रामजस कॉलेज विवाद में जो हो रहा है वो ऐसी लड़ाई है, जिसे दक्षिणपंथ कभी जीतने वाला नहीं है. युवा गुरमेहर कौर ने भले ही मौजूदा मैदान ए जंग से अपने कदम पीछे खींच लिए हों लेकिन इस बात को लेकर वह निश्चिंत हो सकती है कि यह लड़ाई दक्षिणपंथी नहीं जीतेंगे. 20 साल की उम्र के आसपास वाले और बहुत सारे नौजवान होंगे जो खुल कर बोलेंगे कि उन्हें क्या सही लगता है और क्या गलत. ऐसे जोशीले लोगों की देश में कभी कमी नहीं होगी.
कोई कितना बर्दाश्त करे
गुरमेहर के ट्वीट्स से पता चलता है कि उनके लिए यह सब बस बहुत हो गया. बात भी सही है, कोई नौजवान इंसान आखिर कितना बर्दाश्त कर सकता है. जो कुछ उन्हें झेलना पड़ा, वह एक सोचा समझा हमला था, जिसमें कई केंद्रीय मंत्री और बीजेपी के सांसद उनके खिलाफ लगे थे.
जब वीरेंद्र सहवाग जैसा कोई इंसान व्यक्तिगत तौर पर गुरमेहर की फेसबुक पोस्ट पर अपनी राय जाहिर करता है तो यह एक बात होती है, लेकिन जब राजनेता वैचारिक नजरिए के साथ मामले में कूदने लगे तो मामला कुछ और हो जाता है. किसी को भी हैरानी हो सकती है कि जो मामला सिर्फ छात्रों से जुड़ा है उसमें किरन रिजिजू इतना क्यों घुसे जा रहे हैं.
एक दिन वह ट्वीट करते हैं कि कोई गुरमेहर के दिमाग को “दूषित” कर रहा है, तो उसके दूसरे दिन उनका बयान आता है, “वह एक शहीद की बेटी है. उनकी आत्मा रो रही होगी कि उनकी बेटी उन लोगों के हाथों गुमराह हो रही है जो शहीदों के शवों पर जश्न मनाते हैं.” देखने में यह बहुत दिलचस्प है कि किस तरह मुद्दों को अजीबोगरीब ढंग से भड़काया जा सकता है. इस तरह के बयान बिना किसी व्यापक संदर्भ के बिना नहीं दिए जा सकते. संदर्भ है विचारधारा.
विचारधारा का टकराव
विचारधारा भी अपने आप में समस्या नहीं होगी. हमने तो वामपंथियों की गुंडागर्दी भी देखी है. लेकिन समस्या तब होती है जब विचारधारा उन आजादियों से टकराने लगती है, जिन्हें हम नौजवान और छात्र के तौर पर अपना हक समझते हैं. अब ऐसे टकराव बढ़ते जा रहे हैं.
ऐसा लगता है कि दक्षिणपंथ एक गलत लड़ाई लड़ रहा है. वामपंथ के साथ उसका वैचारिक टकराव मुक्त विचारों और मुक्त अभिव्यक्ति पर संगठित हमले का आकार लेता दिखाई पड़ता है. विडंबना तो यह है कि वामपंथ ने भी कभी मुक्त विचारों और मुक्त अभिव्यक्ति को बढ़ावा नहीं दिया है. बेशक इस पूरे मामले के शिकार बनते हैं वे आम छात्र जिन्हें कैंपस में मिलने वाली आजादी की भावना प्यारी लगती है.
वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच अंतर यह है कि वामपंथी विचारधारा जहां युवा लोगों के आदर्शवादी ख्यालों के साथ ज्यादा मेल खाती है, वहीं दक्षिणपंथी विचारधारा इस मामले में उतनी सहज नजर नहीं आती.
दुश्मनों की जरूरत
चूंकि दक्षिणपंथ की स्वीकार्यता भी सहज नहीं होती, इसलिए उसे आक्रामता दिखानी पड़ती है, असहमति के हर स्वर को वामपंथी बताना पड़ता है, दुश्मन पालने होते हैं और धुक्का मुक्की और मार पीट भी करनी होती है. यह कहने से कुछ नहीं होगा कि दक्षिणपंथ बौद्धिक रूप से मजबूत नहीं है. उसका चरित्र बुनियादी तौर पर प्रतिक्रियावादी है और उन्हें लड़ने के लिए हमेशा दुश्मन चाहिए.
इसके बिना उनका काम नहीं चलेगा. इसलिए एबीवीपी के लड़ाकू चरित्र को समझना मुश्किल नहीं है. वे अपनी दलील स्पष्टता के साथ रख ही नहीं सकते. इसलिए उन्हें धमकियों से काम लेना पड़ता है. मिसाल के तौर पर देखिए कि उन्होंने कैसे राष्ट्रवाद की व्यापक अवधारणा को पाकिस्तान विरोध के छोटे से खांचे में फिट कर दिया है. हर किसी को उनकी बातें पूरी तरह हजम नहीं हो सकतीं.
कैंपस में अगर बहस और चर्चा की संस्कृति में गिरावट आई है तो इसके लिए वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों जिम्मेदार हैं. जब आप विचारों पर चर्चा करना बंद कर देते हैं और खुद तक सिमटी विचारधारा से ही ग्रस्त हो जाते हैं तो फिर यही होता है, जो हो रहा है. इसका नतीजा यह होता है कि फिर हमें तेजतर्रार नहीं बल्कि घिसेपिटे दिमाग मिलते हैं जो बिना सोचे विचारे बस आदेशों या आदतों का पालन करते हैं.
इसे भी स्वीकार किया जा सकता था अगर छात्रों के बीच मौजूद आजाद ख्याल लोगों को अपने विचारों की पूरी स्वतंत्रता होती. दिक्कत यह है कि दक्षिणपंथ ऐसे लोगों के समूह को भी वामपंथ से जोड़ देता है.
हारी हुई जंग
अगर यह किसी तरह के राष्ट्रवाद का हिस्सा है तो यह एक दुस्साहस है. छात्रों को रजामंद कर या विश्वास दिलाकर उनका मन बदलने में कोई बुराई नहीं है. लेकिन अगर आप इस काम को जबरदस्ती और डरा धमका करेंगे तो तय मानिए कि उसका उल्टा असर होगा.
इस देश में ऐसे युवाओं की कोई कमी नहीं जो आजाद सोच रखते हैं. एक गुरमेहर पीछे हटी है, लेकिन उनकी जगह लेने के लिए और बहुत सारे लोग होंगे. यह ऐसी लड़ाई है जिसे दक्षिणपंथ कभी नहीं जीत सकता है.
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