फोकस करेंगे. हालांकि, मुख्यमंत्री के तौर पर पिछले कुछ साल का उनका ट्रैक रिकॉर्ड बताता है कि वह अब भी 'एक्टिविस्ट' की तरह सोचते और करते हैं, जो लगातार आंदोलन के मूड में रहता है. साथ ही, ऐसा लगता है कि वह लगातार ऐसे शख्स की तलाश में रहते हैं, जिसे वह खलनायक मानते हैं. शीला दीक्षित, साहिब सिंह वर्मा और मदन लाल खुराना ने सिस्टम के साथ दो दशकों तक असरदार तरीके से काम किया, जबकि केजरीवाल की सोच में गड़बड़ी थी. सुप्रीम कोर्ट की तरफ से चीजें साफ किए जाने के बाद केजरीवाल के पास अब जाहिर तौर पर अपने पू्र्ववर्तियों के मुकाबले ज्यादा अधिकार हैं. अब वक्त आ गया है कि वह नेगेटिव के बजाय ज्यादा से ज्यादा पॉजिटिव एनर्जी का प्रदर्शन करें.

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