क्या राजस्थान से बीजेपी की विदाई तय है? आम जनता के बीच इस सवाल का जवाब तो अरसे से मौजूद है लेकिन अब लगता है कि खुद बीजेपी ने भी इसे समझ लिया है. पिछले साल राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के जयपुर दौरे पर भले ही टारगेट 180 का नारा दिया गया. लेकिन अब इसे पाना तो दूर, सत्ता बचा पाना ही मुश्किल लग रहा है. फरवरी के पहले हफ्ते में 3 उपचुनावों में हार और मार्च के पहले हफ्ते में स्थानीय निकाय उपचुनावों में हार ने बीजेपी के सामने मुश्किल खड़ी कर दी है कि सत्ता बचाई जाए तो कैसे.
राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में इसी साल के आखिर में चुनाव हैं. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में 15 साल से बीजेपी सत्ता में है. उत्तर और मध्य भारत के ये तीन अहम राज्य हैं. इनके तुरंत बाद अगले साल अप्रैल-मई में लोकसभा चुनाव हैं. ऐसे में अगर इन तीन राज्यों में बीजेपी हारती है तो लोकसभा चुनाव से पहले विपरीत हवा बनते देर नहीं लगेगी. 2013-14 में हम सबने देखा है कि इन राज्यों में एकतरफा जीत के बाद कैसे लोकसभा चुनाव में मोदी सुनामी निर्मित हो गई थी.
हालांकि संघ, शाह और मोदी की जोड़ी में हार न मानने का जज्बा दिखता है. त्रिपुरा समेत उत्तर पूर्व के राज्यों में कांग्रेस और लेफ्ट को पछाड़ने का पहाड़ जैसा काम करके दिखाना इसका सबूत है. राजस्थान में भले ही फिलहाल जनमानस बीजेपी की सत्ता में वापसी को मुश्किल ही नहीं नामुमकिन बता रहा हो. लेकिन लगता नहीं कि संघ-शाह-मोदी की तिकड़ी इतनी आसानी से 'गिवअप' करेगी.
उम्मीदवारों की लिस्ट कुछ कहती है
राज्यसभा के लिए चुने गए उम्मीदवारों के नाम इसकी झलक देने के लिए पर्याप्त हैं कि बीजेपी इतनी आसानी से मैदान छोड़ने को तैयार नहीं है. राष्ट्रीय महामंत्री भूपेंद्र यादव, अनुशासन समिति अध्यक्ष मदन लाल सैनी और पार्टी में पुनर्वापसी करने वाले किरोड़ी लाल मीणा को उम्मीदवार बनाया गया है. भूपेंद्र यादव 2012 से राज्यसभा सांसद हैं और उन्हें दोबारा चुना गया है. लेकिन बाकी दोनों नाम चौंकाने वाले हैं.
डॉ किरोड़ी लाल मीणा ने एक दिन पहले ही बीजेपी में घरवापसी की थी और उन्हे फौरन राज्यसभा में भेजने की घोषणा कर दी गई. 10 साल पहले पार्टी छोड़ने के बाद से ही राजस्थान में नेतृत्व के खिलाफ उनकी उग्रता चर्चा का विषय बनी रही है. अब अचानक उनका लौटना और धुर विरोधी वसुंधरा राजे का भावुक होकर स्वागत करना दिखाता है कि बीजेपी नेतृत्व को परीक्षा से पहले ही फेल होने का आभास हो चुका है.
राज्यसभा के लिए उम्मीदवार बनाया गया तीसरा नाम है मदन लाल सैनी का. सैनी से बीजेपी, खासकर संघ से जुड़े नेता-कार्यकर्ता तो अच्छी तरह परिचित हैं लेकिन आम जनता उनके बारे में कम ही जानती है. हालांकि सैनी एक बार विधायक रह चुके हैं, 2 बार लोकसभा का चुनाव लड़ चुके हैं, पेशे से वकील हैं, भारतीय मजदूर संघ में रहते हुए अच्छा नाम कमा चुके हैं. वर्तमान में वे राजस्थान के प्रशिक्षण प्रभारी और अनुशासन समिति के अध्यक्ष हैं. इसके बावजूद पिछले कुछ साल से वे उपेक्षित से थे.
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अब अचानक सैनी को सामने लाने के पीछे जीत के लिए जरूरी सोशल इंजीनियरिंग के गुणा भाग हैं. तीनों उम्मीदवार पिछड़े वर्गों से हैं (2 ओबीसी, 1 एसटी). हम आपको बताएंगे कि अब तक सवर्णों की पार्टी कही जाने वाली बीजेपी को क्यों पिछड़े वर्गों पर ध्यान लगाना पड़ रहा है. लेकिन पहले आपको बताते हैं डॉ किरोड़ी लाल मीणा और मदन लाल सैनी के बारे में.
कौन हैं किरोड़ी लाल मीणा?
किरोड़ी लाल को मौजूदा समय में मीणा समाज का सबसे बड़ा नेता कहा जाए तो कुछ गलत न होगा. उनका बैकग्राउंड राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है और राजस्थान में वसुंधरा राजे के उदय से पहले तक वे बीजेपी के सम्मानित नेता रहे हैं. मीणा 5 बार विधायक और 2 बार सांसद भी रह चुके हैं. संघ और बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व से उनकी करीबियां हमेशा बनी रही हैं.
वसुंधरा राजे से मतभेदों के बाद उन्होंने बीजेपी से इतर राष्ट्रीय जनतांत्रिक पार्टी का गठन किया. 2013 के विधानसभा चुनाव में उन्होने ताल ठोंकी. हालांकि मोदी लहर के चलते उन्हे अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई और उनकी पार्टी सिर्फ 4 सीट जीत पाई. खुद उन्होंने 2 सीट से चुनाव लड़ा था जिसमें एक पर हार हुई. लेकिन नतीजों से उनके सम्मान और समर्थन में किसी तरह की कमी नहीं आई.
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही उनके बीजेपी में आने की अटकलें चल रही थी. पिछले 4 साल में उन्होने कई मौकों पर मोदी, अमित शाह, राजनाथ सिंह, अरुण जेटली जैसे पुराने मित्रों से गाहे-बगाहे मुलाकातें की थी. ये अलग बात है कि हालिया समय तक वे 'उग्र' बने रहे और बीजेपी में लौटने की संभावनाओं को खारिज करते रहे. अब अचानक से न सिर्फ वे बीजेपी में वापस आ गए बल्कि उन्होने अपनी पार्टी का भी विलय कर दिया.
किरोड़ी लाल मीणा की घरवापसी क्यों?
राजस्थान में बीजेपी सरकार से खासकर वसुंधरा राजे को लेकर एंटी इंकमबेंसी फैक्टर तेजी से निर्मित हो रहा है. महिला दिवस पर झुंझुनूं में आयोजित हुई रैली में युवाओं ने मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को काले झंडे दिखाए थे. फ़र्स्टपोस्ट में ही हमने बताया था कि कैसे राजस्थान में एक नारा लोकप्रिय हो रहा है- 'मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं'. पिछले महीने उपचुनावों में बीजेपी की सबसे बुरी हार के बाद तो पार्टी के थिंकटैंक को नई रणनीति पर काम करने को मजबूर कर दिया.
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बताया जा रहा है कि इसी के बाद राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने नई संभावनाओं पर विचार करना शुरू कर दिया. इसके तहत जातिगत समीकरणों और बीजेपी के लिए खतरा बन सकने वाले नेताओं की पूछ-परख शुरु हुई. इन्हीं में डॉ किरोड़ी लाल मीणा का नाम सबसे ऊपर उभरकर आया. जैसा कि हमने बताया पूर्वी राजस्थान से आने वाले डॉ किरोड़ी लाल, मीणा समाज के सम्मानित नेता हैं. अपनी उग्र शैली की वजह से युवाओं में वे खास लोकप्रिय हैं.
राजस्थान में अनुसूचित जनसंख्या करीब 14% है. इनमें आधी से ज्यादा जनसंख्या अकेले मीणा जाति की है यानी 50 लाख से ज्यादा. इससे भी बड़ी बात ये है कि मीणा जाति राजस्थान की 45 से ज्यादा विधानसभा सीटों पर निर्णायक भूमिका में है. मीणा समाज मूल रूप में कांग्रेस का वोटबैंक रहा है. पूर्वी राजस्थान से कांग्रेस को ज्यादा सीटें मिलती रहने का कारण यही है. लेकिन 2013 में कांग्रेस के 20 सीटों पर सिमटने के पीछे डॉ किरोड़ी लाल मीणा की भूमिका ही मानी जाती है क्योंकि मीणाओं ने उनके पक्ष में जबर्दस्त वोटिंग की. हालांकि डॉ मीणा बीजेपी को सबक सिखाने के लिए मैदान में उतरे थे पर बुरा हो गया कांग्रेस का.
एक तीर से वसुंधरा के कई निशाने
बहरहाल, पिछले कुछ महीनों से बीजेपी के पुराने और वसुंधरा राजे से खफा चल रहे नेताओं को साथ मिलाकर तीसरे मोर्चे को खड़ा करने की कोशिशें की जा रही थीं. इस मोर्चे में जुगलबंदी कर रहे थे, डॉ किरोड़ी लाल मीणा, खींवसर विधायक हनुमान बेनीवाल और सांगानेर विधायक घनश्याम तिवाड़ी. इसी में देरसवेर भैरों सिंह शेखावत के दामाद और विद्याधर नगर विधायक नरपत सिंह राजवी के मिलने की संभावनाएं भी जताई जा रही थी.
पहले भी तीसरे मोर्चे की कोशिशें होती रही हैं लेकिन इस बार घंटी वाकई खतरे की थी. तीसरे मोर्चे की ये ऐसी सोशल इंजीनियरिंग होती जिसकी काट बीजेपी के पास नहीं थी. डॉ किरोड़ी लाल, मीणा समाज को, हनुमान बेनीवाल जाट समाज को और घनश्याम तिवाड़ी ब्राह्मण समाज को एकजुट कर रहे थे. राजपूत पहले से बीजेपी के विरोध में चल रहे हैं और नरपत सिंह राजवी के नेतृत्व में वे भी इस सोशल इंजीनियरिंग का हिस्सा बन जाते तो आप सोच सकते हैं क्या होता. इसीलिए पूरी रणनीति बनाकर डॉ किरोड़ी लाल मीणा की बीजेपी में घरवापसी करवाई गई है.
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हालांकि उन्हें राज्यसभा में भेजे जाने के पीछे वसुंधरा खेमे का हाथ बताया जा रहा है. किरोड़ी लाल के दिल्ली जाने से वसुंधरा राजे के लिए पार्टी के भीतर और बाहर का खतरा बेहद कम हो गया है. एक तरफ तीसरा मोर्चा बनने से पहले बिखर गया, दूसरी तरफ घरवापसी के बाद किरोड़ी लाल मीणा की तरफ से भीतरघात की संभावना भी कम हो गई. बताया जा रहा है कि जब किरोड़ी लाल की केंद्रीय नेतृत्व से घरवापसी के मुद्दे पर चर्चा चल रही थी, तभी राजे खेमे ने राज्यसभा का दांव चल दिया.
सूत्रों के मुताबिक पिछले दिनों पार्टी और संघ की बैठक में ये तय किया गया था कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव में चाहे जीतने वाले उम्मीदवारों पर ही दांव खेला जाए लेकिन राज्यसभा में कैडर और संघ बैकग्राउंड वालों को ही तवज्जों मिलनी चाहिए. डॉक्टर साहब पुराने स्वयंसेवक रहे हैं और वसुंधरा राजे खेमे ने उन्हें राजस्थान से बाहर भेजने के लिए तरकश से इसी तीर को निकाला.
सैनी से सधेगी सोशल इंजीनियरिंग!
जैसा कि हमने बताया, मदन लाल सैनी के नाम ने भी सबको अचंभित कर दिया है. अचानक उनका नाम सामने आने से लोग हैरान हैं कि उन्हे ढूंढ़कर क्यों निकाला गया. खुद उन्हें और उनके घरवालों को भी इसका आभास नहीं था. पार्टी दफ्तर में उनके नाम की घोषणा के वक्त भी वे मौजूद नहीं थे. उन्हें बाद में बुलाया गया.
सैनी को राज्यसभा में भेजे जाने के पीछे बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग ही है. राजस्थान में ओबीसी की जनसंख्या 50% से ऊपर बताई जाती है यानी करीब साढ़े 3 करोड़. इनमें से माली-सैनी जाति का कुल जनसंख्या में करीब 6% हिस्सा बताया जाता है. ये करीब 35 विधानसभा सीटों पर प्रभावशाली भूमिका में है.
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पारंपरिक रूप से माली-सैनी बीजेपी का वोट बैंक रहे हैं. लेकिन अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री बनने के बाद इनका वोट कांग्रेस को जाने लगा. अब संभावित बुरे हालात देखकर बीजेपी ने सैनियों को साधने के लिए मदनलाल सैनी को उच्च सदन में भेजने का फैसला किया है. इससे कार्यकर्ताओं को भी ये मैसेज देने की कोशिश की गई है कि देर से ही सही लेकिन निष्ठा से काम करने वालों को आखिरकार इनाम तो मिलता ही है. वैसे मदन लाल सैनी की जिंदगी हमें आज के दौर में भी सादा जीवन उच्च विचार की शिक्षा देती हैं.
राजस्थान के 'माणिक सरकार' हैं मदन लाल सैनी
मदनलाल सैनी की जीवनशैली देखकर कहीं से भी भरोसा नहीं होता कि वे राजनीति में इतने लंबे वक्त से हैं. पिछले दिनों त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री माणिक सरकार की सादगी के बारे में बहुत कुछ लिखा-पढ़ा गया. मदनलाल सैनी को भी माणिक सरकार के समकक्ष रखें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. सैनी जयपुर से 120 किलोमीटर दूर सीकर में रहते हैं. सीकर से जयपुर स्थित बीजेपी दफ्तर बस से ही आते-जाते हैं. सादगी इतनी कि बधाई देने वालों का तांता लगा तो मिठाई खिला रही बहू को सास ने थोड़ी-थोड़ी खिलाने को कहा क्योंकि मिठाई का डिब्बा छोटा था और बधाई देने वाले ज्यादा थे.
केंद्रीय मंत्री चौधरी बीरेंदर ने कांग्रेस में रहते हुए कबूल किया था कि कैसे आज के चुनाव इतने महंगे हो चुके हैं. चौधरी साहब ने बिना किसी का नाम लिए बताया था कि एक उद्योगपति ने राज्यसभा में पहुंचने के लिए 100 करोड़ रुपए खर्च किए थे. राजनीति के इस दौर में मदन लाल सैनी जैसी शख्सियत का संसद के उच्च सदन में पहुंचना दिखाता है कि वाकई असंभव कुछ भी नहीं. सैनी का चयन ये भी दिखाता है कि राजनीति सिर्फ चिल्लाने वालों और बदमाशों की ही आखिरी शरणस्थली नहीं है. यहां धैर्य के साथ अपना काम करते रहने वाले 'एकलव्यों' को हमेशा ही अंगूठा नहीं कटाना पड़ता.
बहरहाल, अजमेर, अलवर और मांडलगढ़ उपचुनाव में बीजेपी के राजपूत और ब्राह्मण जैसे सवर्ण वोटबैंक में कांग्रेस सेंध लगाने में सफल रही थी. राजपूतों को मनाने की तमाम कोशिशें नाकाम होने के बाद अब बीजेपी ने गैर जाट ओबीसी वर्ग पर निगाहें टिका दी हैं. पार्टी को उम्मीद है कि किरोड़ी लाल मीणा की घरवापसी से आदिवासी वोटों को भी एक बार फिर भगवा खेमे में लाया जा सकेगा. हालांकि अभी भी पूरे तौर पर आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता. ब्राह्मण विधायक घनश्याम तिवाड़ी को नहीं साधा जा सका है और गुर्जरों ने भी अगले महीने आंदोलन की धमकी दे दी है. अब देखना है कि वसुंधरा सरकार के तरकश में अगला तीर कौनसा है.
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