हालिया रिपोर्ट बताती हैं कि दिल्ली पुलिस को कन्हैया कुमार के खिलाफ देशद्रोह के कोई सबूत नहीं मिले हैं. कन्हैया कुमार जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के वही छात्र हैं, जिनपर एक साल पहले राष्ट्रीय स्तर पर लोगों की नफरत का पात्र बनना पड़ा था.
उन पर देश विरोधी नारे लगाने के आरोप लगाए गए. दरअसल यह ‘भारत विरोधी नारे’ का फ्रेज जो इतना चल पड़ा है, उसकी वजह ही कन्हैया और उनका मामला है.
हम किन नारों को भारत विरोधी कह सकते हैं, वास्तव में ये बहुत कम लोगों को पता है. 'कश्मीर मांगे आजादी' को भारत विरोधी नारा कहा जाता है. लेकिन इस रूप में भी आजादी के कई मायने और अर्थ निकाले जा सकते हैं. अगर इसे भारत विरोधी मान भी लिया जाए तो ये राजद्रोह का मामला नहीं हो सकता.
सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि किसी भी शख्स पर राजद्रोह का मुकदमा तभी चल सकता है जब वह विशेष रूप से हिंसा करने को कहे.
क्या अब माफी मांगेंगे कन्हैया को कटघरे में रखने वाले
अब हमें बताया जा रहा है कि कन्हैया की आवाज रिकॉर्ड किए टेप में नहीं है. इस वजह से उन पर देशद्रोह के आरोप नहीं लगाने चाहिए थे. उन्हें गिरफ्तार कर जेल नहीं भेजा जाना चाहिए था और अदालत के परिसर में उन पर वकीलों का हमला एक अपराध था. क्या अब प्रधानमंत्री मोदी और स्मृति ईरानी कन्हैया से माफी मांगेंगे क्योंकि उन्होंने जेएनयू के मुद्दे पर ट्वीट कर बहुत ही सख्त बयान दिए थे.
जेल से छूटने के बाद कन्हैया जेएनयू आए और उन्होंने अपने साथियों के साथ देश की सरकार को संबोधित करते हुए भाषण दिया. बहुत से लोगों ने इसे एक जबरदस्त भाषण माना. मैंने भी इन्हीं में से एक था और मैंने लिखा कि, बीजेपी को उन्हें छेड़ना नहीं चाहिए क्योंकि कन्हैया उनके लिए बहुत खतरनाक है.
वह गजब के वक्ता हैं और प्रधानमंत्री की चुभती हुई बातों का बड़े सलीके से इस तरह जवाब दे सकते हैं जो राहुल गांधी जैसे नेताओं से कभी न हो पाएगा.
कन्हैया की रिहाई के बाद मैं उनसे मिला और जो उनके भाषण में पाया था, वह वैसे ही हैं. वह एक आकर्षक इंसान हैं: गंभीर, विचारपूर्ण और विनम्र इंसान, जिसे अपने बारे में बात करना पसंद नहीं है बल्कि वह गंभीर मुद्दों पर चर्चा करना चाहता है.
कन्हैया की रिहाई के बाद बीजेपी की छात्र शाखा ने उन्हें अनदेखा किया है और पार्टी भी उनके बारे में कुछ कहने से दूर ही रही है. इससे मीडिया का ध्यान भी कन्हैया पर नहीं है. कन्हैया के खिलाफ कोई सबूत न मिलने की खबरों से यह मामला अब बंद हो जाएगा.
लेकिन राष्ट्र विरोधी होने का मुद्दा एक बार फिर यूनिवर्सिटी कैंपसों में गर्मा गया है. इस बार अन्य युवा लोग राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो गए हैं. जैसे कि गुरमेहर कौर, एक शहीद की बेटी, जिनके लड़ाई के खिलाफ बयानों का मजाक क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग ने उड़ाया था.
राष्ट्र विरोधी होने से जुड़ी इस बहस के दो पक्ष हैं, लेकिन हमें मानना होगा कि सिर्फ एक पक्ष ही हिंसक है और वो है सरकार और उसके एबीवीपी जैसे सहयोगी समूह.
अहम सवाल
सवाल ये है कि छात्र क्यों मुश्किल में पड़ना चाहेंगे? जबकि वे इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि उनके ये कदम न मीडिया को अच्छे लगेंगे और न ही आम जनता को. उनके साथ हिंसा भी हो सकती है. इसका जवाब ये है कि इस वक्त देश में बहुसंख्यकवाद और ठगों वाली विचारधारा के खिलाफ विरोध दर्ज कराने का कोई और मंच है ही नहीं.
बीजेपी और उसके हिंदूवादी समूह सख्त राष्ट्रवादी एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं. वे राष्ट्रगान, ध्वज, कश्मीर, माओवाद या अल्पसंख्यकों के अधिकारों के मुद्दे पर ऐसी किसी राय को बर्दाश्त नहीं करते, जो उनकी राय से अलग हो. अन्य राजनीतिक पार्टियां राष्ट्रवाद की बहस से दूर भाग गई हैं. कांग्रेस को लगता है कि व्यक्तिगत अधिकारों, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिक स्वतंत्रताओं के हक में खड़े होने से चुनाव में कोई फायदा तो मिलता नहीं है.
अदालतों ने भी फैसला कर लिया है कि मूड व्यापक राष्ट्रवाद के पक्ष में ही है. हाल में कुछ फैसले भी ऐसे ही आए हैं. मसलन फिल्म से पहले सभी भारतीयों को राष्ट्रगान के लिए खड़े होने के लिए मजबूर करने का फैसला इसी तरफ इशारा करता है.
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रेटिंग के जाल में फंसा मीडिया भी वैसी खबरें ही दिखाएगा जो संख्या के पक्ष में हो. मीडिया तो बेशक एक कारोबार है और उसे जनता की राय के आगे झुकना ही होगा. एक हद तक अखबार अपने संपादकीय पन्ने या विशेष पन्ने पर विरोधी मत को भी स्थान दे सकते हैं लेकिन टेलीविजन के लिए तो यह संभव ही नहीं है. इस तरह मीडिया भी प्रतिरोध का मंच नहीं रह गया है.
प्रतिरोध और विरोध का अकेला मंच सिर्फ यूनिवर्सिटी कैंपस ही बचे हैं. यही वह जगह है, जहां कन्हैया, उमर खालिद, गुरमेहर और शहला राशिद जैसे बहादुर नौजवान हिंदुत्व के खिलाफ खड़े हो रहे हैं. ये लोग कुछ गलत नहीं कह रहे हैं. कश्मीरियों के साथ संवाद शुरू करने में क्या खराबी है और इस बात को स्वीकार करने में क्या बुराई है कि हम लोग अपने आदिवासियों और दलितों के साथ दुर्व्यवहार कर रहे हैं. यह सच है.
मैं पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एमएस गिल से बात कर रहा था. गिल ने ही इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन शुरू की और भारत की चुनावी प्रक्रिया को दुनिया में बेहतरीन बनाया. मैंने उनसे पूछा कि कोई यूनिवर्सिटी महान कैसे बनती है. उन्होंने कहा कि, ‘विचारों की आजादी देकर ही कोई यूनिवर्सिटी महान बन सकती है.’ यही अधिकार हमारे बहादुर नौजवान मांग रहे हैं.
उन्होंने पिछले साल भी मांग की थी, लेकिन उस वक्त उनका दमन-उत्पीड़न किया गया. हालांकि मोदी सरकार की पुलिस फोर्स ने खामोशी से यह खबर लीक की है कि जिस व्यक्ति को उन्होंने एक दानव साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, उसने तो असल में कुछ भी गैरकानूनी नहीं किया.
चूंकि ‘राष्ट्र विरोधियों’ के खिलाफ हिंसा और नफरत का एक और दौर शुरू हो गया है, तो हम सबको उनका समर्थन करना चाहिए और उनका बचाव करना चाहिए. उनके विचारों से सहमति-असहमति हो सकती है लेकिन उनके बढ़ाए कदम छात्रों के हित में है.
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