तीन रोज पहले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने राजस्थान में एक तरह से पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के करियर पर पर्दा गिरा दिया. भाषण के संदर्भ और भाषा के संकेत से तो यही मतलब निकाला जा सकता है कि गांधी सचिन पायलट को अगला मुख्यमंत्री देखना चाहते हैं.
सप्ताह के शुरू में राहुल गांधी ने कई चुनावी रैलियां और रोड शो किए. एक तरह से उन्होंने इनमें गहलोत पर निशाना साधा. उन्होंने कहा कि कांग्रेस की पिछली सरकार कार्यकर्ताओं और लोगों की नहीं सुनती थी. राजस्थान में कांग्रेस की पिछली दो सरकारें 1998 से 2003 और फिर 2008 से 2013 तक थीं. इन दोनों सरकारों में मुख्यमंत्री गहलोत थे. कांग्रेस अध्यक्ष के शब्दों में इसकी झलक मिलती है कि अब वे नए तरह की सरकार और नेतृत्व चाहते हैं.
चंद रोज पहले यह माना जा रहा था कि कांग्रेस राजस्थान में मुख्यमंत्री पद के लिए उम्मीदवार की घोषणा नहीं करेगी. यह कदम पार्टी को एकजुट रखने के रूप में देखा जा रहा था, ताकि किसी की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा पूरे कैंपेन को बर्बाद न कर दे. इससे कार्यकर्ता एक साथ जुटें. वे गहलोत और पायलट खेमे में बंटकर आमने-सामने खड़े दिखाई नहीं दें. लेकिन अब तक जो किया जा रहा था, वो बदलता दिखाई दे रहा है. रणनीति यह दिखने लगी है कि पायलट को अगले मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट किया जाए.
दो फैक्टर हैं, जिन्होंने कांग्रेस की मदद की. जिससे वे मुख्यमंत्री के नाम पर साफ संकेत देने में कामयाब रहे. पहला, बढ़ता भरोसा कि अब विधानसभा चुनाव में कांग्रेस आसानी से जीत जाएगी. तमाम ओपिनियन पोल आए हैं, जिन्होंने सीट और वोट शेयर दोनों मामलों में सत्ताधारी बीजेपी के हारने की भविष्यवाणी की है. लगभग सभी ने 200 सदस्यों वाली विधानसभा में बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस के लिए कम से कम 80 ज्यादा सीटों की भविष्यवाणी की है.
इसके अलावा, पायलट राज्य में सबसे लोकप्रिय नेता के तौर पर उभर कर आए हैं. वो न सिर्फ गहलोत से बल्कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से भी आगे हैं. उनके बढ़ते असर के बीच कांग्रेस उन्हें कैंपेन का चेहरा बनाने के लिए तैयार है.
हालांकि कांग्रेस हाई कमान के लिए गहलोत किसी नाजुक समस्या से कम नहीं हैं. वो लोकप्रिय नेता हैं. इसके अलावा काडर में उनके निष्ठावान लोगों की भरमार है. राज्य के हर विधानसभा क्षेत्र में बड़ी तादाद में उनके समर्थक, इनफॉर्मर और बूथ वर्कर हैं. इसके साथ, वो पिछड़ी जाति में माली वोट को पूरी तरह मोड़ने की क्षमता रखते हैं. ऐसे राज्य में जहां जाति की राजनीति अहम रोल अदा करती है, वहां उनकी इस क्षमता को नकारा नहीं जा सकता.
राजस्थान में एक कहावत है, जिसका मोटा-मोटा मतलब यह है कि अनजान भूत से जानकार बेहतर है. पायलट अब तक नेता और प्रशासक के तौर पर खुद को साबित नहीं कर पाए हैं, ऐसे में लोगों को लगता है कि जो वोटर अभी तक फैसला नहीं कर पाए हैं, उन पर गहलोत फैक्टर का असर पड़ सकता है.
हालांकि, कांग्रेस के पास गहलोत को इस्तेमाल करने या उन्हें दरकिनार करने, दोनों के लिए योजना है. अपनी रणनीति के तौर पर कांग्रेस ने गहलोत को राष्ट्रीय स्तर पर काफी तवज्जो दी है. उन्हें पहले गुजरात का इंचार्ज बनाया गया. फिर कर्नाटक का मामला उन्होंने हैंडल किया. पार्टी में महासचिव और संगठन के इंचार्ज की जिम्मेदारी दी गई, जो बहुत सम्मान का और बड़ा पद है. इसके साथ, वो प्रेस कांफ्रेंस के लिए लगातार पार्टी हेडक्वार्टर में दिखाई देते हैं. कम शब्दों में कहा जाए, तो उन्हें सम्मान और पावर दोनों दिए गए हैं.
पार्टी को आसानी से पूर्ण बहुमत की उम्मीद है. ऐसे में गहलोत से कहा जा सकता है कि वे अपनी पसंद के उम्मीदवार चुनें. ऐसे में अपने निष्ठावान लोगों को वो उम्मीदवारों की सूची में शामिल करा सकते हैं. इन सबसे गहलोत का पार्टी की जीत में रोल तय हो जाएगा.
गांधी ने यकीनन अपने करियर की दो बड़ी घटनाओं से काफी कुछ सीखा है. पहला, हेमंत बिस्व सरमा की महात्वाकांक्षाओं की अनदेखी करके उन्होंने उत्तर-पूर्व में कांग्रेस को खत्म करने का मौका दिया. दूसरी बार, पंजाब में उन्होंने वोटर्स के सामने सीधे-सीधे कैप्टन अमरिंदर सिंह का विकल्प दिया. इससे कांग्रेस के लिए आम आदमी पार्टी के पंजाब में बढ़ते कदमों को रोकने में मदद मिली.
राजस्थान की राजनीति में हर तीसरा दशक किसी दिग्गज के अस्त के तौर पर सामने आता है. 70 के दशक में मोहन लाल सुखाड़िया को इंदिरा गांधी ने किनारे किया था. 2003 में बीजेपी ने भैरों सिंह शेखावत को सक्रिय राजनीति से अलग किया, जिससे वसुंधरा राजे का रास्ता साफ हुआ. गहलोत, जो 1900 से कांग्रेस का चेहरा बने हुए हैं, ऐसा लगता है कि इस बार उनकी बारी है. बदलाव की कुछ ऐसी ही प्रक्रिया बीजेपी में भी सतह के नीचे चल रही है. इसका नतीजा विधानसभा चुनाव के ठीक बाद देखने को मिलेगा.
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