बीजेपी सांसद उदित राज, राज्य मंत्री रामविलास पासवान और एनडीए के पूर्व सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा जैसे लोग न्यायपालिका में एससी/एसटी/ओबीसी वर्ग के आरक्षण की मांग करते आ रहे हैं. आम चुनावों के नजदीक आने पर अब केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी न्यायपालिका में आरक्षण की बिसात बिछा दी है. एससी/एसटी कानूनों में बदलाव की पहल से बीजेपी को राज्यों के चुनाव में सवर्ण और आरक्षित दोनों वर्गों की नाराजगी का सामना करना पड़ा. बेरोजगार युवाओं की बढ़ती फौज के दबाब में न्यायपालिका में आरक्षण की पहल से, सरकार को अगले आम चुनावों में खासा नुकसान हो सकता है.
जजों के खाली पदों पर नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश- संविधान के अनुसार देश में त्रिस्तरीय न्यायपालिका की व्यवस्था है. जिला न्यायाधीश के अधीन निचली अदालतें राज्य स्तर पर हाईकोर्ट और केंद्रीय स्तर पर दिल्ली स्थित सुप्रीम कोर्ट. देश में लगभग पौने तीन करोड़ मुक़दमे लंबित हैं जिनके जल्द निपटारे के लिए जजों की संख्या में बढ़ोत्तरी की मांग की जा रही है. देश की निचली अदालतों में लगभग 5984 पद कई सालों से खाली हैं जिनको जल्द भरने के लिए सुप्रीम कोर्ट के नए चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने अपना दृढ़ संकल्प कई बार व्यक्त किया है.
केंद्र को सुप्रीम कोर्ट के आदेश की दरकार बनी रहेगी
सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर केंद्र सरकार द्वारा जजों की भर्ती हो भी जाए तो भी उनके लिए अदालतों, स्टॉफ आवास और अन्य इन्फ्रा सुविधाओं के विकास के लिए राज्यों की ही जवाबदेही रहेगी.
निचली अदालतों में जजों की भर्ती में विफल राज्य- निचली अदालतों में जजों की भर्ती के लिए संविधान के अनुच्छेद 233 और 234 के तहत राज्य लोक सेवा आयोग (PSC) और हाईकोर्ट को अनेक अधिकार दिये गये हैं. पीसीएसजे की भर्ती से सिविल जज मुन्सिफ मजिस्ट्रेट ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट और मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट के लिए चयन होता है. जबकि 7 साल से ज्यादा अनुभवी वकीलों को हायर ज्यूडिशियल सर्विसेस (HJS) के माध्यम से एडीजे पद पर नियुक्ति का मौका मिलता है. संविधान के अनुसार संघीय व्यवस्था में केंद्र सरकार द्वारा राज्यों के कार्यक्षेत्र में दखलंदाजी नहीं की जा सकती. इसलिए राज्यों में जजों के खाली पदों को भरने के लिए केंद्र को सुप्रीम कोर्ट के आदेश की दरकार बनी रहेगी.
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ऑल इंडिया ज्यूडिशियल सर्विसेज का सच- राज्यों में खाली पदों में नियुक्ति के लिए यूपीएसी द्वारा परीक्षा कराए जाने के बावजूद जिला अदालत के जजों पर हाईकोर्ट का प्रशासनिक अधिकार जारी रहेगा. इमरजेंसी के दौरान संविधान में 42वें संशोधन के माध्यम से अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS) के लिए अनुच्छेद 312 में बदलाव किए गए थे. तत्पश्चात् विधि आयोग ने नवंबर 1986 में अपनी 116वीं रिपोर्ट में एआईजेएस के लिए विस्तृत अनुशंसा की जिसे नीति आयोग ने स्ट्रेटजी फॉर न्यू इंडिया एट 75 रिपोर्ट में दोहराया है.
जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता और मेरिट में बढ़ोतरी के लिए एआईजेएस को रामबाण बताया जा रहा है. एआईजेएस से जिला अदालतों के लिए ही जजों का चयन होगा तो फिर इससे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की गुणवत्ता कैसे सुधरेगी?
हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की भर्ती में आपाधापी- देश के 25 हाईकोर्टों में लगभग 1100 जज और सुप्रीम कोर्ट में 31 जजों की व्यवस्था है. हाईकोर्ट में आधे जज निचली अदालतों से प्रमोट होकर आते हैं और बकाया जजों की कॉलेजियम प्रणाली से सीधी भर्ती होती है. सुप्रीम कोर्ट के पांच और हाईकोर्ट में तीन वरिष्ठ जज कॉलेजियम के तहत जजों को नियुक्त करने की अनुशंसा करते हैं. विश्व के किसी भी देश में जजों द्वारा जजों की नियुक्ति नहीं होती और भारत में इस सिस्टम में बदलाव की तेज मांग हो रही है.
कॉलेजियम प्रणाली को सुप्रीम कोर्ट के जजों ने भी विकृत और अन्यायपूर्ण बताया है इसके बावजूद नियुक्ति की इस प्रणाली में बदलाव नहीं हो रहा है. कॉलेजियम प्रणाली में सुधार के लिए मेमोरेंडम ऑफ प्रोसेजर (MoP) में बदलाव के लिए पिछले तीन सालों से सरकार और सुप्रीम कोर्ट में रस्साकस्सी चल रही है. एआईजेएस की व्यवस्था आने से हाईकोर्ट जजों की भर्ती में आंशिक सुधार ही होगा, क्योंकि सीधे चयन की विकृत कॉलेजियम व्यवस्था बरकरार ही रहेगी. एआईजेएस की व्यवस्था आने के बाद हाईकोर्ट जजों की अखिल भारतीय सीनियरटी के सवाल से भी न्यायपालिका को जूझना होगा. पर बड़ा सवाल यह है कि एआईजेएस की व्यवस्था आने से अदालतों में वंचित वर्ग की भागीदारी कैसे बढ़ेगी?
सुप्रीम कोर्ट ने साल 2015 में निरस्त कर दिया गया
न्यायपालिका में आरक्षण का झुनझुना- संविधान के अनुसार सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों के पदों के लिए आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है. जजों द्वारा अपने ही परिचितों और बन्धु-बांधुओं की नियुक्ति से न्यायपालिका में एक अभिजात्य क्लब बन गया है. देश में 22.5 फीसदी एससी और एसटी आबादी का सुप्रीम कोर्ट में कोई प्रतिनिधित्व नहीं होना पूरे देश के लिए चिंता की बात होनी चाहिए. इस असंतुलन को ठीक करने के लिए जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को पारदर्शी बनाए जाने की जरूरत है. सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टों में जजों की भर्ती के लिए मोदी सरकार द्वारा न्यायिक आयोग (NJAC) का कानून बनाया गया जिसे सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2015 में निरस्त कर दिया गया.
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व्यवस्थागत बदलाव लाने की बजाए मंत्रियों द्वारा आरक्षण की चुनावी राजनीति करना लोकतंत्र और न्यायपालिका के लिए खतरनाक हो सकता है. राज्यों में सिविल जज और एचजेएस पदों के लिए SC, ST, OBC महिलाओं और अन्य वर्गों के लिए आरक्षण की पहले से ही व्यवस्था है. केंद्रीय स्तर पर इन पदों में नियुक्ति से आरक्षण की व्यवस्था में कैसे बदलाव होगा? राज्यसभा में दो तिहाई बहुमत से सरकार यदि एआईजेएस की व्यवस्था को लागू करने में सफल हो जाए, तो भी उंची अदालतों में वंचित वर्गों का प्रतिनिधित्व कैसे बढ़ेगा?
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं. इनका Twitter हैंडल @viraggupta है)
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