कोटा में घूमते हुए आप लैपटॉप कंप्यूटर के साथ पत्थर पर बैठे राजीव गांधी की प्रतिमा देख सकते हैं. यह शायद रोडिन की मशहूर मूर्तिकला 'थिंकर' से प्ररित है, लेकिन इसमें विभिन्न स्तरों पर विरोधाभास नजर आता है.
यह शहर राजस्थान के दक्षिण पश्चिम हिस्से में मौजूद है और यह शायद पश्चिम के यूनिवर्सिटी शहरों की तुलना में अपेक्षाकृत सबसे करीब भारतीय शहर है. हालांकि, यह तुलना भी इस सिलसिले में कल्पना के दायरे को बड़े पैमाने पर बढ़ाने जैसी होगी. दरअसल, जैसा कि मशहूर है, यहां विश्वविद्यालयों की बजाय इंजीनियरिंग, मेडिकल आदि से संबंधित कोचिंग संस्थानों की भरमार है.
कोटा आधुनिक समय का नालंदा नहीं है. यहां कोई मशहूर विश्वविद्यालय नहीं है. अगर शिक्षा को एक उद्योग की तरह माना जाए तो कोटा का स्थान कुछ वैसा ही है, जो अमेरिका में ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री के लिए ड्रेट्रॉइट हुआ करता था.
कोटा की कोचिंग फैक्ट्रियां इंजीनियरिंग और मेडिकल प्रवेश परीक्षाओं के लिए 1,50,000 से ज्यादा स्टूडेंट्स को तैयार करती हैं. शहर की अर्थव्यवस्था कोचिंग इंडस्ट्री के इर्द-गिर्द चलती है, जिसका साल 2016 में अनुमानित टर्नओवर 1,500 करोड़ रुपए रहा. अब यह 3,000 करोड़ रुपए के आंकड़े को पार कर सकता है.
कोटा के कोचिंग उद्यमी नए महाराजा हैं
जाहिर तौर पर उनके पास बड़ी राजनीतिक ताकत है. हालांकि, कोटा के पूर्व राजा भी आजकल सुर्खियों में हैं. हम इस मुद्दे पर बाद में आएंगे. बहरहाल, शहर में प्रवेश करने के साथ ही आपको यहां के स्थानीय कांग्रेस दिग्गज शांति धारीवाल की मुस्कुराहट भरी तस्वीरों के भरे कई बड़े-बड़े बोर्ड मिल जाएंगे. इसके उलट शहर के क्षितिज पर बीजेपी की मौजूदगी नदारद नजर आती है. हालांकि, इसकी वजह बीजेपी द्वारा देर से उम्मीदवार का ऐलान किया जाना हो सकता है.
इसके बावजूद लोग इस बार उनकी जीत को लेकर पूरी तरह सुनिश्चित नहीं है. इसकी वजह कई तरह की उठापटक और कांग्रेस के विभिन्न गुटों के भीतर कलह और विवाद है. अपने उम्मीदवारों के ऐलान के बाद कांग्रेस को हल्की बगावत का सामना करना पड़ा था. हालांकि, बीजेपी को भी इस तरह के हालात से रूबरू होना पड़ा था.
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लोगों का कहना है कि जब जीत की संभावना ज्यादा हो तो टिकट का नुकसान ज्यादा चोट पहुंचाता है. दरअसल, कांग्रेस में जीत को लेकर इस बार मूड ज्यादा उत्साहजनक है, लिहाजा जो लोग टिकट हासिल करने की दौड़ में पीछे छूट गए हैं, उनका आक्रोश बीजेपी के इस तरह के उम्मीदवारों के मुकाबले ज्यादा है. मुमकिन है कि बीजेपी में इस तरह के नेता गुप्त रूप से टिकट नहीं मिलने को अच्छा ही मान रहे हों.
कांग्रेस को छोड़ वसुंधरा के साथ हो चुका है कोटा का राज परिवार
मेरे स्थानीय सहयोगी का जोर था कि मैं कोटा के राजा के आवास बृराज भवन का दौरा जरूर करूं. यहां बाहरी इलाके में बीजेपी का पट्टा बांधे पार्टी कार्यकर्ताओं की भीड़ जुटी हुई थी. महज कुछ दिनों पहले यहां की भीड़ कांग्रेसी रंग में रंगी थी.
आखिरी वक्त में वसंधुरा राजे ने राज परिवार के उत्तराधिकार जियाराज सिंह की पत्नी कल्पना राजे को टिकट की पेशकश कर अपने पाले में कर लिया. सिंह कोटा-बूंदी से कभी कांग्रेस पार्टी के सांसद हुआ करते थे. राज परिवार कांग्रेस नेता उनकी बजाय कांग्रेस नेता नइमुद्दीन गुड्डू को टिकट के लिए चुने जाने को लेकर नाराज था.
यहां तक कि एक महीना पहले इज्यराज सिंह कांग्रेस के संवाद और प्रचार अभियान कार्यक्रमों में प्रमुखता से नजर आ रहे थे. अक्टूबर के आखिर में राहुल गांधी जब एक चुनावी रैली को संबोधित करने कोटा पहुंच थे तो सिंह राहुल गांधी की अगुवानी करते नजर आए थे. खबर लिखे जाने तक उन्होंने अपने फेसबुक पेज से इन तस्वीरों को नहीं हटाया था.
इसे एक तरह की चाल के तौर पर देखा जा रहा है. कल्पना राजे जहां अपने निर्वाचन क्षेत्र में हिंदू वोटों को इकट्टा करेंगी, वहीं पूर्व सांसद और राजपरिवार के उत्तराधिकारी इज्यराज सिंह का कोटा और आसपास के इलाकों में काफी लोकप्रियता है. इसके अलावा, उम्मीद की जा रही है कि मानवेंद्र सिंह के कांग्रेस में शामिल होने से इस पार्टी को जो लाभ मिलेगा, सिंह राजे के निर्वाचन क्षेत्र झालावार समेत इस पूरे क्षेत्र में चुनाव प्रचार कर बीजेपी के पक्ष में कांग्रेस के इस लाभ की भरपाई कर सकते हैं.
एक और अहम बात यह है कि कोटा राजपरिवार के बीजेपी में शामिल होने से राजपूत लॉबी को काफी हद तक संतुष्ट करने में मदद मिलेगी, जिनकी वसुंधरा से अनबन थी.
चुनाव परिणामों को लेकर दावा करने में सतर्कता बरते रहे लोग
मुझे राजमहल के आउटहाउस में बने अस्थायी ऑफिस में ले जाया गया. चुनाव के वक्त नेताओं से मिलने को लेकर सतर्क रहना पड़ता है. हालांकि, महाराज से मिलकर मुझे आश्चर्य और खुशी हुई, जिनके पास न तो नेताओं वाली अकड़ थी और न ही राजशाही वाला परंपरागत मिजाज. दोनों एक साथ मिलकर जबरदस्त जोड़ी तैयार कर सकते हैं, जैसा कि बाकी राजाओं और रानियों के मामले में देखा गया है. इज्यराज अनिच्छुक राजनेता की तरह नजर आए. ऐसा इसलिए हो सकता है, क्योंकि वह नए भगवा माहौल में अब तक पूरी तरह से एडजस्ट नहीं हुए हों.
इस तरह की बात पूरे राज्य में आपको सुनने को मिल सकती है. इसकी व्याख्या बहादुरी का प्रदर्शन या सतर्कतापूर्ण आशावाद की तरह की जा सकती है. हालांकि, इससे इस बात की पुष्टि होती है कि मुकाबला अब उससे ज्यादा करीब है, जैसा कि कुछ समय पहले नजर आ रहा था. निश्चित तौर पर पिछले कुछ हफ्तों में बीजेपी के 'शेयर' काफी चढ़े हैं। इसका मुख्य श्रेय वसुंधरा राजे की गहरी और सुनियोजित रणनीति को जाएगा.
कोटा और आसपास के इलाकों में नोटबंदी और GST भी मुद्दा!
कोटा राजस्थान के हाड़ौत इलाके में पड़ता है और इसमें बूंदी, बारां और झालावार जिले शामिल हैं. चंबल की तरफ पोषित किए जाने के कारण यह राज्य का अपेक्षाकृत ज्यादा उपजाऊ इलाका है. कोटा की सेठ भामाशाह मंडी देश की सबसे बड़ी मंडियों में से एक है. यहां कॉटन, बाजरा, गेहूं, धनिया, लहसुन और तिलहन का कारोबार होता है.
कुछ उद्योग भी हैं. कुछ बड़ी इकाइयों की बात करें तो थर्मल पावर, फर्टिलाइजर और कास्टिक सोडा के प्लांट यहां हैं. इसके अलावा, स्टोन पॉलिशिंग, पारंपरिक टेक्सटाइल, कॉटन और तिलहन संबंधी मिल भी यहां के लिए काफी अहम हैं.
कोचिंग संस्थानों ने मुख्य तौर पर देशभर से आने वाले प्रोफेशनल्स को रोजगार मुहैया कराया है. निश्चित तौर पर स्टूडेंट्स की बड़ी संख्या ने शहरी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया है, लेकिन ग्रामीण इलाकों के लिए इसके माध्यम से ज्यादा कुछ नहीं हुआ है. लिहाजा, यह इलाका मुख्य तौर पर खेती पर ही निर्भर है और कई तरह की कठिनाइयां भी हैं.
हमने यहां के जिन कारोबारियों से मुलाकात की, वे आम तौर पर नोटबंदी की काले धन को पकड़ने के लिए एक बार की दवा के रूप तारीफ कर रहे थे. हालांकि, इसके कारण पारदर्शिता और डिजिटलाइजेशन का मार्ग प्रशस्त होने को लेकर वह संतुष्ट नजर आए. एक कारोबारी ने भोलेभाले अंदाज में कहा, 'बिजनेस पूरा 'सफेद' में कैसा किया जा सकता है.'
इसी तरह, जीएसटी को सब लोग अच्छा रिफॉर्म के रूप में स्वीकार कर रहे हैं. हालांकि, वे बिना किसी योजना तैयार किए इसे लागू करने और नियम-कानून की उलझनें बढ़ने को लेकर सरकार को दोष देते हैं. एक डीलर ने बताया, 'बड़ी कंपनियों के पास रिटर्न भरने के लिए स्टाफ होता है. इसके उलट हमें सब कुछ खुद से करना होता है. हमारे पास समय कहां है? वे कंप्लायंस को हर महीने की बजाय तिमाही क्यों नहीं कर सकते?'
हालांकि, नरेंद्र मोदी को लेकर लोगों का रवैया आलोचनात्मक नहीं है. उनके मुताबिक, प्रधानमंत्री की नीयत नेक थी, लेकिन मंत्रियों और नौकरशाही द्वारा उन्होंने गुमराह और परेशान किया गया. चर्चा के इस दौर में आश्चर्यजनक तरीके से पीयूष गोयल का नाम उभरकर सामने आता है. एक शख्स का कहना था कि गोयल जैसे लोग कारोबारियों की तकलीफ को बेहतर ढंग से समझते. उन्होंने इस सिलसिले में वित्त मंत्रालय में गोयल के अस्थायी कार्यकाल के दौरान 'कारोबारियों के अनुकूल' लिए गए फैसलों का भी हवाला दिया.
कायम है वसुंधरा राजे की लोकप्रियता!
एक और हैरानी की बात यह देखने को मिली कि प्रधानमंत्री आयुष्मान योजना और उज्ज्वला जैसी केंद्र सरकारी की योजनाओं के बारे में कोई ज्यादा बात नहीं कर रहा था. बहुचर्चित स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट पर काम नहीं शुरू हुआ है। गौरतलब है कि कोटा को भी इस प्रोजेक्ट के लिए चुना गया है. चुनाव को लेकर ज्यादा जोर राज्य सरकार के कार्यक्रमों पर रहा है.
इसलिए, वसुंधरा राजे की लोकप्रियता बनी हुई है. जयपुर-झालावार हाइवे ने उन्हें काफी वाहवाही दी है. उदयपुर के पहले ही कोटा से अच्छी तरह से जुड़ जाने के कारण यह इलाका अब काफी सुगम हो गया है. निश्चित तौर पर इससे विकास और समृद्धि में बढ़ोतरी हुई है.
झालावार में प्रस्तावित हवाई अड्डा मध्य प्रदेश और गुजरात के आसपास के इलाकों की भी जरूरतें पूरी करेगा और यह इस पूरे इलाके के लिए वरदान की तरह साबित होगा. दरअसल, अभी इस इलाके में रेलवे ही आवागमन का मुख्य साधन है. ऐसे में कहा जा सकता है कि बीजेपी सरकार के साथ लोग कितनी भी नाराजगी का इजहार करें, वफादार वोटर अब भी ईवीएम में ही कमल पर बटन दबा सकते हैं.
जयपुर से कोटा एक्सप्रेसवे की ड्राइव काफी मजेदार है. इस दौरान ब्रेक के लिए आप होटल शीतल टोंक और कुछ अन्य जगहों पर रुक सकते हैं. यहां पर बीजेपी के उम्मीदवार यूनूस खान ने अपने समर्थकों के साथ डेरा डाल रखा है.
सचिन पायलट के लिए भी डगर आसान नहीं
सचिन पायलट के विरोध में खान का चुनाव शायद इस चुनाव में राजे की 'गुगली' थी. इस उम्मीदवार को इंपोर्ट करने का राजे के फैसले को लेकर अब तक विधानसभा क्षेत्र के बाहर के राजनीतिक वर्ग सहज नहीं हुए हैं. हालांकि, टोंक में बीजेपी कार्यकर्ता सफलता की बेहतर संभावना के साथ इसे मास्टर-स्ट्रोक की तरह देख रहे हैं.
टोंक में तकरीबन 50 फीसदी अल्पसंख्यक आबादी है. पिछड़ी जाति की आबादी तकरीबन 20 फीसदी है. कांग्रेस ने ऐतिहासिक तौर पर हमेशा से इस सीट से मुस्लिम उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारा है.
सामान्य परिस्थिति में अल्पसंख्यक वोट स्वाभाविक तौर पर कांग्रेस की तरफ जाता. हर कोई उत्सुकता से इस बात का इंतजार कर रहा है कि खान की एंट्री से क्या राजनीतिक गुल खिलने वाला है। अनुसूचित जाति/जनजाति कानून पर बीजेपी के दांव के कारण खान को पिछड़ा वर्ग का कुछ वोट भी मिल सकता है.
दूसरी तरफ, पायलट को स्थानीय नेतृत्व द्वारा खतरे के रूप में देखा जा रहा है. अगर वह जीतते हैं तो इस बात की प्रबल संभावना है कि वह टोंक को अपना चुनाव क्षेत्र बना सकते हैं. यह बात अल्पसंख्यक नेताओं को रास नहीं आएगी, जो अब तक यहां से अपनी राजनीति चला रहे थे.
हालांकि, मुमकिन है कि इन तमाम चुनौतियों के बावजूद पायलट जीत जाएं, लेकिन उनके लिए जीतना आसान नहीं होगा, जैसा कि कइयों ने उम्मीद जताई थी. यहां वसुंधरा राजे-रणनीतिकार की अहमियत का पता चलता है. जाहिर तौर पर इन चुनावों में उनका साख दांव पर लगी है.
अगर सचिन पायलट चुनाव हारते हैं तो वह अभी इतने युवा हैं कि दूसरे चुनाव का भी इंतजार कर सकते हैं. अशोक गहलोत ने यह सब कुछ देख और कर चुके हैं. वह नई दिल्ली में राहुल गांधी के चाणक्य की भूमिका अदा कर खुश रहेंगे.
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मोदी और अमित शाह दिल्ली के लिए बड़ी लड़ाई की तरफ आगे बढ़ेंगे, लेकिन वसुंधरा के लिए हार का मतलब लंबी अवधि का राजनीतिक झटका हो सकता है.
इन तमाम परिस्थितियों के मद्देनजर राज ने शानदार तरीके से अपना दांव खेला है. पहला उन्होंने राजस्थान में बीजेपी के लिए अपनी अनिवार्यता स्थापित की है. टिकटों के बंटवारे में उनके वफादारों की हिस्सेदारी और अब आरएसएस द्वारा उनके समर्थन के जरिये इस बात की झलक मिलती है.
दूसर, उन्होंने राज्य में अलग-अलग राजनीतिक समूहों से संबंधों को बेहतर करने का प्रयास किया है. हालांकि, उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि कांग्रेस में उथल-पुथल फैलाना रही है. उन्होंने काफी मुश्किल से बीजेपी को राज्य में फिर से मुकाबले में लाया है. अब चुनावप्रचार के आखिरी दौर में मोदी की थोड़ी सी मदद से वह 10 रैलियां करने वाली हैं. इस तरह से वह जयपुर की परंपरा को तोड़ते हुए लगातार दूसरी बार वापसी कर सकती हैं.
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